Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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काश्मीर के अद्वैत शैवतन्त्रों में सामाजिक समता
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इसी प्रकार योग सुधाकर के प्रख्यात रचनाकार सदाशिवेन्द्र सरस्वती दो प्रकार के मंत्रों की ओर ध्यान ले जाते हैं-"ते च मन्त्राः द्विविधाः, वैदिकास्तान्त्रिकाश्च । वैदिकाः प्रगीतागीतभेदेन द्विविधाः । तान्त्रिकाः स्त्रीनपुंसकभेदेन त्रिविधाः" (पृ० ४३)। सच पूछा जाए तो वैदिक और तान्त्रिक धारा का मूलभेद यहीं से प्रारम्भ होता है। वैदिकसंस्कृति वर्णाश्रमव्यवस्थामूलक और पुरुषप्रधान संस्कृति है और तान्त्रिक संस्कृति वर्ण, आश्रम और लिङ्गभेद की उपेक्षा करके चली है । कुलार्णव तन्त्र में कहा गया है
गतं शूद्रस्य शूद्रत्वं विप्रस्यापि विप्रता।
दीक्षासंस्कारसंपन्ने जातिभेदो न विद्यते ॥ (पृ० १८७) . आध्यात्मिक संस्कार से सम्पन्न व्यक्ति में जाति का यह विगलन और संस्कारिता का समीकरण सबसे ऊँचे और सबसे नीचे दोनों स्तरों पर होता है। अभिनवगुप्त गीतार्थसंग्रह में इसी अन्तर को फिर से रेखांकित करते हैं
शूद्राः कात्स्र्नेन वैदिकक्रियानधिकृतः। परतन्त्रवृत्तयश्च, तेऽपि मदाश्रिता मामेव यजन्ते ॥
__(गीता ९.३५ पर गीतार्थसंग्रह) वर्णभेद के इस निषेध की भाँति लिङ्ग-भेद का भी अभिनव ने साफ निषेध किया है और इस निषेध का कारण भी बताया है कि लिङ्ग के आधार पर पात्रता का अपलाप परमेश्वर के सामर्थ्य और उसकी अगाध अनुग्रह शक्ति का उपहास उड़ाना है
'केचिदाचक्षते-द्विजराजन्यप्रशंसापरमेतद्वाक्यं, न तु स्वादिष्वपवर्गप्राप्तितात्पर्येण इति । ते हि भगवतः सर्वानुग्राहिकां शक्ति मितविषयतया खण्डयन्तः तथा परमेश्वरस्य परमकृपालुत्वमसहमानाः, भगवत्तत्वे भेदलिङ्गं बलादेवानयन्तः, मात्सयार्वाहत्थलज्जाजिह्मोकृतावाङ्मुख-दृष्टय इति हास्यरसविषयभावम् आत्मनि आरोपयन्ति इति ।' (गीता ९.३५ पर गीतार्थसंग्रह)
वर्णाश्रम परम्परा और लिङ्गभेद की यह उपेक्षा दो तरह से की गयी हैकहीं पर पूर्ण निषेध, अस्वीकार या उल्लंघन के द्वारा और कहीं पर उसके साथ समझौता करके । पहले प्रकार की अभिव्यक्ति वाममार्ग की पद्धति में और दूसरे की दक्षिण मार्ग से हुई है। पर मूल भाव एक ही है। जीवन को उसकी समग्रता (T tility में स्वीकार करना तांत्रिक संस्कृति का पहला लक्षण है।
तन्त्रों में यह बात बार-बार आई है कि मनुष्य के वैयक्तिक (आश्रम), सामाजिक (वर्ण) और आध्यात्मिक व्यक्तित्व परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि एक
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