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भगवान पार्श्वनाथ |
जीव नित्य है । वह अनादिकाल से इस संसारके झूठे मोह में पड़ा हुआ दुःख भुगत रहा है । परपदार्थ जो पुद्गल है उसके संबन्ध में पड़ा हुआ यह जीव एक भवका अन्त करके दूसरे में जन्म लेता है । इस तरह यद्यपि संसार में वह जन्म-मरणरूपी परिभ्रमणमें पड़ा रुलता रहता है, परंतु वह मूलमें अपने स्वभावसे च्युत नहीं होता है ।' वह अपने स्वभावमें अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख और अनंतवीर्य रूप है; किंतु पौगलिक सम्बन्धके कारण उसके यह स्वाभाविक गुण जाहिरा प्रगट नहीं रहते हैं । वह उसी तरह छुप रहे हैं जिस तरह गंदले पानीमें उसका निर्मल रूप छुप जाता है । इस तरह जीव और पुद्गल अर्थात् अजीवकी मुख्यतासे ही इस लोक में विविध अभिनय देखनेको मिल रहे हैं । अजीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल रूप हैं । पुद्गल स्पर्श, रूप, रस, गंधमय है और इसका जीवसे कितना घनिष्ट संबंध है. यह ऊपरके कथनसे प्रकट है । यह अनंत है और अणुरूप है । धर्म और अधर्म द्रव्योंका भाव पुण्य-पाप नहीं है । यह एक स्वतंत्र प्रकारका पदार्थ है जो जीवको क्रमसे चलने और ठहरनेमें सहायक है । जिस तरह पानी मछलीकी सहायता करता है उसी तरह धर्म द्रव्य जीवकी गतिमें सहायक है और जैसे वृक्षकी छाया
१. बौद्धोंके 'ब्रह्मजालसुत्त' में प्राचीन श्रमणोंका ऐसा ही श्रद्धान बतलाया गया है । वहां लिखा है कि श्रमणोंके अनुसार 'जीव नित्य है; लोक किसी नवीन पदार्थको जन्म नहीं देता है । वह पर्वतकी भांति स्थिर है । यद्यपि जीव संसारमें परिभ्रमण करते हैं वैसे वैसे रहते हैं ।' यह उल्लेख भगवान पार्श्वनाथ के सम्बन्धमें है । इसके लिए देखो भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० २२० ।
तो भी वे हमेशा