Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध और उसका विकास
पं० आनन्द झा "बौद्ध दार्शनिक परम्परा की दृष्टि से व्यक्ति, समाज, उनका सम्बन्ध एवं उनका विकास'' पर विवेचन करना है। समाज कोई भी क्यों न हो, वह व्यक्ति सापेक्ष अवश्य होता है। क्योंकि कोई भी समाज व्यक्ति के बिना किसका समाज कहलाएगा ? तात्त्विक व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध की कल्पना करके ही तो व्यक्ति के विलक्षण समुदाय को कोई भी एक समाज कहता है । गम्भीरतापूर्वक ध्यान देने पर वहाँ से हो दार्शनिकों के बीच प्रबल मतभेद खड़ा होता हुआ दिखायी देता है । गौतमीयन्याय और वैशेषिक मत के अनुसार प्रकृत कल्पना शब्द का अर्थ होता है अनुमान । अनुमान किसी विद्यमान विषय का होता ही है। अतः कल्पित होने पर भी वह व्यक्ति व्यक्ति के बीच का सम्बन्ध, अवास्तव अर्थात् सर्वथा मिथ्या, फलतः अलीक नहीं होता। ऐसा होने पर समाज भी स्वतः एक स्थिर पदार्थ हो उठता है, अतः उक्त दार्शनिक दृष्टि में व्यक्ति और समाज ने बीच प्रतीयमान सम्बन्ध भी एक स्थिर सत्य पदार्थ होता है, और उसके विकास के लिए उपाय का अन्वेषण भी सही होता है। परन्तु बौद्ध दार्शनिकों को ऐसा मानने में कठिनाई है। क्योंकि बौद्ध सिद्धान्त में सारी व्यक्तियाँ स्व-लक्षण होती हैं। स्व-लक्षण का अर्थ होता है अपने में पूर्ण, तदनुसार किसी भी दूसरे से सर्वथा सम्बन्धहीन । अतः व्यक्तियों के बीच तात्त्विक सम्बन्ध मान्य न हो पा सकने के कारण विशृङ्खल व्यक्तियों के पुञ्ज को ही नाम मात्र के लिए समाज कह दिया जाता है । इसीलिए समाज बनता और बिगड़ता रहता है। भले ही वह समाज किसी का भी क्यों न हो, चेतन का हो या अचेतन का । आज जो आपामर साधारण जन में “समाज" शब्द का प्रयोग होता है उसका अभिप्रेत अर्थ मानवपुंज ही होता है अन्य किसी का कोई पुंज नहीं।
दार्शनिक दृष्टि को अपनाते हुए गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह तो मानना ही होगा कि आज की भारतीय राजनीति अप्रत्यक्षरूप में ही सही बौद्ध
परिसंवाद-२
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