Book Title: Bhedvigyan Ka Yatharth Prayog Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ भेदविज्ञान का यथार्थ प्रयोग परिभाषा - मिले हुए दो विषयों-पदार्थों-वस्तुओं के स्वरूपों को पहिचान कर, भिन्न-भिन्न समझने का नाम ही भेद विज्ञान है अर्थात् दोनों के भेद का ज्ञान करना - समझना एवं प्राप्त करना वह भेदविज्ञान है। मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत तो, मात्र हमारी आत्मा है। उसको मोक्ष प्राप्त कराना प्रयोजन है। अत: आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहिचानकर, संसार दशा में वह अन्य पदार्थों के साथ मिला हुआ दिखने पर भी उसको भिन्न पहिचानना, भेदविज्ञान का प्रथम चरण है। आचार्य का आदेश है कि ऐसे भेदज्ञान को “जिसमें विच्छेद नहीं पड़े ऐसे अखण्ड धारा प्रवाह से भाना चाहिये।" वह भी कबतक कि “जबतक ज्ञान, ज्ञान में ही प्रतिष्ठित न हो जावे" अर्थात् मुक्तदशा (पूर्णशुद्धदशा) प्राप्त न हो जावे। भेदज्ञान का प्रयोग भेदज्ञान का प्रयोग दो प्रकार से होता है, एक तो मिथ्यादृष्टिअज्ञानी को ज्ञानी बनने के लिये और दूसरा ज्ञानी हो जाने (चतुर्थ गुणस्थान) के पश्चात पूर्ण दशा प्राप्ति के लिये। पहिले प्रकार का भेदज्ञान भी दो प्रकार से होता है, एक तो अपने आत्मा को (त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव को) स्व के रूप में पहिचानकर-समझकर निर्णय करने के लिये; दूसरा निर्णय करने के पश्चात् भी निर्णीत आत्मस्वरूप में अपनी परिणति को एकाग्रकर, निर्विकल्प उपयोग द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिये होता है। वर्तमान में हमारी पुस्तिका का विषय, पहली पद्धति पर चर्चा करके निर्विकल्प आत्मानुभूति के मार्ग का ज्ञान कराना है। . अज्ञानी से ज्ञानी बनने वालों को सहजरूप से पाँच लब्धियों के परिणाम होते हैं। ऐसे जीव को 'सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यादृष्टि' एवं 'आत्मार्थी' भी कहा जाता है। भेदविज्ञान के सभी प्रकार की पद्धति में, स्वयं कीPage Navigation
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