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चरैवेति चरैवेति यो माकार प्रतिमा काल में वे पुस्तकले सन और अध्ययन करते हैं। सूर्यास्त से पूर्व हो रात्रि का भोजन ग्रहण करने के अनन्तर प्रतिक्रमण और प्रार्थना का कार्यक्रम रहता है । एक घण्टे तक पुन' स्वाध्याय अथवा ज्ञान-गोष्ठी के बाद प्राचार्यश्री शय्या पर कर लेते हैं। उनका यह कार्यक्रम परी की सुई की तरह चलता है और उसमे पभी पायात नहीं होता। जब तक किसी व्यक्ति में शम मौर वह भी परार्थ के लिए श्रम करने की हार्दिक भावना न हो, तब तक उक्त प्रकार का यन्त्रबन् जीरन असम्भव है।
प्राचार्यधी के धर्म का दूसरा रूप है-जन-वस्याग । वैसे तो जो ज्ञानार्जन पौर जान-दान वे करते हैं, वह सब ही जन कल्याण के उद्देश्य से है; किन्तु मानव को अपने हिरण्यमय पार में बांधने वाले पापो से मुक्ति के लिए उन्होंने जो देशव्यापी यात्रारती हैं और अपने सिप्पो से कराई हैं, उनका जन-कल्याण के क्षेत्र में एक विशिष्ट महत्व है। इन पात्रापों से प्रात्र से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान् बुर के शिप्यों द्वारा की गई व यात्राएँ स्मरण हो पाती है, जो उन्होंने मानवमार कल्याण के लिए की थी। जिस प्रकार भगवान् बन ने गयाबारम्भ से पूर्व भरने माठ पियों को पक्सोल का सन्देश प्रसारित करने का माहेश दिया था. ठीक उसी प्रकार पाचार्यश्री तुलसीने मात्र में बारह वर्ष प्र प्ररने छ गो पाम सियो को सम्बोधित करते हुए कहा पा.--"माधुप्रो पौर सास्त्रियो ! तुम्हारे जीवन प्रारम-मुक्ति मोर जन-वल्याण के लिए मस्ति है । समोर पोर मुगर स्थित गांधों, कस्तो पौर शहरों को दिल नामो । जनता मेनतिक पनपान का सन्देश पपापो।" मेरापय का जो प्यावहारिक म्प है, उनके तीन पग है-(१) परिध एवं साधतापूर्ण पारण. (२) भ्रष्टाचार से मुक्त व्यवहार और {३) सत्य में निया एव हिमक प्राप्ति। प्राचार्यश्री तुलना ने अपने शिष्यों को जो मादेश दिया था, उममा राप के इसी काना -नान के जीवन में प्रयद्वारणा भी। भगवत पर प्रपतन
यांसम भारतीय समाज को जो दया है. यह निमोगेसिनही है। प्राचीन मानिसान निवाच मोहिम निरा है। मंस होने के स्थान पर मलमपा वहिमम हो गया है। बिसायिवा सपन पर