Book Title: Bhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Author(s): Jagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
Publisher: Vishvavidyalay Prakashan
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भामिनी-विलासे नीतः = असेवनीय हो गये हो। तान् अपि = उन ( सर्पो )को भी । वहसि = धारण करते हो। त्वदीयम् = तुम्हारी। औन्नत्यं = महत्ताको किं कथयामः = क्या कहें। ___टीका-हे पटीरज = मलयज ! चन्दनेत्यर्थः । ( गुणानां शीतलत्वसौरम्यादीनां गणः = समूहः अस्यास्तीति ) तद्वान् = सर्वगुणसम्पन्नोपीत्यर्थः । त्वं यैः प्रसिद्धः । ( द्वे=द्विसंख्याके जिहवे रसने येषां तैः ) द्विजिह्वः = भुजंगमैः, खलैरिति ध्वन्यते । ( न सेवितुं योग्यः असेव्यः तस्यभावः तत्ता, ताम् ) असेव्यतां = सेवयितुमयोग्यतां, नीतः = प्रापितः । तान् = एवंभूतान्, अपि त्वं वहसि = धारयसि । त्वदीयं = त्वत्संबन्धि ( उन्नते भावः ) औन्नत्यं = महत्त्वं । किं कथयामः कैः शब्दैवर्णयामः । ___ भावार्थ-हे चन्दन ! जिन विषधर भुजंगमोंने तुम्हें सज्जनोंसे असेवनीय बना दिया है, अर्थात् जिनसे लिपटे रहनेके कारण सज्जनलोग तुम्हारे पास आनेमें डरते हैं, उन्हें ही धारण किये रहते हो । तुम्हारी इस महत्ताका हम क्या वर्णन करें।
टिप्पणी-अपने सद्गुणोंके कारण जो जितना प्रसिद्ध होता है और अधिकते अधिक लोग जिसकी चाह करते हैं वह उतनेही खलोंसे ( पिशुनोंसे ) भी घिरा रहता है। परिणामतः सज्जन लोग उसके पास तक पहुँचने ही नहीं पाते । किन्तु उसका स्वभाव ही ऐसा शीतल और स्नेहमय होता है कि खलोंकी खलताको जानता हुआ भी वह उन्हें दुत्कारता नहीं। यह उसकी महिमशालिता ही है कि वह उन्हें आश्रयहीन नहीं बनाता। इसी भावको लेकर यह अन्योक्ति कही गयी है । पटीरज यह लाक्षणिक शब्द है ( देखिये श्लो० ११की टिप्पणी ) । द्विजिह्व शब्द स्पष्टतः पिशुनका वाचक होनेसे श्लेष अलंकारका प्रदर्शक है; किन्तु पटीरज यह सम्बोधन उसे ध्वनिरूप होनेके लिये विवश कर देता है । ___ यह व्याजस्तुति अलंकार है- "उक्तिया॑जस्तुतिनिन्दास्तुतिभ्यां स्तुतिनिन्दयोः" ( कुवलया० ) । खलोंकी खलताको जानकर भी उन्हें
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