Book Title: Bharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Author(s): Nemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
Publisher: Prachya Shraman Bharati
View full book text
________________
भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
• २२१ हम उनकी सहायतासे ही, उनकी शक्ति द्वारा लक्ष्यको प्राप्त कर सकते हैं । भक्तिकी सिद्धिके लिये निम्नलिखित तत्त्वोंको महत्ता दी गयी है
(१) गम्भीर श्रद्धाके साथ आध्यात्मिक प्रमोदका अनुभव (२) गुरुके समीप जाकर सत्संग करना और बुद्ध पूजा करना (३) धर्मशास्त्रोंका स्वाध्याय और उनके अनुकूल जीवन यापन (४) चित्त शुद्धि (५) नमु अमिदा वुत्सु (नमः अमितबुद्धाय) मन्त्रका जाप
प्रज्ञापारमिताओंमें बुद्धभक्तिको सबसे अधिक महत्त्व अश्वघोषने दिया है । उसने पापीसे पापी व्यक्तिके उद्धारका साधन भक्तिभावको माना । शान्तिदेवने 'बोधिचर्यावतार' और 'शिक्षासमुच्चय' में पापविमुक्तिके लिये हृदयकी व्याकुलता, बुद्धकी पूजा वन्दना, भक्तिभावकी तल्लीनता, आत्मविस्मृति एवं आत्म समर्पणको महत्त्व दिया। इस आचार्यने बुद्ध और बोधिसत्त्वोंके दास होनेकी बात कही। अतएव बौद्ध धर्ममें दास्यभक्तिका सन्देश लानेवाला यह पहला आचार्य है । शान्तिदेवकी भक्तिमें आत्मोत्सर्गकी प्रवृत्ति, उपास्यके साथ तादात्म्यकी छटपटाहट, नैतिक आदर्शवादकी अभिव्यक्ति और आत्मसमर्पणकी भावना पूर्णतया पायी जाती है । बोधिचर्यावतारमें
एवं सर्वमिदं कृत्वा यन्मया साधितं शुभम् ।
तेन स्यां सर्वभूतानां सर्वदुःखप्रशान्तिकृत् ।। अर्थात् पुण्य और शुभ कृत्योंद्वारा जो कुछ अजित किया गया है, उससे सम्पूर्ण प्राणियोंके दुःखका नाश हो। शान्तिदेवके सिद्धान्तोंमें विनम्रता अहम् भावका निरोध, बुद्ध बन्दना, शरणागत वत्सलता, वैष्णव भक्तोंके समान हैं । 'बोधिचर्या' और 'शिक्षासमुच्चय'के अनुसार भक्तिके निम्नलिखित अङ्ग है
(१) वंदना और पूजा-बुद्ध और बोधिसत्त्वोंकी पूजा और अर्चना आवश्यक है । वे संसारके समस्त पदार्थोंसे बोधि सत्त्वकी पूजा करना चाहते हैं, समस्त पुष्प, वृक्ष, फल भगवान्को अर्पण करते हैं । इतना ही नहीं, वे अपने आपको भी बुद्ध और बोधिसत्वोंको समर्पण करना चाहते हैं । बुद्धकी कारुणिक भावनासे प्रेरित होकर वे उनके चरणोंमें अपना दास्य भाव निवेदन करते हैं । इस वन्दना और पूजाके अन्तर्गत प्रेम और आत्मसमर्पणकी भावना भी निहित है।
(२) पापदेशना-जिसे वैष्णव भक्तिमें आत्मनिवेदन कहा है, उसीको बोधिचर्यावतारमें 'पापदेशना' कहा है। इस स्थितिमें साधक अपने हृदयको समस्त ग्लानियों, अपने किये हुए समस्त पापों और अपने जीवनके समस्त विकारोंका पश्चात्ताप पूर्वक उद्घाटन करता है । वह सफलताके लिये बोधिसत्त्वकी शरणमें जाता है और बिलखता हुआ कहता है-"जो भी पापकर्म मैंने इस जीवन या अतीत जीवनोंमें किये हैं या दूसरोंको करनेकी प्रेरणा की है, उन सबको मैं स्वीकार करता हूँ। मैं पश्चात्तापसे जल रहा हूँ। मैंने अपने अज्ञानसे मृत्युको
१. बोषिचर्यावतार, ३।६।
२. बोधिचर्यावतार, २८ ।