Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ अलिंगग्रहण प्रवचन प्रश्न : यहाँ आप कहते है कि इन्द्रिय बिना ज्ञान होता है; परन्तु शास्त्र में उल्लेख है कि इन्द्रिय और मन के अवलंबन से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, वह अप्रमाण हो जायेगा? उत्तर : व्यवहारनय संयोगों का ज्ञान कराता है। इन्द्रियों और मन द्वारा मतिज्ञान होता है; वह व्यवहारनय का कथन है। व्यवहार से मतिज्ञान में अनेक भेद पड़ते हैं; परन्तु निमित्त की अपेक्षा नहीं लेने पर ज्ञान एक ही है। जीव अपने आत्मा से ज्ञान करता है, तब अन्य किन वस्तुओं की उपस्थिति होती है, व्यवहारनय उनका ज्ञान कराता है। ये सभी भेद अपनी पर्याय की उस-उस समय की योग्यता के कारण पड़ते हैं । इन्द्रियाँ आदि बाह्य संयोगों के कारण भेद नहीं हैं; परन्तु अपने कारण भेद पड़ते हैं, तब निमित्त पर आरोप आता है। ___यहाँ तो भेद का भी निषेध करते हैं । निमित्तों के आश्रय से ज्ञान होता ही नहीं है। ज्ञायक के आश्रय से ज्ञान विकसित होता है । इन्द्रियाँ तथा परवस्तु आत्मा को तीन काल में स्पर्श ही नहीं करतीं। अतः उनके द्वारा आत्मा जान ही नहीं सकता है; परन्तु अपने अस्तिरूप ज्ञानस्वभाव के द्वारा जानता है। अज्ञानी स्वयं की भ्रमणा के कारण 'संयोग से मैं जानता हूँ' ऐसा मानता है, यह मान्यता स्वभावदृष्टि का घात करती है। वह तो सभी वस्तुओं को संयोग से देखता है । ज्ञानी तो स्वयं को प्रत्यक्षज्ञान से जानता है, ऐसा निर्णय करे तो परपदार्थ को भी उसके स्वभाव से जानने का निर्णय कर सकता है। __ अल्पज्ञता के समय इन्द्रियाँ, मन आदि निमित्त हैं और सर्वज्ञदशा के समय इन्द्रियाँ, मन आदि निमित्त नहीं हैं; परन्तु अल्पज्ञदशा में इन्द्रियाँ, मन निमित्त हैं; अतः उनके द्वारा जानता है, यह बात दूषित है। कोई भी जीव स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श नहीं करता, कान से नहीं सुनता और मन से विचार नहीं करता; परन्तु जानने का कार्य आत्मा स्वयं से करता है। इन्द्रियों और मन द्वारा ज्ञान हुआ' यह संयोग बताने के लिये व्यवहारनय से कथन किया है, व्यवहारनय का ऐसा अर्थ समझना और संयोग बिना ही आत्मा ज्ञान करता है, ऐसा निश्चयनय का

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