Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 36
________________ भक्तामर स्तोत्र । शुम्भलप्रभावलयभूरिविभाविभोस्त, लोकत्रयद्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती। प्रोद्यहिवाकर निरंतर भूरिसंख्या, . दीप्त्याजयत्यपिनिशामपिसीमसौम्याम। - शुंमत् = शोभायमान् । ममा- कांति । वलय -मण्डल । भूरि अधिक। विमा प्रभा। विभु-प्रभु । ते-तेरी। लोकत्रय-तीनलोक ! तिमत: कांति वाला द्युति-शोभा। आक्षिपन्ती-तिरस्कार करती हैं। प्रोद्यत जगा हुआ। दिवाकर सूर्य । निरंतर लगातार भूरि-जियादा । संख्या-गिणती । दीप्त्या - कांति से। जयति जीतती है अपि भी निशा रात मपि भी। लोम चान्द सौम्या डी .. रात अपि-मी। सोम चान्द . भन्वयार्थ, हे भगवन मापकी शोभा वाले कांति के भामण्डल को भधिक ममा तीन लोको के तेजस्त्रियों के तेज को तिरस्कार करती हुई उदय हुए अनेक सूर्यों के समान तेज वाली भी चांद के समान ठंडो हुई हुई रात को भी कांति से जीत लेती है। भावार्थ:-हे.प्रभो आपके भामंडल की ज्योति का इतना तेज है कि तीनलोक में जितने सूर्यादिक पदार्थ हे सर्व मंद मासते हैं इतना तेजस्वी होने पर भी सौम्यपने में रात्री के चन्द्रमा को शीतलता को भी जीतता है ॥ , तुम तन भामंडल जिन चन्द । सब दुतिवन्त करत है. मन्द । कोटि संख्य रवि तेज छिपाय . - शशिनिर्मल नित करै अछाय ।।३४... ३४-भामण्डल : शोमा का मण्डका

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