Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 35
________________ अलिंगग्रहण प्रवचन ___ इसप्रकार आत्मा के स्वसंवेदनज्ञान को विस्तृत करके निर्णय करे कि पंचपरमेष्ठियों में पूर्ण सर्वज्ञ कैसे होते हैं और अपूर्ण ज्ञानी कैसे होते हैं तो उसका निर्णय सच्चा है और उस ज्ञान में पंचपरमेष्ठी ज्ञात होते हैं । मिथ्यादृष्टि के स्वसंवेदन रहित मात्र अनुमानज्ञान में पंचपरमेष्ठियों की आत्माएं ज्ञात नहीं होतीं। अतः मात्र अनुमानज्ञान को लिंगरूप से कहकर उसं लिंग से अन्य आत्माओं का ग्रहण नहीं हो सकतो (ज्ञान नहीं हो सकता) ऐसा अलिंगग्रहण का अर्थ, हे शिष्य! तू जान। स्वसंवेदन रहित मात्र अनुमान प्रमाणज्ञान नहीं है बल्कि मिथ्याज्ञान है। १. प्रत्येक पदार्थ की वर्तमान पर्याय में अपनी योग्यता के कारण कार्य होता है, तब अन्य संयोगी वस्तु को निमित्त कहते हैं। उपादान में कार्य नहीं हो तो अन्य वस्तु को निमित्त भी नहीं कहते हैं । अर्थात् उपादान में कार्य हुए बिना अन्य संयोगी वस्तु में निमित्तपने का आरोप ही नहीं आता है। २. जीव अपने शुद्धस्वभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निश्चय पर्याय प्रगट करे तो देव-शास्त्र-गुरु के प्रति होनेवाले शुभराग को व्यवहार का आरोप दिया जाता है। अपने में निश्चय निर्मल पर्याय प्रगट न करे तो पूर्व के राग को व्यवहार नाम भी नहीं दे सकते हैं अर्थात् निश्चय बिना मात्र व्यवहार होता ही नहीं है। इस न्याय से ३. जीव अपने शुद्ध स्वभाव के आश्रय से स्वसंवेदन ज्ञान प्रगट करे तो उस स्वसंवेदन सहित के अनुमानज्ञान को अनुमानज्ञान प्रमाण कहते हैं । अपने में स्वसंवेदन ज्ञान प्रगट न करे तो मात्र अनुमान ज्ञान प्रमाण नहीं कहलाता है; बल्कि वह मिथ्याज्ञान कहलाता है। भाव नमस्कार का स्वरूप और उसका फल ___ पंचपरमेष्ठी का आत्मा तेरे मात्र अनुमानज्ञान से ज्ञात नहीं होता है, इसप्रकार तू जान। तुझे पंचपरमेष्ठी को जानना हो और उन्हें भाव नमस्कार करना हो तो जिसप्रकार मुनि सम्यक्श्रद्धा ज्ञानपूर्वक स्थिरता में आगे बढ़ रहे हैं और अरहंत,

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