Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 348
________________ २६१ २६. भावशल्यानालोचनदोषाधिकारे ऋषिदत्ताख्यानकम् धम्मामयतित्तमणा दूरं परिचत्तविसमविसयतिसा । वज्जियपरिणयणकहा चिट्ठइ सा धम्मगयबुद्धी ॥५२५॥ अवरा वि तत्थ एगा संगा नामेण साविया अस्थि । दारिद्दभरकता निवखंता साहुणिसयासे ||५२६॥ सा कुणइ तवं उम्गं वयमाहप्पेण पूयए लोगो । रायसुया वि हु तप्पइ किंपि तवं अंबिलाईयं ॥५२७॥ नवरं न कोवि बन्नं कुणइ गिहत्थ त्ति काउमेईए । तत्तो सा निवधूया मच्छरमुबहइ संगाए ॥५२८|| भणइ य एसा वइणी रयणीए बलेण खाइ मडयाणि । ताहे सवो वि जणो पत्तिन्तो रायधूयाए ॥५२९।। सा वि हु सकयफलमिमं ति सम्ममहियासए विवेयवसा । तीए तं पुण कम्मं बद्धमभक्खाणसंजणियं ।।५३०॥ भमिऊणं संसारे दुहपउरे एत्थ चेव गंगउरे । जाया नरिंदतणया पत्तो जिणदेसिओ धम्मो ॥५३१॥ गहिऊणं पव्वज्जं तवोविहाणं समायमायरइ । तो मायाणुट्टाणं अभक्खाणं च संगाए ॥५३२॥ मुगुरुणमणालोइय नरिंदधूया तहेव य ससल्ला । मरिऊणमग्गमहिसी ईसाणिंदम्स संजाया ॥५३३॥ तत्तो चविडं जाया तुममेसा इहभवम्मि रिसिदत्ता । इय मुणिउं नियचरियं जाईसरणेण संबुद्धा ॥५३४॥ चलणेसु निवडिऊणं गुरुणो संजायगरुयसंवेगा । भणइ गुरुं भयवमिमं सव्वं सच्चं भणह तुठभे ॥५३५।। रायाई सयलजणो विम्हइओ नियुणिऊण गुरुभणियं । रिसिदत्ताए चरियं जाओ दुच्चरियभयभीओ ॥५३६।। कणगरहो विय राया रज्जे अभिसिंचिऊण सीहरहं । महया विच्छड्डणं कारविय जिणिंदपूयाओ ||५३७॥ सिबियाए समारूढो कुणमाणो सासणुन्नई परमं । सकलत्तो निक्खंतो विहिणा गुरुपायमूलम्मि ॥५३८|| अन्भसियदुविहसिक्खो तवसा संखवियघाइकम्मंसो । उप्पन्नविमलनाणो वियाणियासेसनायवो ॥५३९|| केवलिपरियायं पालिऊण पडिबाहिऊण भवियजणं । सासयसोक्खे मोक्खे संपत्तो सह कलत्तेण ॥५४०॥ ॥ऋषिदत्ताऽऽख्यानकं समाप्तम् ॥११॥ इदानीं मक्षिकामलाख्यानकमाख्यायते । तश्चेदम् उज्जेणीनयरीए जियसत्तुनराहिवस्स रचम्मि । नामेणं मल्लमरकट्टणो अट्टणो मल्लो ॥१॥ सो उण समुद्दतीरे गेन्हइ सोपारयम्मि नयरम्मि । गंतूण जयवडायं सीहगिरिनिवस्स रज्जम्मि ॥२॥ चिंतियमिमिणा रजंतराउ आगम्म मज्झ मल्लमहे । घेत्तूण जयवडायं जाइ इमो परिभवो मज्झ ॥३॥ तो अहमिहि मल्लं महाबलं चिंतयामि नियरज्जे । एवं जा गविसावद ता पेच्छइ पुरिसमेगं सो ॥४॥ उचियसाणियमंस वियडकडि पिहुलवच्छयलभायं । पोण-समुन्नयखंधं करिसुंडायारभुयदंडं ॥५॥ महु-मंसभक्खणरयं सुराए मत्तं सरेहि विझंतं । लगते वि हु न मुणइ बाणपहारे मयवसेणं ॥६॥ भणइ य कुओ वि लग्गंति मच्छियाओ सतिक्खतुंडाओ। तो सो रण्णा ठविओ मच्छियमल्लो निए रज्जे ॥७॥ अन्नम्मि महे जाए मच्छियमल्लेण अट्टणा जित्तो । तेणावि चिंतियमहं जित्तो वुढ तणेणिमिणा ॥८॥ एसो पढमवयत्थो अयं तु जराए चउविहबलेणं। अक्कमिओ सञ्चत्तो पराभिभूओ जओ भणियं ॥९॥ सयणपराभव-मुन्नत-वाउ-सिभाइयं जरासेन्नं । गरुयाणं पिहुबलमाण-खंडणं कुणइ वुड्डत्त ॥१०॥ तो तेण तरुणमल्लं सुरदृचिसए निरूवयंतेण । दूरुल्लकृवियाए सच्चविओ हालिओ एगो ॥११॥ एगेण वाहइ हलं करेण फलहीउ लुणइ अवरेणं । तं दट्टणं तुट्टो एसो मह वंछियं काही ॥१२॥ जं बलमाहाराओ तेण परिक्खामि भोयणमिमम्स । एत्थंतरम्मि भज्जा भत्तं गहिऊण संपत्ता ।।१३।। कूरस्स भरिय पिडयं कुइयं कुसणस्म सव्वमवि भुत्तं । भुत्तस्स वि परिणामं जा जोयइ ता तयं पि सुहं ॥१४॥ तो भणियं किं खिजसि ? आगच्छ करमि ईसरं जेण । पडिवन्ने भज्जाए निम्बाहं चिंतिउं नीओ ॥१५॥ काऊण कायमृद्धि आहाराई हिं पोसिओ चिहिणा । सिक्खविओ य निजद्धं कयकरणो जाव संपत्तो ॥१६॥ मल्लमहे संजाए मच्छियमल्लेण जोहिओ तेण । पढमे दिणम्मि न जओ पराजओ न वि य मल्लाणं ॥१७॥ बीयम्मि दिणे फलहियमल्लो दुक्खंतयं सरीरम्मि । पुट्ठो य अट्टणेणं तेण वि कहियं जहावत्तं ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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