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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण । [ २०५
पहले उनके पूर्वज अपने पुत्र-पुत्रियों को युवावस्था प्राप्त करने क जैन उपाध्यायोंके सुपुर्द करके धार्मिक और लौकिक ज्ञानमें पारंगत बनाते थे, वहां अब उनको नन्हींसी उमरसे ही गृहस्थीकी झंझट में फंसादिया जाता है । वे बालक अपरिपक्क शरीर और अधूरे ज्ञानको ही रखकर गृहस्थीका महान बोझा अपने कोमल कंधोंपर लेकर चलने को बाध्य किये जाते हैं; जिसका परिणाम यह होता है कि वे गृहस्थ - धर्मका समुचित पालन करनेमें असफल रहते हैं । धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थका वह भली भांति पालन ही नहीं कर सक्ते हैं। वह तो पहले ही नामको पुरुष रह जाते हैं । इस दशा में वृद्धावस्था तक उनकी वही असंयमी दशा बनी रहती है और वानप्रस्थधर्म एवं सन्यास धर्मका पालन करना उनके लिये मुहाल होजाता है । इसके साथ ही अपने पूर्वजों के खिलाफ आजके जैनियोंने अपनेको अलग र टोलियों में सीमित कर रक्खा है, जिससे विव
क्षेत्र संकुचित होगया है और योग्य वर कन्याओंके ठीक सम्बंध नहीं मिलते हैं । इससे भी सामाजिक हास बहुत कुछ हो रहा है । किन्तु पूर्वकालके जैनियोंमें यह बात नहीं थी । उनका विवाहक्षेत्र विशद था और उनके जीवन आदर्शरूप थे । आज उनके पद'चिह्नोंपर चलने में ही हमारा कल्याण है । अस्तु; उस समय के आदर्श सामाजिक जीवनके अनुसार ही जब भगवान् पार्श्वनाथ पूर्ण युवा होगये तो उनके पिताने उनका विवाह करना आवश्यक
समझा था ।
राजा विश्वसेनने राजकुमार पार्श्वके समक्ष जब विवाहका प्रस्ताव रक्खा, तो वे सकुचा गये । उन्होंने अपने बल - पराक्रम