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॥ॐश्रीवीतरागाय नमः ॥ भक्तामर स्तोत्रम्। शब्दार्थ; अन्वार्थ, भावार्थ और भाषा पाठ
कठिन शब्दों के अर्थ. सहित । हकीम ज्ञानचन्द्र जैनी ने छपवाया
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: : JAIN RELIGIOUS TRAOTS SERIES
. . . . . No.:51.
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सन्१९१२ ई०।वीर २४३८ मूल्य छ. मिलने का पता:-. हकीम ज्ञानचन्द्र जैनी मालिक दिगम्बरजैनधर्म ..पुस्तकालयं लाहौर।" , पजाय एकानोमीकल' यन्त्रालय लाहौर में प्रिण्टर . लाला लालमन जैनी के अधिकार से छपी।
इक्क स्वाधीन रखा है और कोई न छापे ।
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भूमिका ।
यह भक्तामर संस्कृत पाठ श्रीमानतुंगाचार्य रचित हैं और इस का शब्द अर्थ अन्वयार्थ भाषार्थ हमने लिखा है और भाषा पाठ पण्डित हेमराज कृत है कठिन शब्दों का अर्थ हमने लिखा है परन्तु काल दोष से अन्यमति लेखका ने भक्तामर संस्कृत की ६वीं और ४५वी काव्य और भाषा पाठ के ३९ और ४४ छन्द में ऐसे शब्द प्रचलित कर दिये थे। जो स्त्री और पुरुषों की विषयेद्वियों के नाम हैं जब कभी स्त्री और मरद यां 'पिता और पुत्र या पुत्री मिल कर यह पाठ पढ़ा करते थे तो महा लज्जा का स्थान होता बल्कि जब कभी कोई विषया पण्डित कभी किसी स्त्री को यह पाठ पढ़ाता था. तो बार बार
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इन शरमनाक शब्दों का उच्चारण करने से उस स्त्री के शील अंगका कारण होता था सो दैवयोग से तलाश के बाद शुद्ध पाठ मिल जाने से हमने संस्कृत का पाठ ठीक कर और संस्कृत के अर्थ के साथ भाषा का मिलान कर सर्व त्रुटियां दूरकर दोनों पाठ अति शुद्ध कर छापे हैं भाषा छन्द ३२ में रवि नहीं रख पढ़ो छ १३ में डाकपत्र नहीं पीन पत्र- पदो.
.. इस स्तोत्र का नाम भक्तामर कहने का यह कारण हैं, कि इस स्तोत्र के आदि भक्तामर पाठ होने से इसे भक्तामर कहते हैं अथवा जो भक्त शुद्ध मन करके इस स्त्रोत्रको नित प्रति पढ़े वह अमर कहिये. देवता, अथवा अ कहिये नहीं, मर कहिये मरना यानि नहीं मरने वाले अर्थात सिद्ध होजाते हैं ।
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मक्तामरस्तोत्रम्।
वसन्त तिलकछन्दः । सो भक्तामरप्रगतमौलिमणिप्रभाणावर मुद्योतकं दलितपापतमो वितानम । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगयुगादा, वालंबनं भवजले पततां जनानाम् ।
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शब्दार्थ-भक नसने घालें। अमर -देवता। प्रणत प्रणाम करते। मौलि-मालक (मगाट)। मणि परल ! प्रमा-फांति । उद्योतक - प्रकाश करनेवाला. दलित दूर कर दिया है। पाप-पाप रूपी । तमःअधेरा। बितान-समूह । सम्यक नली प्रकार | प्रणम्य प्रणाम करके। जिनपाद - जिनेन्द्र के चरण। युग हो । युगादी-शुग मे भादि में। भालंम्बन संहारा। भवजल संसाररूपी पानी गर्यात संसार समुद्र । पतता -गिरते हुये जिन-जीव ॥ .
मन्ययाधं-मक्ति करनेवाले जो देवता उनके नमें हुपं जो माथे उनके मुकुंटों को मणि (रनों की कांतिका भी प्रकाशक, दूर कर दिया है पाप रूपं सन्धेरे का समूह जिसने और संसार रूपी जल (समुद्र में गिरते जीयों का सहारा ऐसा जो "युगादि में हुए" जिन का पाद युगल उस को भली भांति प्रणाम करके ।
मांधार्थ-ग्रहां भाचार्य कहते हैं कि प्रभो मापके चरणों में इतनी ज्योति है कि जिस समय इन्द्र नमस्कार करते हैं उनके मुकुटो में जडे हुए जो रत्न जगमग जगमग करते हैं। यह वमका उन रत्नों में केवल आपके चरणों को प्रभा पड़ने से ही पैदा होती है मापके चरणपाप रूपी अंधेरे के नाशफ, संसार रूपी समुद्र में गिरते इए प्राणियों को हाथ से पकड़ कर बचाने वाले हैं। , आदि पुरुष आदीशजिन, आदिसुविधि करतार। . :धर्मः धुरन्धर परमगुरु, नमो आदि अवतार॥ ७
'. ॥१५ मात्रा चौपाई छन्द ॥ नतंसुर मुकुट रत्न छवि करें । अन्तर पाप तिमिर सब हरे॥ जिनपद बन्दं मन क्च काय । भवजल पतित उद्धरणसहाय ॥१॥
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भक्तामर स्तोत्र |
यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्वबोधा, दुद्भुतबुद्दिपटुभिः सुरलोकनाथेः । स्तोत्रेर्जंग प्रितयचित्त हरैरुदारेः, स्तोष्येकिलाहमपितं प्रथमं जिनेद्रम् ॥२॥
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शब्दार्थ - यः = जो । संस्तुतः = स्तुति किया गया। सकल = सभी 1 वाढाय (शास्त्र) तत्व = यथार्थसार । बोध- ज्ञान । उद्भूत - उत्पन्न हुई । बुद्धिमान | पटु = चतुर । सुरलोक = स्वर्ग | नाथ = स्वामी । स्तोत्र - स्तुतिः। जगत्संसार | त्रितय == तीन । अर्थात् स्वर्ग मायें (मनुष्यलोक) पाताल | विश्व (दिल) | हरे हर घाले । उदार=अच्छे । स्तोष्ये = स्तुति करता हूं । किल निश्वय से । अहं - मैं । अपि भी । तं = उसको । प्रथम पहिले । 'जिनेन्द्र आदि नाथ ॥
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अन्वयार्थ -- समस्त शास्त्र के तत्वज्ञान से उत्पन्न हुई जो बुद्धि उस करके
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चतुर जो इन्द्र उन करके तीन लोकों के वित्त को हरने वाले उज्वल ' स्तोत्रों से जो स्तुति किया गया है उस आदि जिनेन्द्र की मैं भी स्तुति करता हूं ॥.
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भावार्थ - इस द्वितीय छन्द में कवि (आचार्य) ने स्तोत्र रचने की प्रतिज्ञा करी है और यहां आचार्य कहते हैं कि इन्द्र जैसे बुद्धिमान् स्तोत्र कर्ता जिस प्रभु की स्तुति करते हैं उस भगवान् की मैं भी स्तुति करने लगा हूं ।।
श्रुतिपारगइंद्रादिकदेव । जाकी स्तुति कीनी कर सेव ॥ शब्द मनोहर अर्थ विशाल | तिसप्रभु की वरणुं गण मालं |२|
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आदि पुरुष = प्रथम पुरुष | आदिश, जिन - प्रथम जिनदेव | आदि सुविध करतार = कर्मभूमिकै आदि में विधिके कर्त्ता । धर्मधुरंधर - धर्म की धुरा (भार) के धारणेवाला ॥
१- नतसुर = नत (नम्र) भक्त जो सुर देवता । छषि = शोभा । अन्तर = भीतर, का। पाप तिमिर = पाप रूपी अन्धेरा । वचक्रपाणी । काय = देह | भष= संसार । - (जलधि) समुद्र । पतित गिरे हुए | उद्धरण = निकाललेना ।
२-- श्रुतिपारग शास्त्र के पार जाने वाले । मनोहर सुन्दर विशाल बहुत विस्तार वाला | प्रभु स्वामी । गुणमाल गुणों की माला (जुन समूह ) ॥
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भक्तामर स्तोत्र ।
बुझ्या विनाऽपि विवधार्थित पादपीठ, स्तोतुसमुद्यतमतिर्विगतचपोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थित मिंटू बिंब, मन्यःकइच्छतिजनः सहसाग्रहीतुम् ॥३॥
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बुधा = बुद्धि से । बिना = गैर अपि = भी। विबुध - देवता । अचिंत, पूजित। पादपीठ - छोटी चौंकी। स्तोतुं - स्तुति करने के लिये । समुद्यत - तैयार मति बुद्धि । विगत = दूर होगई । त्रपा लज्जा (शरम) । अहं = में । वालं = वच्चेको। विहाय छोड़ कर जल पानी। संस्थित विस्व [मण्डल | अन्य दुसरा । कः कौन । इच्छति सहसा जलदी प्रहतुं पकड़ने को ॥
ठहरा हुआ । इन्दु चांद | चाहता है । जनः मनुष्य
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अन्वयार्थ - देवताओं करके पूजा गया है पादपीट जिसका ऐसे हे स्वामिन् !
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दूर होगई है लज्जा जिसकी ऐसा में बुद्धि से बिना हो स्तुति करणे को तैयार हुधा हुँ, पानी में स्थित धान्द के प्रतिबिंध को बिना चालक के दूसरा कौन मनुष्य शीघ्र प्रहण करना चाहता है ॥
भावार्थ-जैसे जल में पड़े हुवे चान्द के प्रतिबिम्ध को महा मूढ़ बालक पकड़ना चाहे वैसे मैं आप की स्तुति करने लगा हुँ अर्थात् यहां आचार्य कहते हैं कि दे भगवन् जैसे पानी में पड़े चांद के प्रतिविम्व को पकड़ना असंभव है वैसे ही मेरी बुद्धि कर आपका स्तोत्र रचना असम्भव है, तो भी मैं शरम छोड कर आपका स्तोत्र रचने को उद्यमी हुआ हुं ॥
विधवध प्रभु मैं मतिहीन । होय निलज स्तुति मनसा कीन । जल प्रतिविम्व बुद्धको गहे । शशिमण्डल बालक ही चहे ॥३॥
३ - विबुध देवता । निलज (निर्लज्ज ) = वैशरम | जलप्रतिविम्व = पानी में पड़ा हुवा चान्द का प्रतिविम्व । शशिमण्डल - चान्द | बुद्ध = पण्डित । गद्दे - पकड़े | बालक - यच्चा (मूर्ख) । हे इच्छे है ॥
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भक्तामर स्तोत्र। बक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशांक कांतान्, कस्ते क्षमा सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुझ्या । कल्पातकालपवनोइतनचक्र, कोवा तरीतुमलमबुनिधि भुजाभ्याम् ॥४॥
वक्तुं कहने को गुणानं गुणों को। गुणसमुद्र हे गुणों के सागर। शशांक चांद । कांत-सुन्दर । का कौन । ते तुम्हारे । क्षमः - समर्थ । सुरगुरुवृहस्पति । प्रतिमा -समाम। अपि भी बुद्धया = बुद्धिसे । कल्पांतकाल प्रलयकाल पवन वायु । उद्धत -उछाले । नक - मगरमच्छ । चक्र समूह । का-कौन । पा भथवा । तरीतुं तैरने को । मलं समर्थ । मम्वुनिधि समुद्र । भुजाभ्याभुजाओं से (हार्थो से)।
- अन्वयार्थ हे गुणों के सागर! चान्द के समान मनोहर तेरे गुणों के कहने को बुद्धि से वृहस्पति के तुल्य भो कौन पण्डित समर्थ है। प्रलय काल की वायु से उछल रहे है नाकों के समूह जहां ऐसे समुद्र को भुजावों से कौन तैर सकता है।
भावार्थ-यहां आचार्य कहते हैं कि हे गुणों के सागर भाप के गुण असंख्य हैं जब वृहस्पति सारखे बुद्धिमान भी आप के गुण वर्णन करने में अशक्त हैं वव मेरी । अल्पबुद्धि कर भापके गुणों का वर्णन करना हाथों से अगाध समुद्र के तरने के समान है। गुणसमुद्र तुम गुणअविकार । कहत न सुरगुरु पावे पार ॥ . प्रलय पवन उद्धत जलजन्ता जलधि तिरे को भुजबलवन्त॥॥.
४--गुणसमुद्र गुणों का सागर । अविकार -विकार से रहित (शुद्ध)। . सुरगुरु बृहस्पति । पवन वायु । उद्धत -उछलते । जलजन्त -जल के जीव ! जलधिसमुद्र ।भुज बांह से । बलवन्त बलपाला ॥
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भक्तामर स्तोत्र। सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कतुं स्तवं विगतशक्ति रपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्यमगी मृगेन्द्र, नाऽभ्येति किंनिजशिशोःपरिपालनार्थम् ॥५॥
सोहम् = लो में । तथापि तो भी । तव = तुम्हारी । भक्तिवशात् =भक्ति के पश से । मुनीश-मुनीश्वर । फतु = करणे को स्तव-स्तोत्र । विगत दूर होगई। शक्ति साम । अपि-प्रवृत्त - तत्पर (मशगूल) प्रीत्या - प्रेम से । आत्म बीर्य - अपनी ताकत । अविर्य विना यिचा । मगी-हिरनी। मृगेन्द्र' =शेर । नाभ्येतिसन्मुस नहीं भाती । कि क्या । निशिशोः अपने बच्चे के। परिपालनार्थमबचाने के लिये ॥
अन्वयार्थ-तो भी हे मुनीश शक्ति हीन भी मैं तुम्हारी भक्ति के वश से स्तोत्र यनाने के लिये प्रवृत्त हुआ हूं।
हिरणी प्रेम से अपनी ताकत को न विचार कर अपने बच्चे के बचाने क लिये शेर के सन्मुख पधा नहीं जाती।
भवार्थ-जैले हिरणी अपने में शेर के मुकाबले की ताकत न होते हुए भी अपने बच्चे की प्रीति के घश से शेर के सन्मुख जाती है वैसे ही मैं यह जानता भी हूं कि मेरे में भापके स्तोत्र बनाने को लियाकत नहीं है तो भी मैं हे अाहन्त भगवन् भाप के प्रेम के वशीभूत हुआ आप का स्तोत्र वानने में तत्पर (मशगूल) हुआ हूं । सो मैं शक्तिहीनस्तुतिकरू । भक्तिमाव वश कुछ नहीं डरूं । ज्यू मृगी निज सुत पालन हेत । मृगपति सन्मुखजाय अचेत ॥५
, ५-शक्ति हीन - सामर्थ्य से रहित (कमजोर)। भाव-भावना । मृगी'हिरणी । निज- अपना । सत=पुत्र । हेत=लिये । मृगपति शेर, अचेत-विना
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भक्तामर स्तोत्र ।
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम,
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त्वज्ञक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चारुचामुकलिकानिकरैकहेतुः ॥ ६ ॥
अल्प - थोड़ा । श्रुत शास्त्र । श्रुतवतां पण्डितों को परिहास -हांसी । धाम पात्र । स्वद्भक्ति तुम्हारी भक्ति । एव ही । मुखरीकुरुते = बाचाल करती है । चलातू - जोर से। मां मुझे । यत् - जैसे (जो ) कोकिल' - कोयल | किल' निश्चय से । मधी बसन्त में मधुर - मीठा वरौति शब्द करता है । तत् वह । चारु-मनोहर । आम्र आम । कलिका - कली (मजरी वा कोहर) निकर समूह । एकहेतु एक खास लवव ।
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अन्वयार्थ - हे प्रभो थोड़ा पढे हुचे और विद्वानों की हांसी के स्थान मुझ को आप की भक्ति जोरावरी से बहुत बोलने वाला' करती है जो वसन्त ऋतु में ... कोयल मीठागाती है उसमें मनोहर आम की मञ्जरी का समूह ही सच है |
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भावार्थ- हे भगवन् जैसे वलन्त ऋतु में आम के कोर के प्रभाव से तृप्त हुई हुई कोयल मीठे मीठे शब्द करती है उसी तरह से मुझ- फम इलम आलमों की हांसी के स्थान को आप की भक्ति जोर सोर से धारा प्रवाह अपकी स्तुति करने को मजबूर करती है |
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नोट - इस श्रीमानतंगाचार्य, रचित काव्य में किसी ने आम्म्र शब्द दूर कर उसकी जगह एक ऐसा लज्जा उपजाने वाला शब्द गूंथ दिया था जो स्त्री के उस पोशोदा अंग का नाम है जिल से पुत्र पुत्रो जन्मते हैं देखो जैनस्तोत्र संग्रह पृष्ठ ४
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'छापा चम्बई सं० १९४७ वि० सो इस समय तक किसीने भी उस दोष के दूर करने की कोशिश नहीं की जब हमने प्रथम यह संस्कृत पाठ छापा तब यह त्रुटी दूरकरी थी | मैं शठ बुद्धि हसन को धाम । तुम मुझ भक्ति बुलावे राम ॥ ज्यूंपिक, अम्न कली परभाव । मधऋतु मधुर करे आरात्रः ॥ ६ ॥
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. भक्तामर स्तोत्र। .. .. त्वत्संस्तवेन भवसंततिसन्नि बी, पापक्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रांतलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्याशुभिन्न मिव शावरमंधकारम् ॥ ७॥
'स्वरसंस्तवेन = तुम्हारे स्तोत्र ले। भवसंतति जन्म समूह । सन्निबछ> बन्धे हुये । पाप गुनाह । क्षणात् थोड़े वकत में । क्षयं मास को । उपैति-प्राप्त होते हैं । शरीरमा -देहधारियों के। अक्रांतअलोक दुनियां में छारहा अलिनीलं - भ्रमरके समान नौला । अशेष-कुल। आशु मजल्दी । सूर्य रवि । अंशु -किरण । मिन्नं दूर किया । इस तरह । शार्वर = रात का । अन्धकार अन्धेरा ॥ · :
अन्वयार्थ-हे प्रभो ! जैसे जगत् को माक्रमण करणे वाला भौरे के समान काली रात का तमाम अन्धेरा सूर्य की किरण से फटा हुआ तत्काल नष्ट होजाय है वैसे ही प्राणियों का जन्म जन्मान्तर से बंधा हुआ पाप कर्म आपके स्त्रोत से क्षण में नाश को प्राप्त होता है ।
• भावार्थ हे भगवन् जैसे जगत् में छाया हुमा भी अन्धकार सूर्य के प्रकाश से नष्ट होजाता है। वैसे ही आप का स्तोत्र पढने से अनेक जन्म के बांधे हुए पाप क्षण मात्र में जाते रहते हैं। तुम यश जपत जन छिन माहि । जन्म जन्म के पाप नसाहि ।। रवि उदय फटे तत्काल । अलिवत् नील निशा तम जाल ॥७॥
-जंपत जपना (उच्चारणा ) । नसाहिं - नस जाते हैं । रवि-सूर्य ... उदय जगना॥ -:: : भलिवत्-भौरे के समान। नील नीला, काला । निशा - रात। तमजाल- अन्धेरै का समूह ।। ..
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१० . . भक्तामर स्तोत्र। मत्वेति नाथ तव संस्तवनंमयेद, मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात्। चेतोहरिष्यति सतां नलनीदलेश, मुक्ताफलद्युतिमुपैति नन्दविन्दुः ॥८॥
, मत्वा मानकर । इति यह । नाथ: स्वामिन् । तर तुम्हारा। संस्तवन -स्तोत्र मिया मेरेसे । - यह । आरभ्यते -शुरु किया गया है तनुधिया कम घुदि ।मपि -भी। तब-तुम्हारे। प्रभाव:-प्रताप । चेतो-दिलको । हरिष्यति -धुरालेगी। सतां सज्जन । नलिनी-कमलिनी दल-पत्र:। मुक्ताफल = मोती। युति कांति । उपैति-पाता है । ननु निश्चय से । उदनिन्दुजलकी बून्द ।
. अन्वयार्थ-हे स्वामिन् । यह जान कर तुम्हारे प्रभाव से थोडी बुद्धि करके भीतुम्हारा स्तोत्र मेरे से शुरू किया जाता है तो यह स्तोत्र सज्जनों के चित को हरेगा। जल की बुन्द कमलनी के पत्ते पर पड़ी हुई मोती की शोभा को धारती है।
भावार्थ-हे भगवन जैसे कमल के पत्र पर पड़ी हुई पानी की वन्द मोती समान भासती है यही मानकर मैंने आपका स्तोत्र बनाना शुरू किया है । ..
सो उमेद करता हूं कि मुझकम इलमसे किया हुआ यह आप का स्तोत्र (गुणानुवाद) सज्जनों के चिस को हरेगा ।। ' , :. .
तुमप्रभाव ते करूं विचार । होसी यह थुति जनः मन हार ज्यों जल कमल पत्र पै परे । मुक्ताफल की युति विस्तरे ॥ ८||
-प्रभाव - प्रताप । होली = होवेगी । मनहार=मन को हरने वाली। पत्र -पचा। पर गिरे। मुक्ताफल- मोती थुति = फान्ति ।
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'भक्तामर स्तोत्र |
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोष, त्वत्संकथाsपि जगतांदरितानि हंति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांनि ॥ ८ ॥
मास्ता = (दूर) रहो। तब तुम्हारा । स्तवन स्तोत्र | अस्त = नाश (दूर) होना। समस्त = सकल | दोष -गुनाह । त्वत्-तुम्हारी । संकथा = अच्छी कथा | . अपि = भी। जगतां संसार के दुरित पाए। हन्ति नाश करती हैं। दूरे दूर में
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सरोवर
सहस्र किरण - सूरज । कुरुते - करता है। प्रभा तेज। एत्र ही । पद्माकर जलज कमल । विकाशमांजि - खिलने वाले ।
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..., भत्वयार्थ - दूर कर दिये हैं सकल पाप जिसने एसा आपका स्तोत्र तो दूर रहो आपकी तो कथा ही पापों को दूर करती है सूरज तो दूर रहो सूरज को कांति ही सरोवरों में कमलों को खिलाने वाले कर देती है ।
भावार्थ- हे भगवन जैसे सूर्य तो बहुत दूर है सिरफ उसके उगने के पूर्व कर किये हुवे उजाले से प्रातःकाल कमल खिल जाते हैं तैसे ही आप का स्तोत्र तो एक बहुत बड़ी बात है केवल तुम्हारे नाम मात्र के उच्चारण से ही जीवों के पाप दूर होजाते हैं ।
तुम गुण महिमा हत दुःख दोष 1 सो तो दूर रहो सुख पौष ॥
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पाप विनाशक है तुम नाम | 'कमल' विकासे ज्यंरविधाम ॥९॥
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7. महिमा माहातस्य. (बड़ाई) 1 हत - नाश करनेवाली विकाशे - जिलायें। रविधाम -सूरत का तेज !!
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भक्तामर स्तोत्र। नात्यद्भुतंभुवन भूषण भूत नाथ, भूतैर्गुणैर्भुवि भवंतमभिष्टवंतः। तुल्या भवंति भवतीननु तेनकिंवा, . भूत्याश्रितंयङ्कहनात्मसमं करोति ॥१०॥
न-नहीं । अत्युद्भुत बड़ा आश्चर्य । भुवन =संसार भूषण = अलंकार (जेवर)। भूत-प्राणि । नाथ = स्वामी । भून-सुन्दर । गुणगुण । भुवि जमीन पर भवन्त आपको । अभिष्टुवन्तः = स्तुति करते हुए । तुल्याबरोवर भवन्ति = होते हैं । भवतः = तुम्हारे । ननु निश्चय से । तेन -इस करके । किं क्या । वाअथवा । भूति-विभूति । श्रितं =दासाया-जो। इह = यहां। न नहीं । आरमसम - अपने समान । करोति करता है।
। भन्धयार्थ-हे जगत् के भूषण भतो प्राणियों के स्वाभिन पृथ्वी में सच्चे गुणों कर आपको स्तुति करते हुये भक यदि आप के तुल्य होजाते हैं तो इसमें क्या भाश्चर्य है।
इस जगत में जो अपने आश्रित को विभूति करके अपने समान नहीं करता उस से क्या।
भावार्थ-हे नाथ इस जगत में वही स्वामी श्रेष्ठ हैं जो अपने भाधित को विभूति कर अपने समान कर देते हैं सो यदि आपको भजते भजते जो भक्त जीव, इस ही दुनियां में आप के समान होजाते हैं तो इस में क्या आश्चर्य है।
नहीं अचंभ जो होय तुरन्त। तुम से तुम गुण वरणत सन्त । जो आधीन, को आप समान।
करे न सो निन्दित धनवान् ॥१०॥ १०-भचन अचमा(भाश्चर्य्य)। तुमसे तुमजैसे भाधीन सेवक(भक्त)।
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भक्तामर स्तोत्र |
दृष्ट्वा भवंतमनिमेषविलोकनीयं, नाऽन्यच तोषमुपयाति जनस्यचक्षुः । पीत्वा पयः शशि करद्युतिदुग्धसिंधोः, चारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥ ११ ॥
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दृष्टवा देख करके । भवन्तं - आपको । अनिमेष - बिना आंख के प्रसक्ने 'से'।' बिलोकनीयं = देखने योग्य ! न नहीं । अन्यन्त्र = और जगह । तोष आनन्द ।
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उप-याति पाती है । जनस्य - मनुष्यकी । चक्षुः- आँख पीत्वा - पी करके । पूयुः -
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दूध । शशि कर बांद की किरण वृति कांति । दुग्धसिंघ क्षीरसमुद्र । -
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खारी | जल - पानी | जलनिधि समुद्र । असितुं पीने । को कौन ।
=
इच्छेत् = चाहे ।
- अन्वयार्थ - हे प्रभो न झमकने से देखने योग्य आपको देख कर मनुष्य की
आंख दूसरी जगह आनन्द को नहीं पाती । चन्द्रमाकी किरणों की शोभा के समान
शोभावाले क्षीरसमुद्र के दूध को पीकर दूसरे समुद्र के खारे पानी पीने को कौन चाहता है।
すみ
भावार्थ--हे भगवन काल के भेदों में भांख चमकने मात्र वक्त (एकपलक) थोड़ासा समय है सो भाप का यह देखने योग्य ( दिलकश ) स्वरूप नहीं सकती है आंख जिस की लगातार देखनेवाला) एक पलक तो क्या अगर जरा भो इन्सान की आंख देख लेवे तो फिर वह आपको देखतो हुई पलक्रमात्र भी दर्शनाभाव नहीं सहती हुई लगातार आप को ही देखने की इच्छक किसी दूसरे को भी देखना पसंद नहीं करती क्योंकि क्षीरसमुद्र के उज्जल दुग्ध को पीकर खारे समुद्र का जल कौन पीना चाहता है
नोट- भरतकी आंख कभी नहीं क्षमकतो ओर देखने वालों की भांख भी उनको देख कर यहो चाहती है कि मैं उन के स्वरूप को देखे जाऊं झमकुं नहीं || इकटक जन तुम को अविलय । और विषे रति बरे न सोय || को कर क्षौर जलधि जल पान । क्षार नीर पीवे मति मान
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भक्तामर स्तोत्र। यैःशांतरागरुचिभिः परमाणुमिस्त्वं निर्मापितस्विभुवनैकललामभूत। तावंत एव खलु तेऽम्यणवः पृथिव्यां यत्तेसमानमपरं न हिरूपमस्ति॥१२॥
+ + 2-जिन्हों करके। शांतराग जाता रहा है रागजिनका विइच्छा। परमाणु = पदगलका सबसे छोटा हिस्सा (जरी)।आप निर्मापित-धनायागया। त्रि-तीन ।भुवन जगत् । एक अकेला। ललामभूत भूषणरूप । तावन्त: उतने एव हो । खलु -निश्चयसे । तेस्थे। अपि =भी। अणका (परमाण)। पृथिवीजमीन । यत् = जिससे। ते तुम्हारे । समान -तुल्य ! अपर-दूसरा नहीं-नहीं। रूपं-रूप । अस्ति है।
___ अन्वयार्थ हे भगवन् तीन भुवनों के भूषण रूप तुम, शांत होगये हैं राग (मोह) अथवा (रंग) और रुचि -स्वाहिश जिनके ऐसे जिनपरमाणुवों से भाप बनाए गए हो वह परमाणु उतने ही थे जिससे कि तुम्हारे समान दूसरा रूप पृथ्वी में नहीं है ॥
भावार्थ- हे भगवन आप तीनलोक के भूषण हो जिन शांतराग इच्छा रहित “परमाणुवों से आपका शरीर बना है वह जगत् में उतने हो थे यही कारण है कि आप जैसा रूप और किसी दूसरे का नही है।
तुम प्रभु वीतराग गुण लीन । जिन परमाणु देह तुम कीन॥
हैं जितने ही ते परमान। - यातें तुम सम रूप न आन ॥१२॥
१२-परमाणु - सबसे छोटा जर्रा मान-भौर, दूसरा।
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भक्तामर स्तोत्र |
वक्चं क्व ते सुरनरोरगनेचहारि, निशेषनिर्जितनगचितयोपमानम् ।
बिम्बं कलंकमलिनंक्व निशाकरस्य, भवतिपांडपलाशकल्पम् ॥ १३ ॥
यद्दासरे
चक्रं - मुख । क्व कहां । ते तुम्हारा । सुर - देवता। नर = मनुष्य । उरग - सांप | नेत्र = भांख | हारि मनोहर । निःशेष - सकल । निर्जित = जीत लिया। जगत्रितयतीन लोक । उपमान = उपमा । बिंघ = प्रतिबिम्ब । कलंक मलिन = कलंक से मैला । क्व - कहां । निशाकर = चांद | यत् = जो। वासर - दिन | भवति होता है। पांडु - पोला
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पलाश - पचा। कल्प = समान ॥
अन्वयार्थ - हे भगवन् देवता, मनुष्य और सर्पों के नेत्रो को हरणे बाला, भौर जीत लीनी है तीन जगत की उपमायें जिस ने ऐसा आपका मुख कहां और वह कलंक से मैला चांद का प्रतिबिंब कहां जोकि दिन में पीले पत्ते के समान होजाता है ।
भावार्थ- हे भगवन् आपके रूप की सुन्दरता ने जितने देव मनुष्य और सर्पादि तिर्य हैं सर्व के नेत्र और मन हर लिये हैं हम कचि लोग सब से बढ़ कर चांद की उपमा मच्छी मानने हैं परंतु यदि हम उस की उपमा भी आपके मुख को देवें तो पूर्णमाशि का पूरा चांद भी कलंकित भालता है और दिन में पीले पत्ते की तरह चमक रहित होजाता है आपका सुख निकलंक सदा दैदीप्यमान हैं सां चांद को भी जीतने वाला है पल तीन लोक में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिस की उपमा आपके मुख को देसक इसलिये आपका मुख अनुपम है ।
नोट- पलाशशब्द का अर्थ ढाकाभी है पत्र भी है सो पांडुपलाश का अर्थ पीतपत्र होना चाहिये सोई हमने ठोक कर दिया है।
कहां तुममुख अनुपम अधिकार ।
सुर नर नाग नयन मनहार ॥ कहां चन्द्र मण्डल सकळंक । दिन में पीत पत्र सम रंक ॥ १३ ॥
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भक्तामर स्तोत्र ।
संपूर्ण मंडलशशांककलाकलाप, शुभ्रागुणास्त्रिभुवनंतवलं घयन्ति । ये संश्रितास्त्रजगदीश्वर नाथमेकं, कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ||१४||
मण्डल प्रतिविस्य । शशांक =जांद | फ्ला = सोलदमा
संपूर्ण = पूरा - हिस्सा कलाप समूह | शुभ्रा - सफेद । गुण गुण । त्रिभुवन = त्रिलोकी । तव - ...तुम्हारे ! संघयन्ति = उल्लंघ जाते है । ये = ले । संधिनाः = आश्रयसे हैं । त्रिजगदीश्वर: तीनटोकके नाथ । नाथ स्वामी । एक- एक को = कोन | तान = उनको । निवारयति = निवारता, है, (हटाता है) । संवरतः = विचार रहे। यथेष्टं अपनी इच्छा से |
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- अन्वयार्थ -हे भगवन् ! सम्पूर्ण मण्डल वाले यान्द की किरणों के समूह के समान सफेद आपके गुण त्रिलोकी को उल्लंध जाते हैं। जो गुण तीन जगत् के एक स्वामी को आश्रय करते हैं इच्छा से विवरते हुए उनको कौन निवारण कर सकता है ॥
भावार्थ हे तीन लोक के नाथ तोन लोक में जितने गुण हैं सर्व ने अपनी इच्छा से विचरते हुए आपका आश्रय लिया है अर्थात् यह सर्व आपमें भातिष्ठे हैं सो आप के गुण पूर्ण चन्द्रमा के मंडल की किरणों के समूह के समान उज्जल तीन लोक को भी उघ कर सर्व लोकाकाश में व्याप्त हो रहे हैं उनको कोई भी हटा नहीं सकता अर्थात् चन्द्रमा की उज्जलता और गुण तो लिरफ इस हो लोक में फैलते हूं और दिन मैं सूर्य की किरणों से प्रकाशमान नहीं रहते और आपके गुण तीन लोक को भी उल्लंघन कर सर्वत्र व्याप्त रहे हैं जिन को कोई भी हटा नहीं सका ||
पूर्ण चन्द्र ज्योति छविवन्त । तुम गुण तीन जगत् लंघंत ॥ एक नाथ त्रिभुवन आधार । तिन विचरत को सकै निवार ॥१४
१४ - छवि - शोभा । टयंत = पारजाना । नाथ स्वामी आधार = त्राश्रय, निवार हटाना ||
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भक्तामर स्तोत्र। १७ चिकिमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि, ' !तं मनागपिमनी न विकारमार्गम्। कल्पांतकालमरुता चलिताचलेन, कि मंदरादिशिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥
चित्र आश्चर्य। किंक्या । अत्र = यहां। यदि जेकर । ते तुम्हारा। त्रिदश-देवता अंगना ली। नीतलिजाया गया। मसाक्-थोड़ासा । अपिभी। मन:-दिल । न-नही । विकारमार्ग-विकार का रास्ता। कल्पान्तकाल - प्रलयकाल । मरुत-पवन(हवा) । चलता चल-हिला दिये हैं पहाड़ जिसने । किक्या। मन्दरादि मन्दिराचल पहाड़ (मेरू) । शिखर चोटी। चलितं हिलता है। कदाचित् = कमी भी॥
___ अन्वयार्थ--हे प्रभो यदि (अगर) अप्सराओं से आपका मन थोड़े से विकारमार्ग (काम विकार) पर नहीं लाया गया तो इस में आश्चर्य ही क्या है । । ___-हिलादिये हैं पहाड़ जिसने ऐसे प्रलय काल की वायु करके क्या कभी मन्दिरांचल (मेरु) पहाड़ की चोटी हिल जाती है (कभी नहीं) ॥
भावार्थ-हे स्वामिन जैसे प्रलय की वायु सभी पहाड़ों को हिलाती है परन्तु में को नहीं हिला सकतीतैसे ही इन्द्रादिकों के भी मन को विकार उपजाने वाली अप्सरा यदि भाप के मनको नहीं हिला सकी तो इस में कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि भाप का मन निष्कम्प है उसे कोई भी कम्पायमान नहीं कर सत्ता ॥
जो सरतिय विभ्रम आरम्भ। मन न डिगो तुम सो न अचंभ। अचल चलावे प्रलय समीर। '
मेरु शिखर डिगमगे न धीर ॥१५ १५-सुरतिय =देवांगना । विभ्रम - विलास (क्रीडा) अचंभ आश्चय्य । भचल- पहाड़। समीरपायु ॥
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भक्तामर स्तोत्र |
निर्धूमवर्तिर पर्जिततैलपूरः, अत्स्नं जगचयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोsपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ १६
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निर्धूम - धूर्वे से रहित । वत्ति - (वची) अपवर्जित -रहित । तैलपूर तेल का प्रवाह । कृत्स्नं सकल (तमाम ) । जगत्रय - त्रिलोकी । इदं - यह । प्रकटीकरोषि प्रकाश करते हो । गम्यः = प्राप्त । न- नहीं। जातु कभी भी मरुतू हवा | चलताचलानां - हिलादिये हैं पहाड़ जिन्होंने, दीप- दीवा । अपर = दूसरा । त्वं तुम ! असि = हो । नाथ = स्वामिन् । जगत् प्रकाशः जगत् को प्रकाश ने वाला ।
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• अन्वयार्थ --हे भगवन् धूवां वत्ती तेल इनसे रहित सकल इस त्रिलोकी को प्रकाश (प्रकट करता हुवा पर्वतों के हिलाने वाली भी वायु से कभी न हिलने वाला: जगत् का प्रकाशक तू एक दूसरा दीवा है ॥
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भावार्थ- हे प्रभो ! दीपक अल्प देशका प्रकाशक और आप त्रिलोकी के प्रकाशक दीपक धूां तेल और वासी वाला अर्थात् तेलक्सी के आश्रय है और धूर्वा साहित है और हवादिक से हिलचल या आभाव को प्राप्त हो जाता है और भाप इन से रहित सदा वैदीप्यमान रहने वाले विलक्षण दीपक हैं |
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धूम रहित बाती गति नह । परकाशक त्रिभुवन घर येह ॥
बात गम्य नाहीं परचण्ड ।
अपर दीप तुम बले अखण्ड ॥ १६ ॥
१६- घूम = धूर्वा । वाती बप्ती । गति - हिलना । नेह नहीं । वात हवा | गम पहुंचना । मपर दूसरा दीप दीवा ॥
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भक्तामर स्तोत्र। १९ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसायुगपज्जगन्ति । नांभोधरी दरनिरुद्धमहाप्रभावः, सूर्याति शायिमहिमासि मुनींद्रलोके ॥१७॥
न नहीं । मस्त -बजाना । कदाचित -कभी भी। उपयासि जाता है। न नहीं । राहुगम्यः = राहु करके पास किया गया। स्पष्टी करोपि-जाहिर करता है। सहसा-शीघ्र ही । युगपत् एकदम । जगन्ति-तीन लोक । न= नहीं। अम्मोधर-बादल । उदर-पेट (मध्य) । निरुद्ध = रुका । महा-बड़ा प्रभाव प्रताप । सूर्य = रवि । अति शायि-जियादा । महिमा -महात्म्य ।असि-हैं। मुनीन्द्र -मुनीश्वर । लोके-संसार में ॥
अन्वयार्थ-हे प्रभो !तून कभी अस्त होता है न राष्ट्र से ग्रास किया जाता है और शीघ्र तीनलोकों को एक दम प्रकाश करता है तथा नहीं रुका बादलों के बीच बड़ा प्रभाव जिसका लो ऐसा तू संसार में सूरज ले अतिशय महिमा युक्त है।
भावार्थ-हे भगवन् यदि आपको मैं सूर्य की उपमा दूं तो सूर्य संध्याकाल अस्त होजाय है अमावस के दिन ग्रहण में राष्ट्र से प्रसा भी जाय और जगत् को क्रम
से प्रकाशे है तथा बादलों के बीच भी आजाय सो आप में यह दोष कोई भी नहीं है - भाप सर्व दोषरहित निर्विघ्न निरंतर सदा काल तीन लोक को प्रकाशे हैं इसलिये आप निरुपम कहिये उपमा रहित महान् तेजस्वी सूर्य है ॥
छिप हो न लिपो राह की छाहि। जग प्रकाशक हो छिन माहि ॥ धन अनवत्तं दाह विनिवार । रवितें अधिक धरो गुणसार ॥ १७ ॥
...१७-लिपो-ढका जाना । धन अनवर्त बादल से न ढका जाना। दाह मगरमी । विनिचार-इटामा । रवि-सूर्य ।
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भक्तामर स्तोत्र। नित्योदयंदलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहुबदनस्थ नं वारिदानाम् । विभाजते तव मुखान्जमनल्पकान्ति, विद्योत यज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥
नित्योदय - सर्वकाल में ऊगा । दलित-दला गया । मोह-महान । महान्धकार बड़ा भारी अन्धेरा । गम्य प्राप्त होने योग्य । न - नहीं। राहुवदन - राहु का मुख । न-नही । वारिदम्वादल । विभ्राजते । शोभता है । तव तुम्हारा। मुखाजम्मुखरूपकमल । अनल्प -बहुत कांनि शोमा। विद्योत -प्रकाश । जगत् विश्व । भपूर्व = नया । शशांकबिम्ब- चन्द्रमण्डल |
अन्धयार्थ-हे प्रभो! सदा उगा हुआ नाश कर दिया है मोहरूप महान् अन्धकार जिसने राहु के मुख में न माने वाला, न बादलों से ढका जाने वाला तथा बड़ी शोभा वाला आपका मुख रूप कमल जगत को प्रकाशता हुमा एक नया चन्द्र मण्डल है ॥
भावार्थ-चांद कृष्ण पक्ष में क्षीण होय तथा शुक्ल में बड़े और पूर्णमासी को राहु से प्रसा जाय । और आपके मुख में यह कोई भी दोष नही सो आपका मुख एक विलक्षण चन्द्रमा है । अर्थात् किसी काल में भी नहीं मंद होय है ज्योति जिल की ऐसे माप जगत् को प्रकाश करने वाले एक अद्भुत जाति के चन्द्रमा है ॥
सदा उदित विदलित तम मोह। विघटतमेघ राहु अविरोह ॥ तुम मुख कलम अपूर्व चन्द। जगत विकाशी ज्योति अमन्द ॥१८॥ ।
। १८-तम अंधेरा। मोह = अज्ञान । विघटित अलग । भविरोह-ढका जाना अपर्ध चन्द्र-मया चान्द । विकाशी-प्रकाशने पाला । भमंद-म'
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भक्तामर स्तोत्र |
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्निविवस्वतावा, युष्मन्मुखेद दलितेषुतमस्सुनाथ । निष्पन्नशालिबनशालिनि जीवलोके, कार्य कियन्जलधरैर्नलभारनामे: ॥१६ ॥
किं - क्या | शर्वरी = रात । शशिना = चांद से । भह्नि = दिन में । विवृस्वाम = सूर्य । वा = अथवा | युष्मद् - आपके । मुखेन्दु - मुखरूप चांद | दलित = दले गये तमः अन्धेरा | नाथ = स्वामिन् । निष्पन्न = पैदा हुए। शालिबन = चावलों के खेत शाली - शोभने वाले । जीव लोक- मनुष्यलोक । कार्य काम । कियतू कितनी जलघर = मेघ । जलभार = पानी का भार । नम्र नीचे हुवे ।
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अन्वयार्थ - हे स्वामिन्! आपके मुखरूप चांद से अन्धेरे के नष्ट होजाने पर रात में चांद से और दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन है जब जगत् पके हुए धानों के समूहसे शोभता है तब जलभार से नीचें हो रहे जो मेघ हैं उनसे क्या फायदा है ॥
भावार्थ - हे भगवन् जैसे चावलों के खेत पक जाने पर सजल मेघ का झुक कर आना अकारथ है वैसे ही जब रात के अन्धेरे को चांद दूर करता है और दिन में सूर्य अन्धेरे को दूर करता है सो यदि दोनों चर्चा के अंधेरे को तुम्हारे मुखरूपी चंद्रमा ने दूर करदिया तो तब इन की क्या जरूरत है ॥
निश दिन शशि रवि को नहि काम |
तुम मुख चन्द हरे तम धाम ॥
जो स्वभाव से उपजे नाज ! सजल मेघ तो कौन है कार्ज ॥ १९ ॥
१९-तम-अन्धेरा । सजल मेघ - पानी बाला बादल
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२२ भक्तामर स्तोत्र। ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कतावकाश, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु। तेनः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं, नैवं तुकाचशकले किरणा कुलेऽपि ॥२०॥
शानं शान । तथा जैसे । त्वयि आप में । विमाति-शोभता है। कृत किया गया। अवकाश जगह । न नहीं । एवं ऐसे। तथा तैले । हरि-विष्णुहर-शिव । नायक मालिक । तेजा-तेज । स्फुरन् =चमकीली। मणिरत्न । याति पाता है । यथा- जैसे। महत्त्व घडाई । न-नहीं। एवं =ऐसे । कावकच्च शकल-टुकड़ा। किरण- किरण । आकुल-ध्यास अपि-भी॥
अन्वयार्थ हे जिनेन्द्र कृतावकाश शान जैसे पाप में प्रकाशता है वैसे हरि हरादिक देवों में नहीं जैसे प्रकाशमान मणियों में तेज महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त काच के खण्ड में नहीं प्राप्त होता ।
भावार्थ-हे भगवन् जैसे जितनी चमक रत्नों में होती है उतनी कंच के टुकड़ों में नहीं होतो वैसे ही जैसा अखण्डित शान आप में दैदीप्यमान है वैसा हरि हरादिक देवों में नहीं है।
जो सुबोध सोहे तुम माहिं। हरिहरादिक में सो नाहि ॥ जो युति महारस्न में होय। काच खंड पावे नहिं लोय ॥२०॥
२०-सुबोधः सुशान।
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भक्तामर स्तोत्र ।
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुनि येन नान्यः, कश्चिन्मनोहरति नाथ भवांतरेपि ॥ २१ ॥
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मन्ये मानता हूं | घरं - बहुत अच्छा | हरिहरादयः = हरिहरादिक । पत्र - ही । दृष्टा = देखे गए । दृष्टेषु = देखे हुए । येषु - जिनके । त्वयि = तेरे में। तोष' खुशी । एति = प्राप्त होती है। किं = क्या । वीक्षितेन देखे हुवे करके । भवता - आप करके । भुवि = पृथ्वी में । येन = जिस से । न नहीं । अन्यः = दूसरा | कश्चित् = कोई | मन = दिल | हरति = चुराता है । नाथ = स्वामिन् । भवान्तर दूसरा जन्म। अपि भी ॥
अन्वयार्थ - हे प्रभो ! बहुत अच्छा हुआ कि हरिहरादिक, मेरे कर देखे गये जिनके देखे जाने पर दिल आप विषे संतोष को प्राप्त हुआ भूमि पर आपके देखने से दूसरा कोई जन्मान्तर में भी मन को हरण नहीं कर सकता ॥
भाषार्थ - हे भगवन् ! मेरे वास्ते यह बड़ी खुशी की बात है कि मैंने हरिहरादिक दूसरे देव भी देख लिये क्योंकि उनके देखने से आपको वीतराग रूप पहिचान मेरा दिल आप विषे ही संतोष को प्राप्त हुआ अब किसी जन्मान्तर में भी मेरे मन को दूसरा कोई हरण नहीं कर सकता ॥
नाराच छन्द ।
• सरागदेव देख मैं भला विशेष मानिया । स्वरूप जाहि देख वीतराग त पंछानिया । कछू न तोहि देख के जहां तुही विशेषिया । मनोज्ञ चित्त चोर और भूल हू न पेखिया ॥ २१ ॥
२१- सराग राग सहित । विशेषिया जियादा । पेखिया देखा ।
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भक्तामर स्तोत्र ।
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स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् |२२|
स्त्री = औरत | शत= सौ (१००) । शतशः = सैंकड़ों । जनयन्ति = पैदा करती हैं। पुत्रान् = बच्चों को। न नहीं । अन्या = दूसरी । सुत = पुत्र । त्वदुपम= तेरे समान । जननी -माता । प्रसूता पैदा करती । सर्वा = लभी । दिशा = दिशा ।
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धति = धारण करती हैं। भानि - तारावों को । सहस्त्ररश्मि = सूर्य । प्राची -= पूर्व दिशा । एव = ही । दिक् = दिशा । जनयति = पैदा करती है । स्फरतु प्रकाशमान अंशु = किरणें | जाल = समूह |
अन्वयार्थ – हे भगवन् सैंकड़ों स्त्रिये सैंकड़ों पुत्रों को जनती हैं परन्तु दूसरी माता ने तुम्हारे समान पत्र पैदा नहीं किया। सभी दिशायें तारों को धारण करती हैं । लेकिन प्रकाशमान होरही है किरणें जिसकी ऐसे सूर्य को तो पूर्वदिशा ही पैदा करती है ॥
भावार्थ- हे भगवन् जैसे तारों को तो हरएक दिशा धारण करती हैं परन्तु सूर्य्यं को तो पूर्व दिशा ही उदय करती है इसी प्रकार अनेक माता अनेक पुत्र जन्मती हैं परन्तु तुम्हारे समान पुत्र सिवाय आपकी माता के किसी दूसरी माता के उत्पन्न नहीं होता ||
अनेक पुत्रवन्तनी नितम्वनी सुपूत हैं। न तो समान पुत्र और मात ते प्रसूत हैं ॥ दिशा धरन्ततारका अनेक कोटिको गिने । दिनेश तेजवन्त एक पूर्वही दिशा जने ॥२२॥
२२ – नितंबनी = स्त्री । प्रसूत - पैदा करना । धरंत - धरती है। तारका सारे । हिमेशा सर्य
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भक्तामर स्तोत्र।
२५ त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांस, मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात्।। त्वामेव सम्मगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पंथा॥२३॥
स्वां तुझे। आमनन्ति = मानते हैं। मुनि - मुनि। परम-प्रकृष्ट शक्ति वाले । पुमान् = पुरुष। आदित्य -सूर्य । वर्ण =रंम। अमल शुद्ध । तमलाअन्धेरै से । पुरस्तात =आगे । त्वां तुझे । एवंही । सम्यक् = अच्छी भांति उपलभ्यम्मालूम करके । जयन्ति जीतते हैं । मृत्यु मौन। न-नहीं । अन्यादूसरा। शिव कल्याण रूप । शिवपद -मुक्ति । मुनीन्द्र = मुनीश्वर । पंथारास्ता ।
अन्वयार्य-हे मुनीन्द्र मुनि तुझे परम पुरुष अन्धेरे के आगे सूर्य के तुल्य 'प्रभाव पाले शुद्ध मानते हैं और मनुष्य आपकी भली प्रकार जानकर मृत्यु को जीतते हैं और मुक्ति जाने के लिये और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
भावार्थ-हे सुनीन्द्र मुनिजन आप को महान् पुरुष कर्म रूपी अंधेरे के 'मांगे सूर्य समान शुद्ध वरण मानते हैं और आपकी मले प्रकार जान कर मृत्यु को जीतते हैं अर्थात् सिद्ध पद को प्राप्त होते हैं क्योंकि सिवाय मापक मुक्ति जाने का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है ॥ २३ ॥
' पुराण हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान् हो । ..कहें मुनीश अन्धकार नाश को सुभान हो ।
महन्त तोहि जान के न होय वश काल के । ॥ १ न और मोक्ष मोक्ष पन्थ देव तोहि टालके ॥२३॥
२३--पुराण -पुराणा । पुमान -पुरुष। भामु बसूर्य ।।
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भक्तामर स्तोत्र |
त्वामव्ययं विभुवचिंत्यमसंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वर सनंत अनंग केतुम् ।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपमनलं प्रवदंति संतः |२४|
त्वां - तुझे । अव्यय - अविनाशी | विभु = व्यापक । अचिन्त्य - जिस का चितन न हो । असंख्य = अनगिन । आय = आदिका । ब्रह्मन् ब्रह्मा जी । ईश्वर परमेश्वर । अनन्त - जिस का अन्त नहीं । अनङ्गकेतु - महादेव | योगीश्वर योगि. राज । बिदितयोग : 1- जाना है योग जिसने । अनेक-अनेक रूप। एक = अद्वितीय । ज्ञानस्वरूप = ज्ञान (बोधरूप) | अमल - शुद्ध । प्रवदन्ति कहते हैं । संतः सन्त ( सज्जन ) ॥
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अन्वयार्थ - हे प्रभो संत जन तुझे अविनाशी व्यापक, अवित्य असंख्य आद्य ब्रह्मा ईश्वर अनन्त विष्णु काम शत्रु (शिव) योगीश्वर योग के जानने वाले अनेक एक ज्ञान रूप अमल (शुद्ध) कहते हैं |
भावार्थ- हे प्रभो संतजन तुझे अविनाशी सर्व व्यापक अचित्य भसंख्य आद्य (पहिला) ब्रह्मा ईश्वर 'अनंत अनंगकेतु शिव योगीश्वर विदितयोग अनेक शान स्वरूप शुद्ध कहते हैं |
अनन्त नित्य चित्तकी अगम्यरस्य आदि हो । असंख्य सर्वव्याप ब्रह्मविष्णु हो अनादि हो ॥
महेश काम केतु योग ईशा योग ज्ञान हो । अनेक एक ज्ञान रूप शुद्ध सन्त मान हो ॥२४॥
२४ - रम्य = मनोहर ॥
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...... " भक्तामर स्तोत्रा २७
बुद्ध स्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धिबोधात्, : त्वं शंकरोसि भवनत्रयशंकरत्वात् । : धातासि धीरशिवमार्गविधेविधानात, व्यक्त त्वमेवाभगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥२॥
बुद्धबुद(जानी) । त्वं त्। एत्र हो । विवुध-देवता अर्चित - पूर्जित। : बुद्धि बोध-शुद्धि का बोध (प्रकाश)। श्वं तु । शंकर शिव । असिन् । भुवन . प्रया तीनलोक। शंकर मंगलका !-धाता, ब्रह्मा । धीर धीरजवाला शिवमार्ग " मुक्ति का रास्ता ।-विधि-तरीका। विधान:-बनाना यक्त = साफ । त्वमेव हो भगवन् पेश्वर्य बाली । पुरुष मनुष्य । श्रेष्ठ। पुरुषोत्तम-विष्णु भलिबल • गन्धयार्थ-हे देवतावों से पूजित बुद्धि को बोध करने से तुही इन तीन.. . भुधनों को कल्याण करणे से न शकर हैं। हे धीर मोक्षमार्ग की विधि (तरीके) के विधान से तू (ब्रह्मा) हैं। हे भगवन् तूही स्पष्ट पुरुषोत्तम है।
भावार्थ:-हे धीर देवताओं कर पूजित तू-बुद्धि का योधन करने से बुद्ध है। तीन लोक के मंगल करता होने से तुही शंकर है और मोक्षमार्ग की विधिका करने - पाला होने से तुही विधाता है.। और तुही पुरुषोत्तम कहिये.नरों में उत्तम (श्रेष्ठ है ।।
तुही जिनेश बुद्ध हो सुबुद्धि के प्रमान से ।.... तुही जिनेश शंकरो जगयीविधान से॥ तुही विधात है सही सुमोक्षपन्थधार से। नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार से ॥ २५॥..........
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२८ भक्तामर स्तोत्र। तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहरायनाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमी जिनभवोदधिशोषणाय ।२६ ।
तुभ्यं माप के ताई नमः = नमस्कार हो। त्रिभुवन त्रिलोकी । माति. पीडा । हर-हरणेवाले ! नाथ स्वामिन् । तुभ्यं -तुसे। नमः -प्रणाम हो। क्षिति. वल-पृथ्वी वल (भूतल)। अमल-शुद्ध । भूषण जेवर । तुभ्यं मापके ताई। नमः-प्रणाम भिजगत् = त्रिलोकी । परमेश्वर स्वामी । तुभ्यं = मापको । नमःनमन हो। जिन-जिन । भवोदधि-संसारकर समुद्र शोषण-सुकाने वाले
'मन्वयार्थ-हे जिन तीन भवनों के दुःख दूर करने वाले आप को नमस्कार हो। पृथ्वी में शुद्ध भूषण कप माप को नमस्कार हो। हे तीन जगत के परमेश्वर भाप को नमस्कार हो । हे संसार समुद्र के सुकाने वाले आप के ताई नमस्कारहो।
भावार्थ-इस श्लोक में श्रीमानतुंग भाचार्य ने भगवान के मिन्न भिन्न गुण +परणन कर वारंवार नमस्कार करी है।
नमों करूं जिनेश तोहि आपदा निवार हो। नमों करूं सुभूरि भूमि लोक के सिङ्गार हो । नमों करूं भवाब्धि नीर रास शोष हेत हो। नमों करू महेश तोहि मोक्ष पन्थ देत हो ॥२६॥
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२१-आपदा-दुःख भुरि बहुत भवाग्धि संसार समुद्रमार राख -पानी कासमूह । मदेश-शिव ।
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भक्तामर स्तोत्र |
को विस्मयोऽच यदि नाम गुणैरशेषे, स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश | दोषेरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद पीचितोऽसि २७
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क:-कौन । विस्मय - भाश्वर्य । अत्र यहां । यदि -भगर । नाम प्रसिद्ध गुणैगुणौकर । भशेष - सकल | वंतू । संश्रितः भाश्रयक्रिया । निरवकाशतया • किसी जगह के न मिलने से मुनीश मुनीन्द्र । दोष - दोष । उपान्त - पाया। विविध अनेक प्रकार के । आश्रय - भसरा । जात
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हुवा। गर्व = अहंकार। स्वप्नांतर सुपमे में। अपि भी। न=नहीं । कदाचिदपि = कभी भी । ईक्षितः देखा गया। मति है ॥ २७ ॥
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अन्वयार्थ हे सुनीश यदि समस्त गुण ने निरवकाश होने से तू आभव किया है तो इस में क्या भाइवर्य है। मिल गए हैं अनेक आश्रय जिन को इस लिये उत्पन्न हुया है महंकार जिनहें ऐसे दोषों से स्वप्न में भी कभी नहीं देखा गया ।
२७- अहंकार | परहर = त्यागना ।
भावार्थ - हे भगवन् जब समस्त गुणों को कोई और जगह नहीं मिली तब
। उन्होंने आपका आश्रय लियाहँ सो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है पानी तो भीवाण की तरफ हो जावेगा सो गुण तो गुणी के भाश्रय ही ठहरेंगे और चंकि दोषों को हर अगह आसरा मिल गया है इस लिये उन्होंने कभी स्वप्न में भी भापको नहीं देखा अर्थात् आप में सर्व गुण ही गुण हैं, दोष कोई भी नहीं है ॥
॥ १५ मात्रा चौपाई ॥
तुम जिनवर पूरण गुण भरे । दोष गर्व कर तुम पर हरे ॥ -
और देवगण आश्रय पाय ।
सुपन न-- देखे तुम फिर आय ॥ २७ ॥ - -
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C
भक्तामर स्तोत्र ।
उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख, माभाति रूपममलं भवतो नितांतम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमोवितानं,
३०
★ विम्वं खेरिव पयोधरपार्श्ववर्ति । २८|
2
उ:-ऊँचा । अशोकनरु = अशोकवृक्ष | संचित = आश्रयक्रिया | उन्मयूख = ऊंची 'किरणों वाला | आभाति शोभता है । रूप रंग | अमल - शुद्ध । भवतः - आपका |
-
T
-
नितांत = बहुत | स्पष्ट = साफ । उल्लसत् = चमक रही। किरण = किरणें । भस्त - नाशकिया । तमोवितान = अन्धेरा रूप चन्दोवा | विश्व = प्रतिविम्ब । रवेः सूर्य का श्व - जैसे । पयोधर - मेघ । पार्श्ववर्ती: = पास होने वाला ॥
मन्वयार्थ - हे स्वामिन् जैसे स्पष्ट प्रकाशमान किरणों वाला अन्धकार के समूह
को दूर करने वाला और बादल के पास होने वाला सूर्य का प्रतिबिंब (मण्डल) हो वैसे
1
ऊंचे अशोक तरुके पास, ऊंची किरणो वला शुद्ध आपका रूप । निरन्तर शोमता है ॥
भावार्थ- बादल भी नीला होय है और अशोक वृक्ष भी नीला होता है। सो जैसे बादलों के पास ऊंचा सूर्य शोभता है वैसे ही हे भगवन् आप भी उन्गभशोक वृक्ष के पास शोभते हो ॥
तरु अशोक तल किरण उदार ।
"
तुम जन शोभित है अविकार ॥ मेघ निकट ज्यूं तेज फुरन्त । दिन कर दिये तिमिर निहन्त ॥ २८ ॥
२८ - तलमींचे। दिनकर - सूर्य । निहंत माझ ॥
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भक्तामर स्तोत्र
:
सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्र र विभाजते तव वपुः कनकावदातम् . बिम्ब वियहिलसदंशुलतावितान, तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहस्रप्रम।
"', 'सिंहासन चौकी मणिमयूख मणिमोकी किरणे शिखा-ज्वाला।विचित्र
कई रंगका। विभ्राजते -शोभता है। तव तुम्हारा । वपु शरीर कौनक सोना - भवदात्त शुद्ध । बिच प्रतिबिंध । वियत् = आकाश । विलसत् = शोभमान। अंशु
लता-किरण रूपोलता वितान-विस्तार । तुंग-ऊंचा। उदयाद्रिदयाचल। शिर:-चोटी । वजैसे सहस्ररश्मिा- सूर्य ॥ । 'F. 123 " भन्वयार्थ-ऊंची उदयाचल पहाड़ की चोटी पर आकाश में चमक रहा है किरण रूप लतावों का समूह 'जिसका पैसा सूर्य का मण्डल जैसे धीमे है वैसे मणियों "की किरणों के तेज (ज्वाला) से मनेक धर्ण के सिंहासन पर सोने के समान शुख तेरा शरीर शोमता है। " मावार्थ-हे भगवन जैसे उदयाचल पर्वत पर सूर्य शोभता है वसे ही भनेक प्रकार के रत्नाकर जड़ितसिंहासन पर आपका स्वर्ण समान पीतवर्ण शरीर शोभता हैमर्थात् यहां आचार्य ने स्वर्ण के सिंहासन पर तिष्टते हुए भगवान की उर्दयाबाट की चोटी पर आरूद सूर्य की उपमा दी है ।।
सिंहासनः मणि किरण विचित्र । तिस पर, कंचन वरणा पवित्र ॥
तुम तन शोभित किरण विधार। ..ज्यों उदयाचल रवि तम हार ॥२९॥
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भक्तामर स्तोत्र । कुन्दावदातचलचामरचार शोभः ।। विधाजते तव वपुः कलधौतकांतम् ।। उद्यच्छणांकशुचिनिभरवारिधार,:मुच्चैस्तटंसुरगिरेरिवशातकोभम्, ३०॥
. कुछकुन्दलफूल। अवदात सफेद । चल-चंचल । बामर पर चान्द -मनोहर । शोम-शोभा। विभाजते -शोनता है। तुम्हारा । पपु-शरीर कलधौत-सौना । कति सुन्दर । उद्यत् - जगा हुआ । शशांक-बांद. शुचि-शुद्ध निरभरणा । पारि-पानी। धार = धारा । ऊच्चे-ऊंचा। तट-किनारा। सुरगिर-सुमेक। इव-जैसे । शातकौम्म सोने का . ' :
, मन्ववार्थ-हे भगवन् उदय हो रहे चांद के समान शुद्ध निर्धार (मरणों) की जळधारों वाला सोने के ऊंचे सुमेरु के तट (किनारे) की तरह कन्द के फूल के तुल्य बफैछ हिलते घरों से मनोहर शोमानाला सोने के समान सुन्दर मापका शरीर मत्यन्त शोमित हो रहा है।
भावार्थ-हे भगवन जैसे सफेद जलके झरणों कर सहित स्वर्ण मय सुमेह पर्वत शोने है ऐसे ही कुन्द के पुष्पों के समान सुफ़ेद चंवरौ के दुलन सहित भाप का पीतवर्ण शरीर शोभे हैं ।
कुन्द पहुप सित चमर डुलत। कनक वरणं तुम तन शोभत॥ ज्यो सुमेरु तट निर्मलं कांति ॥ झरणा झरें नीर उमगांति ॥ ३०॥
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भकामर स्तोत्र। ३३ . छत्रत्रयं तव विभाति शशांक कांत, । मुच्चैः स्थितं स्थगितभानु करप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवद्धशोभं। . प्रख्यापयल्धिजगतः परमेश्वरत्वम् ।३१। .'
नवयं-तीनछत्र । तब = तुम्हारे । विभाति = शोमते हैं । शशांक-चांद। कांत-सुन्दर । उच्च उचा। स्थित मौजुद । स्थगित हकदेना। भानु-सूर्य ।। । करकिरणे । प्रनाप-प्रकाश । मुक्ताफल मोती। प्रकर- समूह । विशुम वढी-1-25 शोभ-शोमारा प्रयापयत् कहना हुमा।विजगतः -त्रिलोकी का परमेश्वरत्वपरमेश्वरपणा।
मन्वयार्थ -हे प्रभो चांद के तुल्य कांतिवाले होने से मनोहर वे स्थित डकदिया है सूर्य की किरणों का तेज जिन्हों ने और मोतियों की लड़ियों के समूह ने बढी है शोमाजिनकी तथा तीनलोको की परमेश्वरता ( स्वामिता) को प्रकट करते हुए मापके तीन उन शोमते हैं।
भावार्थ-एक लोक का जो स्वामी होता है उसके सिर पर एक छत्र शोमता है। भौर भगवान के सिर पर तीन छत्र होते हैं सो भाचार्य ने यहां यह प्रकट किया है कि यह मोतियों की लड़ियों से जड़े हुए तीन छत्र भगवान के सिरपर दुलते हुए यह बतळा रहे हैं कि यह तीन लोक के स्वामी हैं।
ऊंचे रह सूर दुति लोप । तीन छन तुम दीपै अगोप॥ तीन लोक की प्रभुता कहें। मोती झालर सो छविलहें ॥३१॥
१५-पूर-सर्व इति (पति) शोभा भगोप-प्रकर ।
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भक्तामर स्तोत्र। गंभीरतारवपूरितदिग्विभाग, स्त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः। सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः सन्खें, .. .. . दुन्दुभिध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥
गम्भीर गहुरा । तार-ऊंचा । रव-शब्द । रित पूर्ण करना। ठिविभाग दिशायें । त्रैलोक्य = त्रिलोकी । लोक = जन । शुम भला । संगम = प्राप्ति' .. भूति विभूति दक्षः चतुर । सत् = श्रेष्वा धर्मराज = धर्म का राज । जयघोषण :-जयकारशब्द । घोषकः = बजाने वाला । सन् =है। सभाकाश | दुन्दुमिन बाजाअवनति = बजता है। ते तुम्हारे । यश-कीर्ति। प्रयादी कहने वाला।
अन्वयार्थ गाम्भीर और ऊँचे शब्द से पूर (पूर्ण दिये हैं दिशामों के विभाग : जिसने और त्रिलोकी के रहने वाले जीवों को शुम ऐश्वर्य देने में चतुर तथा उत्तम धर्म का जो राज्य उसके जयकार शब्द का उच्चारण करने वाला जो आकाश में " दुंदुभी (पीजा) बजता है वह आपके यशका कथन करणे वाला है। ...। ..भावार्थ-जिनेन्द्र के जी अष्ट प्रतिहार्य में भाकाश में घाजा बजता है तो आचार्य कहते हैं कि सो बाजा मानो दश दिशों को व्याप्त होकर यह बताता है कि है.. जीवो अब तुम को इस संसार के दुखों को दूर करने वाली सुख संपविभूति मिलेगी और मोक्ष मार्ग के चलाने के लिये धर्म का राज प्रवगा
दुन्दुभि शब्द गहर गम्भीर। चहुँ 'दिंश होय तुम्हारे धीर॥ "त्रिभुवन जन शिव संगम करें। मानो जय जय रख उच्चरे ॥ ३३॥
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भक्तामर स्तोत्र। मंदारसुन्दरनमेरुसुपारिजात, ... सन्तानकादिकुसुमोत्कर वृष्टि रहा। गंधोदबिंदुशुभमंदमरुत्प्रपाता, . दिव्या दिवः पततिते वचसा ततिा ॥३३॥
मंदार एक जाति का कल्पवृक्ष । सुन्दर=मनोहर । नमेरू, पारिजात, और संतानक-ये सभी कल्पवृक्ष हैं । कुसुम = फूल । उत्कर समूह । दृष्टिबारस उद्घा- शुम । गन्धोद गन्धोदक । विन्दु =बूंद । शुम- उत्तम । मन्द -आहिसता चलने वाली । मरुत् =वायु । प्रपाता -पड़ी। दिव्या आकाश.को दिव, आकाश पतति : गिरती है। ने तुम्हारी । परसांघाणीयों की । तति समूह ॥ .. . : ... . अन्वयार्थ-हे.प्रभो गन्धोदक की:दों से पवित्रं मंदमंद पवन करके गिराई हुई मन्दार, मनोहर नमेश श्रेष्ठ पारिजात और संतानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्प समूह को जो दिव्यदृष्टि आकाश से गिरती है सो आपके वचनों की पंक्ति खिरती है। . : . भावार्थ-यहां माचार्य ने भगवान को दिव्य प्राणी को दिव्यं पुष्पों की 'उपमा दी है कि हे जिनेश! आप के कल्याणक के समय जो देवता गंधोदक और पुष्पों की दृष्टि करते हैं सो मानो मापके वचनों की पक्ति ही खिरती है।
मंद पवन गंधोदक इष्ट। ... विविध कल्पतरु पुहप सवृष्ट ॥ देव करें विकसत दल सार। मानो द्विज पंकति अवतार ॥३३॥
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भक्तामर स्तोत्र । शुम्भलप्रभावलयभूरिविभाविभोस्त, लोकत्रयद्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती। प्रोद्यहिवाकर निरंतर भूरिसंख्या, . दीप्त्याजयत्यपिनिशामपिसीमसौम्याम।
-
शुंमत् = शोभायमान् । ममा- कांति । वलय -मण्डल । भूरि अधिक। विमा प्रभा। विभु-प्रभु । ते-तेरी। लोकत्रय-तीनलोक ! तिमत: कांति वाला द्युति-शोभा। आक्षिपन्ती-तिरस्कार करती हैं। प्रोद्यत जगा हुआ। दिवाकर सूर्य । निरंतर लगातार भूरि-जियादा । संख्या-गिणती । दीप्त्या - कांति से। जयति जीतती है अपि भी निशा रात मपि भी। लोम चान्द
सौम्या डी
..
रात अपि-मी। सोम चान्द
. भन्वयार्थ, हे भगवन मापकी शोभा वाले कांति के भामण्डल को भधिक ममा तीन लोको के तेजस्त्रियों के तेज को तिरस्कार करती हुई उदय हुए अनेक सूर्यों के समान तेज वाली भी चांद के समान ठंडो हुई हुई रात को भी कांति से जीत लेती है।
भावार्थ:-हे.प्रभो आपके भामंडल की ज्योति का इतना तेज है कि तीनलोक में जितने सूर्यादिक पदार्थ हे सर्व मंद मासते हैं इतना तेजस्वी होने पर भी सौम्यपने में रात्री के चन्द्रमा को शीतलता को भी जीतता है ॥ ,
तुम तन भामंडल जिन चन्द । सब दुतिवन्त करत है. मन्द । कोटि संख्य रवि तेज छिपाय . - शशिनिर्मल नित करै अछाय ।।३४...
३४-भामण्डल : शोमा का मण्डका
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भक्तामर स्तोत्र
३७ स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः, .. सद्धर्मतत्वकथनैकपटुस्चिलोक्याः। - दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व, भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥ ३५ ॥
.. स्वर्ग =देवलोक । .अपवर्ग मोक्ष। गम जाना. मार्ग =रास्ता। विमार्गण = खोजना । इष्ट मित्र । सद्धर्म = श्रेष्ठधर्म । तत्वकथन = यथार्थकथन। एक पटु = एक चतुर ।, त्रिलोकी - तीनलोक । दिव्यध्वनि-दिव्य शब्द । (पाणी)। भवतिहोती है । ते तुम्हारी । विशद =उज्वल । अर्थ -अर्थ। सर्व-सकल। भाषा जुवान । स्वभाव = आदत । परिणाम- नतीज गुण-गुण प्रयोज्य प्रयोग किया। • मन्वयार्थ हे विभो स्वर्ग और मोक्ष में आने के लिये जो 'रास्ता उसके ढूंढने वा बताने में मिध (सहायक) तीनलोकों में सच्चे धर्म के तत्व कहने में एक पण्डित साफ साफ अर्थ तमाम जुबाने स्वभाव (भादत) परिणाम (नतीजे) और गुणों करके मिली हुई आप की दिव्य ध्वनि खिरती है ।
। - भावार्थ-हे भगवन् तीन लोक में जितने पदार्थ हैं सर्व का स्वभाव (खासि. यत) और स्वर्ग और प्राचीनं सत्यधर्म के असली तत्वों को दरशांती हुई सर्व भाषाओं में समझ आने पालो स्वर्ग और मोक्ष में जाने के लिये सच्चा रास्ता बताती हुई जगत के जीवों की हितु आपकी निर्मल दिव्यध्वनि स्त्रिरती है।
स्वर्ग मोक्ष मारगं संकेत। परम धर्म उपदेशन हेत॥ दिव्य वचन तुम खिरै अगांध। ..
...... सब भाषा गर्भित हितसाध ॥३५॥
३५-भारग-रास्ता।
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३८
भक्तामर स्तोत्र |
उन्निद्र हेमनवपंकज पुज्नकांती,
पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ । पादौपदानि तव यत्र जिनेंद्र धत्तः, पद्मानि तच विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३६ ॥
उन्निद्र = खिला । हेम = सोना । नव = नया | पंकज - कमल | पुज्ञ समूह कांति - शोभा । पर्युल्लसत् - बहुत चमकीला । नत्र = नाखून. मयूख किरणें । शिखा = लाट (ज्वाला) । अभिराम मनोहर । पादौ चरण । पदानि =जगह | तत्र तेरे | यत्र - जहां। जिनेन्द्र = जिनेश । धतः = धरते हैं । पद्म कमल । तत्र - वहां । विवध देवता परिकल्पयन्ति == कल्पना करते हैं ॥
·
अन्वयार्थ - हे जिनेन्द्र खिले हुए सोने के नए कमलों के समूह के समान कांति वाले और चमकीले नाखूनों की किरणों की शिखा से मनोहर आपके पांव जहां जहां पग धरते हैं। वहां वहां देवता कमल रचते हैं ।
भावार्थ-हे भगवन् चमकती हैं नाखूनों की किरणों की निहायत खूबसूरत शिखा जिनकी ऐसे खिले हुए निर्मल सोने के कमलों के समूह की मानिन्द रोशन
C
आपके चरण जहां जहां कदम धरते हैं वहां वहाँ देवता कमल रचते हुए चले जाते हैं।
॥ दोहा छन्द ॥
विकसित सुबरण कमल द्युति । नखद्युति मिल चमकाहिं ||
तुम पद पदवी जहां धरै ।
34 1
तहां सुर कमल रचाहिं ॥ ३६ ॥
३६ - श्रुति शोभा ।
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भक्तामर स्तोत्रा इत्थं यथा तव विभुतिरभूज्जिनेन्द्र, धर्मोपदेशनविधी न तथा परस्य। यादृक् प्रभादिनकतःमहतान्धकारा, . ताहक्कृतीग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥३७
इत्थं इस प्रकार । यथा जैसे । तव =तेरी। विभूति = ऐश्वर्य । भभूत - हुई । जिनेन्द्र -जिनेश्वर । धर्मोपदेशनविधि = धर्मोपदेशकरने का तरीका। न नहीं तथा तैसे। परस्य = दूसरेको। याह जैसी । प्रभा कांति । दिन कृत्-रवि। प्रहतान्धकारा दूर करदिया है अन्धेराजिसने । तादृक् = वैसी।कुतो कहां। प्रहगण
चोद वगैरहं ग्रहों का समूह । विकाशिम:-धमक रहे । भपि-भी॥ 4 अन्वयार्थ -हे जिनेन्द्र इस प्रकार दिव्य ध्वनि वगैरह विभूतियें जैसे आपकी धर्मोपदेश के विधान में हुई वैसी दूसरे उपदेशक की नहीं होती।जैसी अंधेरे के नाश करणे वाली प्रभा सूर्य की है वैसी प्रकाशमाम ग्रहों के समह को कहा।
भावार्थ-हे प्रभो हे भगवन् शिव मार्ग के पतलाने वाले इस प्रकार दिव्य ध्वनि आदि ऊपर वियान की गई जैसी तेरी विभूतियां धर्मोपदेश करने के समय हुई है वैसी किसी दूसरे भन्य मतावलंधी देवादिक के नहीं हुई क्योंकि जैसी मन्धेरे के दूर करने वाली सूर्य की ज्योति होती है वैसी दूसरे प्रहादिक की नहीं होती।
ऐसी महिमा तुम विषै। .
और धरै नहिं कोय ॥ " सूरज में जो जोत है।'
नहिं तारांगण सोय ॥३७॥
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भक्तामर स्तोत्र । प्रच्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल, मत्तभ्रमद्भ्रमरनादविष्टकीपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतंतं,
४०
हष्ट्वा भयं भवतिनो भवदाश्रितानाम |३८|
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=
: श्चोतत - गिररहा ) ( बह रहा) । मद मद । आविल = व्याप्त | विलोल = चंचल 1. कपोल, मूल - गण्डस्थल । मत्त मस्त । अमदू - घूमते हुए । भ्रमर - मौरे । नाद = शब्द | विवृद्ध = बढ़ा | कोप- गुस्सा | ऐरावताम इन्द्र के हाथी के तुल्य । इम - हार्थी | उद्धत - मस्त । आपततू - आपडता हुआ । दृष्ट्वा = देखकर । भयं डर' | भवति = होता है | नो = नहीं । भवेत् = आपके । भाश्रित - आसरे वाला ॥
113
अन्वयार्थ – हे प्रभो ! बह रहे मद से भीगे हुवे चैचले गालों के मूल पर मस्त, धूम रहे भौरों के शब्द से बढ़ गया है गुस्सा जिसका इन्द्र के हाथी के समान कांति बाले. उन्मुक्त ऐसे आते हुये हाथी को देखकर आपके भक्तों को भय नहीं होता ।
भावार्थ- हे प्रभो चाहे कैसा हो भयंकर ऐरावत के तुल्य महामस्त, मदनमस गजेन्द्र तेरे भक्तों के सम्मुखं मारने के लिये आवें परन्तु तेरे नाम का आश्रय होने से तेरे भक्त वह नहीं डरते ॥
॥ छप्पे छन्द ॥
·
3:
24, 2007
मद अवलिप्त कपोल, मूल अलिकुल झंकारें ।
اده
""
तिन सुन शब्द प्रचण्ड, क्रोध उद्धत अतिधारें ॥.
IND.
3
1.
कालवर्ण विकराल, कालवत सनमुख धांवे । ऐरावत सम प्रबल, सकलजन भय उपजावै । . देख गजेन्द्र न भय करे, तुमपद- महिमा लीन । विपति रहित संपति सहित, वरते भक्त अदीन ॥
1
३८ - मद - हाथीका मद । अवलिप्त - लिपा हुवा । कपोल - गाले । भलि भौरा । उद्धतमन्त (मस्त)
:
}
-
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भक्तामर स्तोत्र। ४६ भिन्नेभकुम्भगलदुजज्बलशोणिताक्त, : मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः। बद्धक्रमाक्रमगतंहरिणाधिपोऽपि, . नाकामतिक्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३६॥
भिन्न -फूटे । इभ-हाथी । कुम्भ = कपोल। गलत् = यह रहा। उज्वल = सुन्दर । शोणित = लहू (खून)। भक्त मिला हुआ. मुक्ताफल = मोती । प्रकर-समूह भूषित = शोभित । भूमि =पृथ्वी । भाग:- हिस्सा । बद्ध = बांधा । क्रम तरीका क्रमगत-क्रमप्राप्त। हरिणाधिप:शेर । अपि =भी । न = नहीं । आक्रामति =दवा लेता है । क्रमयुग-चरणयुगल । अचल-पहाड़ संश्रित सहाय लिये। ते-तेरा।
, अन्वयार्थ-फाइदिये जो हाथीयों के कुम्भ उनसे गिर रहे उजले. लह ले मोंगे हुए मोतीयों के समूह कर शोभित कर दिया है जमीन का हिस्सा जिसने और वांधा है क्रम जिसने ऐसा भी शेर अपने पावमें पड़े हुए परन्तु भापके दो चरण रूप पर्वत के भासरे होनेवाले को नहीं दवा सकता ॥
भावार्थ- हे भगवन महाभयंकर हाथियोके मस्तक के छेदने वाला जिसे देखते ही इन्सान कांप उठे यदि ऐसे शेरके पैरमै भो कोई आपका भक्त फंस जावे तो शर उसे कुछ भी वाधा नहीं कर सकता । जसे गुफा में अंजना सुन्दरों की सहायता हुई थी। . नोट- इस काव्य के भाषा छन्द कवि हेमराज जी कृत में कालदोष से एक . ऐसा शब्द प्रचलित होगया था जो मरद के पुशोदा' अंग का नाम है 'जो स्त्रियों के सन्मुख कहते हुए लज्जा भाती है तो हमने ठीक कर दिया है।
अतिमदमत्तगयन्द, कुम्मथल नखन विदारै। मोतीरक्त समेत, डार भूतल सिंगारैः॥ बांकी दाढ़, विशाल, बदन में रसना हाले। भीम भयङ्कर रूप देख जन थरहर चाले। ऐसे मृगपति पग तलेजो नर आया होय। शरण गहै तुम चरण की; पाधाकर न सोय॥३९॥
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____ भक्तामर स्तोत्र। कल्पान्तकालपवनोदतवह्निकल्पं,. दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम्।। विश्वं जिघत्सुमिव संमुखमापतन्तं,.. त्वन्नाम कीर्तनजलं शमयत्यशेषम्॥ ४०॥
... . कल्पांतकाल - प्रलयकाल पवन हवा । उद्धत मड़कती। वह्नि आग। कल्प -घरोवर । दावानल =धनकी आग । ज्वलित घलती। उज्वल धर्मक। उत्स्फूलिंग-जिस से चिंगयाड़े निकल रहे हैं । विश्व जगत् ! जियत्सु नखाने की . स्वाहिश वाला । इज-जैसे संमुखं = सामने। आपनत् भाते हुए उत्पन्नाम तेरे नाम' कीर्तन, कथन करणा जल =पानी, शमयति = शान्त करता है । अशेष-सकल ॥ .
' ' अन्वयार्थ-हे भगवन् ! प्रलयकाल को पवन कर उड़ाये वा भड़काये माग के समान बल रहे चमकीले ऊंचे विनगायें से शोभित संसार के खाने की इच्छा से, मानो सांइने आ रही बनकी तमाम आग को आप का नामोच्चारण रूपंजल शांत कर देता है।। . .
. . . . . . भावार्थ-यद्यपि अग्नि जल से शांत होय है तो भी प्रलयकाल की पवन कर उभारी हुई मासमान तक जिस के भभकारे जारहे हैं चारों तरफ से बलतो भा, रही ऐसी भयानक अग्नि भी भगवान के नाम रूपी जल से शांत हो जाती है।...
नोट-जैले सीता सतीकर उच्चारण किये प्रभु के नाम रूपी जलने अग्निकुण्ड को शांतकर कमलों सहित प्रफुल्लित पानी का सरोवर बना दिया था . . . .
प्रलय पवन कर उठी, अग्न जो तास पटतर। . चौफुलिङ्ग शिखा, उतङ्ग पर जले निरन्तर। . जगत् समस्त निगल कर, भस्म करेगी मानों। तड़तडाट दवजले, जोर चहूं दिशा उठानो। सो इक छिन में उपशमैं, नाम नीर तुमलेत । होय सरोघर परणमें, विकसित कमल समेत ॥१०॥ :.
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... .. . भक्तामर स्तोत्र। ४३ रक्तक्षणं समदकोकिलकंठनील,
क्रोधीत फणिनमुत्फणमापतंतम्। . आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंक, .
स्त्वन्नामनागदमनीहृदि यस्य पंसः॥४॥
'रक-लाल । ईक्षण आंखे । समदं = मस्त । कोकिल - कोयल । कंठ = गला भील-नीला । क्रोधोवर-गुस्से से उन्मत्त । फणी साप । उत्फण ऊंची, फण किये आपतंतं - मा.रहे । माझामति वालेता है । क्रम =पांउ । युगन्जोड़ा। निरस्त वगैर । शंका-शाक । त्वत् = तेरा । नाम नाम । नागदमनी - नागदौन बूटी। कि दिलमें । यस्य = जिस के । सः =नर के ॥ .. .. ... ... { *:
मन्वयार्थ हे स्वामिन् । सुरख आत्रे पाले मस्त कोयल के गले के समान नीले, गुस्से से उद्धत ऊंची करी है फण जिसने ऐसे आते हुथे सांप को "वह पुरुष" निर्भय होकर दोनों पावों से दबा सकता है जिस मनुष्य के दिल में आपके नामरूप नागदौनबेटी है।
भावार्थ-नाग दमनी एक जड़ी होती है जिस के लगाने से कैसा भी जहरीलासपिने काटाहो बाधा नहीं कर सकता अर्थात् जहर उतर जाता है तो यहां आचार्य कहते हैं कि हे प्रभो भापके नाममें इतना असर है कि जो पुरुष मापके भक्त हैं आप पर निश्चय रखते हैं यदि महाकाला सुरख भाखो घाला गुस्से से भराहुआ सांप ऊंचीफणउठाएलोर से पुकारे मारता हुभा मुखले अग्निके चिङ्गाड़े निकलतेहुए किसी मापके भक्तकेसन्मुख भायेतो वह उसे देख कर नहीं डरता दोनों पैरों से दवा सकता है यदि वह 'काट भी खावे तो भापके नाम स्मरण रूपी नागदमन से भापके भक्तों को जहर नहीं बढ़ता। ... नोट-विषापहार में सेठ के पुत्र का जहर उतर गया था।
कोकिल कण्ठ समान, श्यामतन क्रोधजलता । . रतनयन फुकार मार विष कणि उगलन्ता। फंण को ऊंचा करे वेगही सन्मुख धाया। तव जन होय निशंक, देख फणपतिको आया। जो डंके निजपावको, व्यापै विष न लगार । नागदमन तुम नामकी, हे जिनको आधार ॥४१॥
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."
४४. . . . भक्तामर स्तोत्र । वल्गत्तुरंगगजंगर्जितभीमनाद, - मानौ बलं बलवतामपि भूपती नाम् । उद्यहिवाकरमयूखशिखा पविई, त्वत्कीर्तनात्तम वाशुभिदामुपैति ॥ ४२ ॥ .
बलंगा नाचते। तुरंग घोड़ा। गज = हाथी ! गर्जित गाजता भीम .. भयंकर । नाद-शब्द। आजि=युद्ध बल = फौज । बलवान् = जोरावर । अपि । भी भूपति राजा । उद्यत् = ऊमरहा। दिवाकर -सूर्य । मयूख-किरण शिखाज्वाला । अपविद्ध-फूंकागया। त्वत् = तेरा। कीर्तन कथन । तम् = अन्धेरा ! इवजैसे। आशु-जल्दी । मिद-भेद । उपैति प्राप्त होय है । . . .,
अन्वयार्थ हे प्रभो चल रहे नाचते बोड़ो से और हाथियों के गर्जन से भय-... 'कर शब्द वाली बलवान् राजों की फौज युद्धमैं आपके नामोच्चारण से ऊगते हुए सूर्य की किरणों को शिखाओं ले वींधे हुए अन्धेरे के समान जल्दी नष्ट हो जाती है......
__ भावार्थ-यहां भाचार्य कहे हैं कि हे भगवन् यदि कोई गनीम बहुत बड़ी फौज का अमघोह लिये हुए घोड़े दौड़ाता हुआ हाथियों को गरजाता हुभा' इस कदर गरद गुबार उड़ाते हुए कि सूर्य भी नजर न पड़े जिसको देखकर बड़े बड़े,मानी. राजानों के मान गलजावें यदि आपके भक्त के सन्मुख आवे तो जैसे सूर्य के सम्मुख अन्धेरा नहीं ठहरता इली प्रकार आपके आश्रित के मुकाबले से वह भाग जाता है। . .
जिस रण मोहि भयानक, शब्द कर रहे तुरंगम, घन से गज गरजाहि, मत मानो गिर जंगम । . अति कोलाहल माहि, बात जहां नाहि सनीज, राजन को परचण्ड,देखबल धीरज छीजे। नाथ तुम्हारे नाम से, सो छिनमाहिं पलाय, ज्यूं दिनकर परकाशतें, अन्धकार मिटजाय ॥४२॥.
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भक्तामर स्तोत्र |
कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह वेगावतारतरणातरबोधभीमें । यह जयं विजितद्यजेय पचा, Free पादपंकज नाश्रयिणो लभते ॥ ४३ ॥
- भाला (वरछी) । अत्र अग्रभाग । भिन्न फटा
गजं हाथीं ।
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शोणित
कुन्त भ - खून | धारि पानी। वाह - प्रवाह । वेग-जल्दी | अवतार तरणि- तैरना | आतुर - दुखी । योधे = योधा । भीम = भयंकर । युद्ध
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उतरना ।
लड़ाई ।
जयजीत । विजित जीते गए । दुर्जय - दुखसे जीतने योग्य। जेय - जतिने योग्य
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'पक्ष' = तरफ । त्वत् = तेरे । पाद - चरण । पंकजवन कमल समूह | माश्रयी
● आसरा लेने वाला । लभते - लभते हैं ॥
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'अन्वयार्थ' हैं प्रभो आपके चरण कमल रूप वनका आश्रय लेने वाले (भक्त)
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बरछी के अग्रभाग से मेरे (छेदे ) गए जो हाथी उनके खून रूप पानी के प्रवाह में जल्दी 'से उतरणे तथा पारजाने में दुःखी हो रहे हैं योधा जिस में इस लिये भयंकर युद्ध में जीत लिये हैं दुःखसे जीतने योग्य शत्रुपक्ष जिन्होंने ऐसे हुए हुए जय को प्राप्त होते ॥
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मावार्थ- हे भगवन ऐसे बड़े जंगोजदल में कि जहां फोज का घमलान हो
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जाने से खून की नदियां बहने लग जाये जिसमें बड़े २ योधा फसे हुए दुखी होकर पार जाने में असमर्थ हो ऐसे जंग में मुबतला भी आपके भक्त आपके नाम के स्मरण मात्र से ऐसे अजीत जंग को भी जीतकर फतह पाते हैं ॥ .
मारे जहां गजेन्द्र कुम्भ हथियारः विदारे । उमगे रुधिर प्रवाह, वेग जल से विस्तारे । 'होय तिरण असमर्थ, महा योधा बल पूरें । : तिसरण में जिन तोय, भक्त जे हैं नर सूरे। दुर्जय अरिकुल जीतकर, जय पावें निकलंक 1 तुम पद पंकज मन बसें, ते नर सदा निशंके ॥ ४४ ॥
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भक्तामर स्तोत्र ।
अंभोनिधौ चुभितभोषणनक चक्र, पाठीन पीठभय दोल्वणवाडवाग्नौ । रंगतरंगशिखर स्थितयानपाचा,.. स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद्व्रजन्ति 88
{
| मम्मोनिधी - समुंद्र | शुभित = क्षोभवाले | भीषण भयं देने वाले । नक्रं - . नाक्कू । चक्र - समूह। पाठीन = एक किसम की मछली । पीठ पीढ़ा। भयद - - डराने वाली । उल्षण - प्रचण्ड । वडवाग्नि समुद्र की आग | रंगत् = नाचती । तरंग - लहरें । शिख़र - घोटी | स्थित ठहरे हुए पानपात्र - जहाज । वासं भय । विदाय - छोड़ । भवतः - तुम्हारे । स्मरण - याद करणा । ब्रजन्ति = जाते हैं ॥
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अन्वयार्थ ---हे भगवन् क्षोभ को प्राप्त हो रहे हैं भयानक नाकूचों के समूह और मछ जल जीव और भय देने वाली है बडवा भाग जहां ऐसे समुद्र में नाचती हुई लहरों के ऊपर स्थित है, जहाज जिनके ऐसे भी आपके स्मरण से (याद करणे से) मय को छोड़ कर चलते हैं |
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भावार्थ-हे भगवन अति गंभीर समुद्र जिल में नाकूचों और बड़े ल
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और बड़े सांपों के समूह भरे हुए हो जिसकी लहरें मीलों तक उपर उछल रही हों और जहां जल के जलाने वाली पड़वा अग्नि चल रही हो जिस को जहाज और . अग्न बोट भी नहीं अबूर कर सकते जैसे कि सौथपोल (दक्षिणी कुतव) ऐसे मलंय समुद्र में यदि आपके भक्त गिर जायें तो आपके नामरूपी तारण के माभय से उस को तैर कर पार हो जाते हैं |
नोट- श्री पालमट आदि अनेकापार हुए हैं ।।
नक्र चक्र मगरादि, मच्छकर भय उपजावे ।
जामें बड़वा अग्नि, दाहसे नीर जलावे. ।, पार न पावें जास, थाह नहिं लहिये जाकी । गर्जे जो गम्भीर, लहर गिनती नहीं ताकी सुख सो तिरे समुद्र को, जे तुम गुण सुमराहिं । चपल तरह के शिखर पार जान ले जाहिं ॥ ४४ ॥
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. भक्तामर स्तोत्र। ४७ उदभूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः, - शोच्या दशामुपगतागतजीविताशाः। त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्धदेहा, मयां भवंति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥
- उद्भूत-होगया । नीषण भयंकर । जलोदर पेटका रोगामार भार। भुग्न कुबड़े। शोच्या शोक के योग्य । दशा हालत । उपंगता प्राप्त हुई। गत दूर हो गई । जीवित जीना । आशा = आस । त्वत्पाद - तेरे पांव। पंकजकमल । रजोधूल। अमृतम्भमृत । दिग्ध-लिपा । देह शरीर । मां - मनुष्य भवन्ति-होय हैं मकरध्वज कामदेव । तुल्य समान । कंप-शकल ।।.
अन्वयार्थ हे प्रभो! बढ़ गए भयंकर जलोदर रोग के भार से टेडे होगये भौर दूर होगई है जीपने की आशा.जिनकी इसी लिये शोक की दशा (हालत) को प्राप्त हो गए ऐसे भी मनुष्य मापके चरण कमल की धूल रूप ममृत से लिप गए हैं। शरीर जिनके सो तो कामदेव के तुल्य रूप पाले होजाते हैं।
भाषार्थ हे भगवन् मापके चरणों की रज में इतना असर है कि छोटे मोटे रोग का तो क्या जिकर जलोदर सारखे ला इलाज मरज जिनको होजाने से उनकी • जिन्दगी की भाशा नहीं रहती भापके चरणों की रज रूपी अमृत शरीर के लगाने से उनके सर्व रोग दूर हो कामदेव समान कंचन वरण शरीर होजाता है। _' नोट-भगवान् के प्रतिविम्य के प्रक्षालन मात्र जल लगाने से कोटीमट प्रापाल का कुष्ट दूर हो सुवर्णसा शरीर हुआ है।
महा जलोदर रोग; भार पीड़ित जेनर हैं। वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जे रोग गहे हैं।.. सोचित रहे उदास, नाहि जीवन की आशा।
अति घिनावन देह, धरें दुर्गन्ध निवासा। • तुमपदं पंकज धूलको जेलांवें निज अङ्ग। ... ते नौरोग-शरीर लहिं, छिन में होंय अनंग ॥ ४५॥..
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'भक्तामर स्तोत्र ।
आपादकंठ मुरुशृंखलवेष्टितांगाः, गाढवहन्निगड कोटिनिघष्टजंघाः । त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरतः,
...सद्यः स्वयं विगत बंधभया भवति ॥४६॥
आपाद कंठ - पांव से कंठ तक उस वडा | शंखल = सांकल | वेष्टित | लपेटा गया ।. अंग- शरीरं ।' गाउँ - मजबूत । बृहत् = बडे २ । निगड - जंजीर · ( सांकल ) | कोटि == अग्रभाग | निघृष्ट असगई। जंघा - दोगें । त्वन्नाममन्त्र . तुम्हारा नाम रूपी मन्त्र । अनिश = दिनरात मनुजे - मनुष्य ।' स्मरन्तः = याद करते हुए सद्यः = शीघ्र । वस्य = अपने आप । विगत - दूर होगया। बंध-बंधन मंत्र 'डर | भवति होजाते हैं ॥
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अन्वयार्थ-पाँव से गले तक बड़े मारी सकिल से लपेटे हैं शरीर जिनके गाढ़ी बेड़ी की फोटो से घिस गई है, जंघा जिनकी ऐसे मनुष्य तुम्हारे नामरूप मंत्र, फो दिनरात जपते हुए जल्दी हो अपने आप टूट गए हैं बंधन जिन के ऐसे हो जाते हैं ।
"
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भावार्थ -- हे प्रभो भांपके नाम मात्र में इतना प्रभाव है कि जब राजा आदि संकलों से जकड़ कर भोरों में डाल ताले ठोक देते हैं तब ऐसी कठिन मीढ़ पड़ने पर. आपके भक्त आपका नाम रूपी संत्र का स्मरण करते हैं तो अपने आप के तमाम बंधन टूट. सर्व भय दूर हो जाते हैं ॥
पांव कण्ठ से जकर, बान्ध सांकल अति मारी । गाढ़ी बेड़ी पैर माहिं, जिनजांघ विदारी । भख प्यास चिन्ता, शरीर, दुःख जे विललाने । शरण नाहि जिन कोय, भूप के बन्दीखाने ।
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तुम सुसरत स्वयमेव ही, बन्धन सब खुल जाहिं । -छिनमें से संपति कहें, चिन्ताभय विनसाहि ॥ ४६
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भक्तामर स्तोत्र ॥ .. ४९ मत्तद्रिमगराजदवानलाहि संग्रामवारिधिमहोदरबंधनोत्थम् । तस्याशनाशमुपयातिभयं भियेव, यस्तावक स्तवमिममति मानधीत ॥४७॥
मस-मस्त । द्विपेन्द्र (गजराज) = बडे-हाथी। = मृगराज शोर । दवानल - धनकी आग। महिलांपा. संग्राम युद्ध (लड़ाई) ! पारिधि समुद्र । महोदर - जलोदर के समान पेट का रोग। बंधन बांधा जाना। उत्थं उठा तिस्थ उसका। भाशु-जल्दी नाश-नष्टं। उपयाति हो जाता है। मयं खौफ। मियां डर. खेवतरह । यः जो; तावक - तुम्हारा स्तव-स्तोत्र।
इ स मंतिमान में बुद्धमानमधीते : पढ़ता है :.::...: :: .. . . . .
मन्वयार्थ जो बुद्धिमान आपके इस स्तोत्र को पढता है-उस का मस्त हाथी' शेर, घनकी भाग, सांप, युद्ध, समुद्र, जलोदर, बंधन, इनले पैदा होने वाला मय: शीघ्र ही उसले डरता हुआ नष्ट हो जाता है । :- .......... ... . : भावार्थ, यहाँ आचार्य कहे हैं कि है. भगर्दैन् अपरके छन्दों में वर्णन करे जो मस्त हाथी, शेर, बन की माग साप युद्ध समुद् जलोदर रोग बंधन आदि भष्ट प्रकार के महा संकर जो बुद्धिमान आप के भक्त विपदा के लमय आपका यह स्तोत्र, पढ़ें उन की हर प्रकार की मुसीबतें डर कर एक क्षण मात्र में नष्ट हो जाती हैं : अर्थात् उनको फैसी ही विपदा पेश क्यों न ओजाधे यदि वह मुसीवेत के चकत औपके : इस स्तोत्र का पाठ, करें तो उनकी सर्व तकलीफात फौरन दूर हो वह अमन चैन हासिल करते है।
... महामत्त गजराज, और मृगराज दवानल। - फणपति रण परचंड नौरनिधि रोगमहाबल।
बन्धन में भयं आठ, डरप कर मानोनाशे । :तुमसुमरत छिन माहि, अभय थानक परकाशें ।
इल अपार संसारमें शरण नाहिं प्रभ कोय। याते तुम पद भक्त को भक्ति सहाई होय ॥ ४७.॥
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५० भक्तामर स्तोत्र । स्तोत्ररोज तब जिनेंद्रगुणैनि बब्बी, . भत्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इहकंठगतामजलं, :. तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥
स्तोत्रम स्तोत्र रूप माला को। तब-तुम्हारी जिनेन्द्र-जिनेश । गुणमाधुर्यादि काव्य गुण, वा, सूत । निवद्ध गून्धी (रचौ) मत्या भक्ति से। मयामैंने विविध अनेक प्रकार की। वर्ण रंग । विचित्रका रंग की पुष्पा फल । धसे पहिनता है । जना मनुष्य । यः जोह यहां । कंठ-गलागता पड़ी हुई। अजन्न-निरंतर (लगातार) । उसे । मान इज्जत । तुंग उंचावा "मानतुंग" कवि का नाम है । अवशान वश होने वाली समुपैति मच्छी तरह प्राप्त होय है । लक्ष्मी-श्री, शोना, मुक्ति॥ ___ अन्वयार्थ हे जिनेश भक्ति करके तुम्हारे गुणों से गन्थी दुई भनेक भक्षर अप विचित्र हैं फूल जिसमें कंठ में प्राप्त इस स्तोत्र रूपमाला को जो पहिन लेता है मान से ऊंचे उस मनुष्य को भी लक्ष्मी (मुक्ति) प्राप्त होती है। . .
भावार्थ-इस स्तोत्रके पढ्नेका महास्य यह है कि इस में वर्णन करे जो जिनेन्द्र ' के गुण वही भया तागा और इस के शब्द वही नवे रंग बिरंग के फलों की माला जो नर कंठ में पहने अर्थात् इस को कंठ कर नित्य पहें वह इज्जत, लक्ष्मी माला दरजे के स्तवै खिलत मौर स्त्री पुत्रादिक हर किसम के मनोवांछि कायम रहने पाले . फळपाय मुक्ति के भागी होवेंगे।
यह गुण माल विशाल नाथ तुम गुणन समारी। विविध वर्ण के पुष्प, गून्य में भक्ति विद्यारी ॥
जोनर पहिरे कंठ भावना मनमें भावे ।
'मानतुङ्ग वह निज अधीन शिवलक्ष्मी पावे ॥४८ - दोहा-भाषा भक्तामर कियो, हेमराजहितहेत।
जे नर पढ़ें स्वभाव सों ते पायें शिव खेत .
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“सूची पत्र । . यह पुस्तकें हमारे यहां बिकती हैं।
हमारी छपवाई हुई पुस्तकों के नाम। शुद्ध पंचल्याणक तिथियों के चार । दर्शन कंथा भाषा छेद बन्द ।) चौधोसी पूजन पाठ संग्रह का. महान चार दान कथा बड़ी.......) ग्रंथ अर्थात् संस्कृत चौधोसी पूजा पाठ शील कथा भापा छंद बन्द २. भाषा चौबीसीपूजा पाठ रामचन्द्रकृत दो निशि भोजन कथा बड़ी छोटी.)। ३ भाषा चौबीसी पूजापाठ वृन्दावनत नित्य नियम पूजा देवशास्त्रं गुरू शुद्ध ४.मापा जौबीसी पूजा पाठ बखतावर ', संस्कृत पूजा तथा भाषा पूजा ) ‘कृत यह चारों पाठ एक ग्रन्थाकार खूले ६०५ दिगम्बर भाषा जैन अन्यों'... पत्रों में शुद्ध पंच कल्याणक तिथियों के .के नाम ......... छपे हैं । इसमें कमीशन नहीं काटा वरदत्त के १८. नाते ... ) जाता क्योंकि इसका पूरा दाम १०) है चारह भावना संग्रह ...
हरवंश पुराण महान.ग्रन्थ ५)इसमें छह ढला संग्रह धानत, बुधजन, दौलत कमीशन नहीं काटा जाता ..क्योंकि तीनों पार्यो की इकट्ठी एक पुस्तक)
इसका पूरा दामः ... :) है। श्री नेमनाथ का व्याहला प्रश्नोत्तर . श्रीपाले चरित्र भाषा छन्द यन्द.१॥). बारह मासादि राजल नौ पाउ ।। नई जैनतीर्थ यात्रा बेड़ी.. यमनसैनचरित्रमुनियमनसैन का वृत्तान्त सकुमाल चरित्र बड़ा भाषा..का निवर के अहार की विधि :.....). जैन कथा संग्रह स्त्रियों के संतान पैदा तथा जिल्द सहित ॥ होने की विधि और इलाज सहित १) तरवार्थ सूत्र मूल संपूर्ण . .. जैनवाल गुटका प्रथम भाग बड़ा जैन, भूधर जैन शतक अर्थ सहित ...) परिशालाओं में पढ़ाने योग्य भक्तामर भाषा कठिन अर्थ सहित ).
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पर मिलने का पताः-हकीम ज्ञानचन्द्र जैनी
- मालिक दिगम्बर जैनधर्म पुस्तकालय लाहौर।
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6.
"हमारी जड़ी बूटियों के इलाज से स्त्री को जरूर गर्म रह जाता है ..... यह इलाज हम जंगल को जड़ी बूटियों से करते हैं हमारे इलाज से जकर ग
रह जाता है जिसे इलाज करना हो हमसे हमारा इश्तिहार मंगा कर पदे... .... स्त्रियों के पगर (सफेद वीर्य गिरने) का इलाज '.. ' जिस स्त्री के बीस.वर्ष से भी सफेद वोयें गिरता हो हमारी जड़ी बूटियों : इलाज से विलकुल बंद हो जाता है जिसके कपडे. बंद हो गये हो हमारी जड़ी बूटिर ' के इलाज से कपड़े जारी हो कर हरमास बराबर होने लगते हैं । . .
. पुरुषों के वीर्य की विमारियों का इलाज ......." . जिस पुरूष का वीर्य पानी समान भी पतला हो गया हो 'आतमाफ के जख हो पुराना सुजाक हो खून गंदा हो गया हो.ना मरद होंगया हो हमारे इलाज से बिक फुल नीरोग हो कर काया स्वर्ण समान हो जाती है ॥ .
पुराने जखमों का इलाज । . . . जिन विमारों को डाक्टर यह कहें कि इसकी टांग या बांह चदून काटे इसके : जखम अच्छे नहीं हो सकते हमारी जड़ी बूटियों के मल्हम से वर्षों के सड़े जखम दूर फार काया नीरोग हो जाती है ।। ... ... ........... __ . फालिजका कामिल इलाज। ...... .
जिसे फालिज मार गया हो अघडंग मार गई हो दांग बांह धंड मुडने. गया हो हमारी यूटियों के इलाज से मनुष्य बिलकुल तंदुरुस्त हो जाता है। .. ........ हम दवा नहीं बेचते.. :::: '..... हम दवा नहीं बेचते और न दवा, नेज सकते हैं जिले इलाज कराना हो हमें कुल '. कर इलाज करवावे हम हकीम है वाय पित्त कर्फ बीमार के मिजाज माफिक संद गरमी धतुरमाल मौसम के अनुसार सोच समझ कर इलाज करते हैं। .
"..:.. हमारी फीस बहुत बड़ी है। .. .... - ..हम मामूली फीसपर इलाज करने नहीं जाते हमारो फीस हाथी जैसा पेट इन्। बदी है कि बड़े धनवान हो देखकते हैं जो हमको बुलाकर इलाज करवावे हमारा मुलाज
लहितमानेजानेका किराया खरब दवा का दाम रोजाना रसोईवरचमीदेना पड़ा है। .. " हमारा पता:- हकीम
“म हल्ला अनारकली नीला गुम्मज लाहोर
- हकीम ज्ञानचंद्रजना
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