Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 56
________________ दसवाँ बोल ४७ परन्तु भाई ! उसमें क्या नष्ट हुआ? अनुकूल संयोग तथा लक्ष्मी थी तो मेरी प्रतिष्ठा थी और प्रतिकूलता होने से मेरी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई यह तो तूने सभी कल्पना नवीन उत्पन्न की है। ज्ञानपर्याय प्रतिकूल संयोग से नष्ट हो जाये, ऐसा उसका स्वभाव ही नहीं है। - तथा कोई जीव ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर क्रमश: वह एकेंद्रिय में जाये तो उस जीव के ज्ञान- उपयोग को उपयोग ही नहीं कहा जाता । जो उपयोग आत्मा में जाता है, उसे ही उपयोग कहते हैं। जो पर में अथवा राग में रहता है, उसे उपयोग ही नहीं कहा है । पर से घात नहीं हो और स्व से च्युत नहीं हो, परन्तु स्व में एकाकार रहता है, यही उपयोग का स्वभाव है। इस नववें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ-नहीं, लिंग= उपयोग, ग्रहण पर से हरण होना अर्थात् उपयोग पर के द्वारा हरण नहीं किया जा सकता है। इसप्रकार आत्मा का ज्ञान हरण नहीं किया जा सकता है, ऐसा उपयोग का स्वरूप है। उपयोग भी एक ज्ञेय है । तेरे उपयोगपर्यायरूपी - ज्ञेय को हे शिष्य ! तू ऐसा जान । दसवाँ बोल न लिंगादुपयोगाख्यलक्षणाद्ग्रहणं पौद्गलिक कर्मादान यस्येति शुद्धोपयोगस्वभावस्य। अर्थ :- जिसे लिंग में अर्थात् उपयोगनामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भाँति उपराग (मलिनता, विकार) नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। द्रव्य, गुण तो अनादि-अनंत शुद्ध हैं; परन्तु उपयोग में भी मलिनता नहीं है, ऐसा इस बोल में कहा है । चन्द्र कलंकित कहलाता है; परन्तु सूर्य में कोई धब्बा नहीं है। जिसप्रकार सूर्य में किसी भी प्रकार की मलिनता नहीं है, उसी प्रकार उपयोग भी सूर्य की भांति कलंकरहित है ।

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