Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 3
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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( १३०७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
चेयबंद
लिंगो वपयं ।
राया उदायणो वि हु, उज्जेणिपुरं कमा पत्तो ॥ ५१ ॥ तत्थ उदायणरन्नो, अवंतिनादस्स दूयवयणेण । अचिरा परपरेणं, रहसंगरसंगरो जाश्रो ॥ ५२ ॥ सरपपरोरमा उदायो पत्तो गुणकारमुदारं कुणमाणो समरभूमी ॥। ५३ ।। नारायणं नियं नलागेर भिष पतो रवि पज्जोश्रो पुण, बलवंते का न पन्ना ? ॥ ५४ ॥ नलगिरिगयमारूढं तं मुदायको भरो पाव मोहि होस रे !xx इय जणिय मंगलीप, रपण नीओ रहं नियो भमामंतो । निसियस विचरीकरणलाई ५६ ।। सोही पडओ उदायपोओ। मम दासीदासो, चि अंको कोचि ॥ ५७ ॥ गंतुं तत्र विदिसाए, श्रत्थि य देवादिदेवपडिमं जा । उप्पामर नरनाहो, ता भण सुरो अहो ! ॥ ५८ ॥ भूव मानेसु यो पमिमं वीयभए पंसुवद्दवो होही । तो राया सविताओ, नमिव तवं पुरममिचलियो ॥ ५३ ॥ बुसिन खलि सिरिं निहित या काऊण धूलिवप्पे, दस वि निवा तस्स रक्खा ॥ ६० ॥ अपणादिवसे वाउहाणे सूषो पत्थर पज्जोयनिवं, का तुइ कारी उ रसवइति ॥ ६१ ॥ सो चिंतनू मारिकामी विसाणा तो जंपेर सूर्य किरद्द, क्रिमज मे विसू य श्राहारो ? ॥ ६ ॥ सूश्रो जंपर साभी न उ सपरियरो य भत्तही । जं श्रज पज्जुसवा, तो तुह साहेमि आहारं ॥ ६३ ॥ सो श्राह साह तुमए. जेण मिणं मध्न सारियं सूर्य ! | अज्जुववासो मज्ऊ वि, जं पियरो मह परमलको ॥ ६४ ॥ तं सूत्र साइइ गं तुदायले सो वि जणइ जाणस्मि । से समुत्तं जाण, धुत्तो पुण बसगं काउं ॥ ६५ ॥ काराइ वीर एम्मि जारिसे तारिले वि न हु सुद्धा । मह दो पज्जुलवणा, इय तं मुंचे नरनाहो ॥ ६६ ॥ दाउ अवंतिदेवं स महत्या कुणइ तेण खामणयं । दासंफगोवराहा, वियर कणगपहुंच ६७ ॥ तप्पभि पट्टबका, निवा पुरा असि ममबद्ध त्ति । वित्ते वरिसारते, उदायणो नियपुरं पत्तो ॥ ६८ ॥ जे लाजत्थी वणिया, समागया तत्थ ववहरणहडें । तोहें चित्र वसमाणं तं खायं दसपुरं नयरं ॥ ६६ ॥ इय मह निव्वाणं, निसाऍ गोयम ! पाल्लइ नित्रो अवंतीए । होहि पाकलिप सो, असु उदार्शनिवमरणे ॥ ७० ॥ पाल र सट्टिएण पणसयं नवएट् नंदाणं । नव मोरियऽसयं स सवरिस समित्तस्स ॥ ७१ ॥ यलमनमामिता साहस चालीसा। लेर निव गमिले, कल्लिकालऍ उणियसगे चनरो ॥ ७२ ॥ सुन्नमुणिवेयजुत्ता, जिएकाला विक्कमो वरिससठी | धम्माइच्चां चत्ता, नाइल सगबीसनाहडे अठ ॥ ७३ ॥ तह षि कुमार ति समावरि दस मित्त अंधो, हेययबंसी असीनेओ ॥ ७४ ॥ श्रह जिणपमिमं जाइल-नियो निसाए कयाइ पूतो ।
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चेयवंदगा
यदि आप असुरे, हु निम्गओ कुडवर साह || ७५ ॥ घर पर या हुमिह पसं होही एवं ति परं, मिच्छत्तं गच्छिही तिव्वं ॥ ७६ ॥ जं श्रद्धया तुमं, पूयाइ विणग्गउत्ति वुत्तु सुरा । ति गया अह रद्द, निबो बहुं डुड्डु बिहियं मे ॥ ७७ ॥ भाइलसामी तु तओ, पसिरूमज्ञ वि समत्थि अवंती | जियपदिमुत्पत्ति पर न्नगान सेसं तु नायव्यं ॥७८॥ रहमसिद्धि दर
भणियं जवियदिया, तिदिसिं श्राणा पुण पगयं ॥ ७ ॥ गान्धारेयथावकश्वेनं पू चितन्निमित्त।
नित्यं जज्याः ! नव्यभावेन देवान, वन्दध्वं नो दियेकोज्जनेन " ॥ ८० ॥
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इति त्रिदिग्निरीक्षणवर्जने गन्धारश्रावक संबन्धः । खङ्घा० १५०१ भावितं " तिदिसि निरिक्खणविरह" त्ति षष्ठं त्रिकम् । सप्तमस्य तु विकस्य पयभूमिपमा यतितो" इत्यस्येयं ना चना-सर्वमपि धर्मानुष्ठानं दयाप्रधानमेव क्रियमाणं सफलत धत्ते । श्राह च पवितं श्रुतं च शास्त्रं, गुरुपरिचरणं च गुरु तपश्चरणम् । घनगर्जितमिव विजलं, विफलं सकलं दयावि कलम् " ॥ १ ॥ इति । तथा-" जयणा व धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणं। चेय । तह बुढिकरी जयरणा, एगंतसुदावहा जयणा ॥ १ ॥ इति । सङ्घा० १ प्रस्ता० ।
से जयवं ! केलं द्वेणं एवं बुच्चइ, जहा णं पंचमंगलं महासुखंघम हिज्जित्ता णं पुणो इरियात्राहियं अहीए ? | गोयमा ! जो एस आयासेणं जया गमागमलाई परिनामपरिणए प्रयोगजीवपाणभूषमत्ताणं अवतर जसे संपवणं किलामा प्रणालय पभियंते चेव असेसकम्पक्खयद्वाए किंचि विश्वंदासज्झायज्जारणाइएसु अभिरमेज्जा, तया से एगग्गचित्ता समादी हवेला न वा जम्रो णं गमयागमलाइ प्रयोगन्नवावार परिणामासत्तचिनयाए के पाणी तमेव भवांत रमच्छड्डिय हट्टऽज्जवसिए कंचि कालं खणं विरतेज्जा, ताहे तं तस्स फलेणं विसंवएज्जा, जया पुण कहिं वि अन्ना मोहपमायदो सेणं सहसा एगिंदियाईणं संघट्टणं परितावणं वा कयं हवेज्जा, तया य पच्छा हा हा हा उ कयमम्हेहिं ति य घणरागदोसमोहमिच्छत्त श्रन्नाशंधेहिं अदि पर लोग कूरकम्पा निम्पिशोऽहं ति परमसंवेगमापन्ने सुपरिफुमं आलोएत्ता णं निंदिता गरिहित्ताणं पायच्चित्तमणुचरिता णं निसल्ले अणाउलचिले असुकम्बलपट्टा किंचि आवहियं चेश्वंदाई डिज्जा, तया तयचे चेत्र वनत्ते से हवेज्जा, तया वसणं परमेगगचितसाही हवेजा, तया व सव्वजगजी वषाय जूयसत्ताणं श्रदिफलसंपत्ती नवेजा, ना गोषमा ! णं अपमिकताएं इस्यावहिचाए न
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