Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 415
________________ ३२८ आख्यानकमणिकोशे तम्मि य धमिजमाणे अम्गी पविसेइ गोलयम्संतो । निग्गमपवेसबिहियं न किं पि दीसह तहिं छिदं ॥४५॥ मुत्तेसु वि संख-सराइएमु जइ एवमत्थि नरनाह ! । ताव अमुत्ते जीवे सद्दहियव्वं विसेसेणं ॥४६॥ पुणरवि भणियं रन्ना भयवं! एगम्स तक्करस्स मए । खंडीकयं सरीरं तिलोत्तं न य कहिं पि तहिं ॥४७॥ दिट्ठो जीवो ता कहमेसो अस्थि त्ति सद्दहेयव्यं ? । सूरीहुत्तं रायं ! ससिकंतमणिम्मि बहुसो वि ॥४८|| फोडिज्जंतम्मि जलं अरणियकट्टाइएमु तह अग्गी । नो उवलब्भइ अह चंदकिरणजोगाइसामग्गी ॥४६॥ तेसिं भावं जणयइ ससिकताईमु एवमिहई पि । अह भणियं नरवइणा भयवं ! अवरो मए चोरो ॥५०॥ जीवंतो तोले गलमावलिऊण मरिडं पच्छा । पुणरवि य तोलिओ न य निभालिओ तो वि चोरम्स ॥५१॥ तुल्ल जणिओ विसेसो ता कहमत्थि ति सद्दहेयवो ? | गुरुणा भणियं नरवर ! केण वि गोवालपुत्तेण ॥५२॥ वायंडयं परिपूरिय पचणम्स स तालिओ पुणो रित्तो। विहिऊण तोलिओन उण पवणजणिओ तहिं दिट्टो ॥५२॥ कोइ विसेसो अह पुव्वमेस पञ्चक्खमेवमुबलद्धो । मुत्तेमु ताव एवं भणियव्वं अमुत्तेमुं ? ॥५४॥ तम्हा उ असाहारणचेयन्नगुणोवलंभभावाओ । तुम्हाण वि..... 'देसेणऽप्पा हु पच्चक्खो ? ॥५५॥ इच्चा इमोहविद्धंसनिउणजिणसमयवयणमंतेहिं । तह कह विउंजिओ सो मिच्छत्तविसेण जह मुक्को ॥५५।। जंपइ य तओ तुम्भेहिं जं समाइट्टमवितहं भयवं !। किंतु कमागयनस्थियवाइत्तं परिचयामि कहं ? ॥५६॥ सूरीहिं तओ भणियं एयं पि अकारणं महाराय ! | कमपत्तं रोग-दरिद्दमाइयं किं न मोत्तव्वं ? ||५|| जायइ पच्छायावो उ अन्नहा लोहमारवाहस्स । पुरिसम्स व को एसो ? रन्ना भणिए भणइ सूरी ॥५८|| दविणोवजणकज्जे चउरो पुरिसा विणिग्गया केइ । तत्तो कम्मि पएसे दिट्ठो लोहागरो तेहिं ॥१९॥ जावयमेत्तं वहिउ तरंति लोहं सउत्तमंगेण । घेत्तु तावयमेत्त संवलिया कह वि अह पुरओ ॥६०॥ . रुप्पागरम्मि दिटे लोहं चइऊण ते जणे तिन्नि । गिन्हंति रुप्पमेगो परिहरइ न कह वि तं लोहं ॥६॥ अन्नेहिं भणिज्जंतो वि भणइ तुम्भेऽणवट्टिया दूरं अयं तु पुणो एयं चिरपरिखूढं न हु चएमि ॥२॥ अम्गे गच्छंतेहिं निहालिओ कणयआगरो रुप्पं । परिहरि ते तिन्नि वि लिंति सुवन्नं जहिच्छाए ॥६३॥ इयरो वि तेहिं भणिओ लोहं मोत्तण गिन्ह कणयमिणं । उवहसइ अहो! तुम्भे निच्छयरहिया य पडिवन्ने ॥६॥ पुरओ संचलिएहिं संपत्तो रयणआगरो तेहिं । तत्तो समुझिऊणं कणयं गिन्हति रयणाई॥६५॥ वुत्तो य लोहवाही अन्नेहिं भणसि जं न कहियं मे । एत्तियगए वि गिन्हमु लोहं मोत्तण रयणाणि ॥६६॥ दारिद्दभरक्कंतो इहरा सोइहिसि मूढ ! तं बहुयं । एवं भणिजमाणो नवरमुबह सइ सो अन्ने ॥६७|| संपत्ता नियदेसे कइय वि रयणाणि विकिऊण तओ। विलसति जहिच्छाए नियभवणे पिययमासहिया ॥६८॥ लोहभरवाहओ वि य तेसिं पासित्तु लच्छिविच्छड्डु । पच्छायावदवेणं पइदिवसं डज्झए हियए ॥६॥ इय लोहभारवाहयपुरिससमं चयसु नियमभिप्पायं । नाणाईरयणाई गेन्हमु सिवसोक्खहेऊणि ||७०॥ इय जंपिओ य गुरुणा संवेगपरायणो महीनाहो । पाएमु निवडिऊण एवं भणि समाढत्ता ||७१॥ तुमेहि समुद्धरिओ कारुन्नपरेहिं निवडिओ अयं । अन्नाण-दुहसमुद्दे सुदेसणाजाणवत्तेणं ॥७३॥ सोऊणं नरनाहो दुविहं धिम्म पि भावियमणो सो । गिहिधम्म पडिवज्जइ सम्मं बारसविहं तत्तो ॥७३॥ गच्छंतेहिं दिणेहिं रन्नो तह कह वि परिणओ धम्मो । जह खोभिन सक्का सक्काईया सुरा वि तयं ॥७४॥ संवेयभावियमणो पडिवजह पोसहं अहऽन्नदिणे । कामाउरा विचितइ रविकंता नियमणे एवं ॥७५॥ अंगीकयजिएधम्मो जप्पभिइचव एस संजाओ। अच्छंतु ताव परिहासगभिणा संगमारंभा ॥७६॥ आलवणं पि हु तप्पभिइ चेव न कयं मए समं इमिणा । ता मारिऊणमेयं रज्जे पुत्तं निवेसेउ ॥७७|| विलसामि जहिच्छाए इय चिंतिय दुवुद्धिसहियाए । पोसहपारणयदिणे दिन्नं हालाहलं रन्नो ॥७॥ १. दीयडयं रं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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