Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 31
________________ भक्तामर स्तोत्र : सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्र र विभाजते तव वपुः कनकावदातम् . बिम्ब वियहिलसदंशुलतावितान, तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्रप्रम। "', 'सिंहासन चौकी मणिमयूख मणिमोकी किरणे शिखा-ज्वाला।विचित्र कई रंगका। विभ्राजते -शोभता है। तव तुम्हारा । वपु शरीर कौनक सोना - भवदात्त शुद्ध । बिच प्रतिबिंध । वियत् = आकाश । विलसत् = शोभमान। अंशु लता-किरण रूपोलता वितान-विस्तार । तुंग-ऊंचा। उदयाद्रिदयाचल। शिर:-चोटी । वजैसे सहस्ररश्मिा- सूर्य ॥ । 'F. 123 " भन्वयार्थ-ऊंची उदयाचल पहाड़ की चोटी पर आकाश में चमक रहा है किरण रूप लतावों का समूह 'जिसका पैसा सूर्य का मण्डल जैसे धीमे है वैसे मणियों "की किरणों के तेज (ज्वाला) से मनेक धर्ण के सिंहासन पर सोने के समान शुख तेरा शरीर शोमता है। " मावार्थ-हे भगवन जैसे उदयाचल पर्वत पर सूर्य शोभता है वसे ही भनेक प्रकार के रत्नाकर जड़ितसिंहासन पर आपका स्वर्ण समान पीतवर्ण शरीर शोभता हैमर्थात् यहां आचार्य ने स्वर्ण के सिंहासन पर तिष्टते हुए भगवान की उर्दयाबाट की चोटी पर आरूद सूर्य की उपमा दी है ।। सिंहासनः मणि किरण विचित्र । तिस पर, कंचन वरणा पवित्र ॥ तुम तन शोभित किरण विधार। ..ज्यों उदयाचल रवि तम हार ॥२९॥

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