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तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय
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जीवों की जाने अगति, जाने गति भी साथ। नहिं छेदन हो लोक में, शिवसुख साधक हाथ।।५।। उतना लेना अशन त, जितना तन निर्वाह। केवल संयम के लिए, रखना यही निगाह ।।६।। दिव्य क्षुद्र जो वस्तु हो, राग करो नहीं द्वेष। प्राप्त करो वैराग्य शुभ, जन्म-मरण-भय देख।।७।। शुद्ध साधना होइ यदि, अल्प समय दरम्यान । कर्मों का क्षय शीघ्र हो, मिलता मोक्ष महान्।।८।।
.चतुर्थ गति-चिन्तन. मूलसूत्रम्
अवरेण पुट्विं ण सरंति एगे, किमस्स तीयं किं वाऽऽगमिस्सं।
भासंति एगे इह माणवाओ, जमस्स तीयं तमाऽऽगमिस्सं।। पद्यमय भावानुवाद
भावी कभी न सोचना, याद न करो अतीत । वर्तमान ही देखना, तभी होयगी जीत ।।१।। भूत-भविष्यत् पाट दो, पिसते इनमें मूढ़। 'सुशील' संयम में रमण, यही साधना गूढ़।।२।। होइ दुर्दशा जीव की, कभी न किया विचार। यह कारण है भव-भ्रमण, चारों गति संसार ।।३।। तीन लिंग थे पूर्व में, भावी भव हो देव। बाल जीव चिन्तन यही, कर न विषय की सेव।।४।।
•शत्रु-मित्र विवेक. मूलसूत्रम्का अरई के आणंदे ? इत्थं वि अग्गहे चरे, सव्वं हासं परिच्चज्ज
आलीण गुत्तो परिव्वए। पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया ___मित्तमिच्छसि ?।
मत्रम