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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २ सू०१ असुरकुमारदेवस्योत्पादादिकम्
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स्वयमुत्कृष्टकाल स्थितिको जातः, 'सो चेत्र पढनमो भाणियन्त्रो' स एव प्रथमगमो भणितव्यः कियत्कालस्थितिकेषु असुरकुमारेषु जायन्ते एकसमये च कियन्तः उत्प धन्ते तथा संहननसंस्थानादिकं सर्व प्रथमगमानुसारेणैव ज्ञातव्यमिति । प्रथमगमा- पेक्षया यद्वैलक्षण्यं तद्दर्शयति- 'णवरं' इत्यादि, 'णवरं ठिई जहन्नेणं तिनि पलिओव 'माई' नवरं स्थितिर्जघन्येन त्रीणि पल शेपमानि - परयोपमत्रयस्थितिः अवगन्तव्या जघन्या, 'उकोसेग दि तिन्नि पलिओदमाई' उत्कर्षेणाऽपि त्रीणि परयोपमानि जघन्योत्कृष्टाभ्यां पल्योपमत्रयं स्थितिः, प्रथमगमे जघन्या स्थितिः सातिरेका पूर्वकोटियमाणा उत्कृष्टा पल्योपमत्रयप्रमाणा प्रदर्शिता इह तु उभे अपि त्रिप -ल्योपमे इति विशेषः । ' एवं अणुबंधो वि' एवम्-स्थितित्रदेव अनुवन्धोऽपि जघन्योस्कृष्टाभ्यां पल्योपसत्रयात्मकः । कायसंवेधश्च भवादेशेन भवद्वयात्मकः प्रथमगमवदेव 'कालादेसेणं, जहन्नेणं तिन्नि पलिओमाई दसहि वाससहस्सेहिं अमहिस्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? तथा वे वहां एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? यह सप प्रश्नोत्तर रूप कथन तथा संहनन, संस्थान आदि द्वार सम्बन्धी कथन प्रथम गम के जैसा ही है, परन्तु यहां स्थिति, अनुबन्ध एवं कायसंवेध को लेकर जो भिन्नता है वह इस प्रकार से है कि यहां जघन्य से स्थिति तीन पल्घोषम की है और ' . उत्कृष्ट से भी स्थिति तीन पल्योपम की है, प्रथम ग़म में जघन्य स्थिति - सातिरेक पूर्वकोटि प्रमाण कही गयी है और उत्कृष्ट स्थिति तीन - पल्योपमरूप कही गयी है । इसी प्रकार का कथन अनुबन्ध के सम्बन्ध में भी है। अर्थात् वह भी यहां सातवें गम में जघन्य और उत्कृष्ट से तीन पस्योपमरूप ही है, कायसंबेध भव की ग्रहण करने रूप है तथा काल की अपेक्षा जघन्य से दश हजार वर्ष
अपेक्षा दो भवों को
ઉત્પન્ન થાય છે? આ તમામ પ્રશ્નોત્તરે રૂપ કથન તથા સહુનન, સંસ્થાન, વિગેરે દ્વારા સબધી કથન પહેલા ગમ પ્રમાણે જ છે, પરંતુ અહિયાં स्थिति, शानुषधाने अयस वेधसां नुहाया छे. ते भा प्रभा छेઅહિયાં સ્થિતિ જઘન્યથી ત્રણ પલ્નાપમની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ ત્ર પયાપમની સ્થિતિ છે. પહેલા ગમમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાતિરેક પૂર્વ કાટિ •પ્રમાણુ કહેવામાં આવી છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ મૈપમની કહી છે, આજ રીતનુ થન–અનુખ ધના સમધમાં પણ છે. અર્થાત્ તે અનુખ ધ. પણ • આ સાતમાં ગમમાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ પચેપમ રૂપ જ છે. કાય સંવેધ ભવની અપેક્ષાથી એ ભવે,ને ગ્રહણુ કર્યા રૂપ છે. તથા કાળની અપે
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