Book Title: Agam Sagar Kosh Part 02
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम-सागर-कोषः (भागः-२)
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प्रश्न.८०
गेज्ज- गदयं-यत्र स्वरसञ्चारेण गदयं गीयते। जम्बू. गूढगब्भा- गूढगर्भा। आव. २१२१
३९ गूढदंत-जंबुद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिष्यति उत्सर्पिण्यां गेण्हितुं- गृहीत्वा। आव० ८२७। तृतीय-श्चक्रवर्ती। सम० १५४| गूढदन्तः
गेद्धावरंखी-भोयणकाले परिवेसणाए इतो बाहिति भणितो अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य
ताहे गेखो इव रिखंतो भायणं उड्डेति। निशी० १०१ अ। चतुर्थमध्ययनम्। अनुत्त०२ अन्तरद्वीपवि-शेषः। गेधी-सदोसुवलद्धेवि अविरमो गेधी। निशी. ७१। जीवा० १४४
गेयं-गन्धव्यो रीत्या बद्धं गानयोग्यम्। जम्बू० २५९। गूढदंता- गूढदन्तनामा अन्तरद्वीपविशेषः। प्रज्ञा० ५० गीयत इति गेयं-तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं गूढदंतदीवे- अन्तरद्वीपविशेषः। स्था० २२६।
लयसमं च कव्वं। तु होइ गेयं पंचविहं गीयसन्नाए। गूढमुत्तोलिं- गूढगोणीं। तन्दु०।
दशवै०८७ स्था० ३९७) गूढसामत्थो- गूढसामर्थ्यः। आव० ६४९।
गेरुअ-गैरिका-धातुः। दशवै० १७०| गुढसिरागं- गूढशिराकं-अलक्ष्यमाणशिराविशेषम्। प्रज्ञा० गेरुआ-परिवायया। निशी. ९८ अ। ३७
गेरुक-मृत्तिकाभेदः। आचा० ३४२। गूढा- गूढा-बहिःसंवृत्तिमन्तः। उत्त० ५२६)
गेरुय- गौरिकः-मणिविशेषः। प्रज्ञा० २७। गेरुअःगूढावत्ते- गूढश्चासावावर्तश्चेति गूढावतः। स्था० २८८१ | मणिभेदः। उत्त०६८९। गूथं- वर्चः। ओघ० १२३
गेलन्न- ग्लानत्वम्। ओघ० ८९। ग्लान्य-ग्लानत्वम्। गूहग-विष्ठा। तन्दु।
स्था० ३१३ गृहणं-किंचिकहणं। दशवै० १२४। सति बलपरक्कमे | गेल्लि- हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव। अकरणं गृहणं। निशी. १८ अ। गूहनं-किञ्चित्कथनम्। भग. १८७ दशवै०२३३
गेविज्ज- ग्रैवेयकं-ग्रीवा बन्धनम्। प्रश्न. १९। ग्रैवेयं गृहे- गृहयेत्। दशवै० २३२॥
ग्रीवाभर-णविशेषः। जम्बू०१०५ ग्रीवात्राणं ग्रीवाभरणं गृहकोलिका- गृहगोधिका। दशवै. २३०
वा। जम्बू. २१९। ग्रेवेयकं-कण्ठलम्। औप० ५५ ग्रैवेयंगृहजातः-दासः। उत्त. २६५
ग्रीवाभरणम्। जीवा० २५९। गृहजामाता- गृहस्थाता हितपतिः। नन्दी. १६२ गेविज्जगा-ग्रैवेयकाः। प्रज्ञा०६९। गृहपतिः- माण्डलिको राजा। आव० १५६। गृहस्थः। आचा० | गेविज्जन- लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थाने भवानि ग्रैवेयकानि। ३२११
स्था. १७९ गृहपत्यवग्रहः-अवग्रहपञ्चके तृतीयो भेदः। आचा. १३४ | गेविज्जा- ग्रेवेया-देवावासास्तन्निवासिनो देवा अपि। माण्डलिकावग्रहः। आव. १५६।
उत्त०७०२। गृहिव्यापारः- गृहियोगः-प्रारम्भरूपः। दशवै० २३१| | गेवेज्ज- ग्रैवेयकं-ग्रीवाभरणम्। भग० १९३। लोकपुरुषस्य गृहस्थो-भिक्षां प्रयच्छन्ती गृहस्थी। ओघ० १६२ ग्रीवाविभागे भवानि विमानानि। अन्यो० ९२ गृहस्थोपसम्पत्-उपसम्पतौ प्रथमो भेदः। आव० २६७।। | गेहं- गृहम्। उत्त० ३२० यत्पुनरवस्थाननिमित्तं गृहिणामनुज्ञापनं सा
गेहसंठिया- गेहस्येव वास्तविदयोपनिबद्धस्य गहस्यैव गृहस्थविषया। बृह. २२२।।
संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा गेहसंस्थिता। सूर्यः ६९, गृहाचारः- गार्हस्थ्यं-आगारधर्मः। उत्त. ५७८1 गृहीतव्यः-निश्चेतव्यः। व्यव. २०५।
गेहागारा-गेहाकाराः भवनत्वेनोपकारिणः। सम०१८ गृहे- गृहलिंगे। व्यव० २७ आ।
गेहाकारा-नामद्रुमगणाः। जम्बू० १०६। स्था० ५१७। गेंदुए- गेन्दुकः-पुष्पलम्बूसकः। जम्बू० २७५) | गेहागारो- गेहाकारः द्रुमविशेषः। जीवा० २६९। गृहाकारः
७०
मुनि दीपरत्नसागरजी रचित
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"आगम-सागर-कोषः" [२]

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