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आचार्यश्री तुलसी
[ विद्वानों, विचारकों व जन-नेतामों की दृष्टि में ,
भाग
मामका
अणुव्रत परामर्शक मुनिश्री नगराजजी
सम्पादक मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम'
१९६४ . आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली-६
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ACHARYA SHRI TULSI Eet by Mani Shri Mahendra Kumarji •Pratham
Rs. 200
[माहित्य निकेतन, ४.१३, नयादागर, दिल्ली के सौजन्य से]
रामनार पुरी, मयाला आत्मारान एन्ड संस भारमौरी पेट, रिल्लीरामन होराम, मरिनी पाई होर :, बानपार बारापा, मार ngnोमर तितासावरग, पनीर सामपनर
प्रकार TRAILER
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भूमिका
प्रस्तुत पुस्तक केवल प्रशस्ति-संग्रह हो नहीं है, यह विचार रत्नों की मंजूषा भी है। वर्तमान में साहित्य की नाना धाराएं विकसित हुई हैं। उनमें परमोपयोगी धारा चिन्तन-प्रधान साहित्य की है। शोध की धारा भतीत का रूप हमारे सामने लाती है, पर मनुष्य तो मात्र अपने वर्तमान को बनाने में ध्यन है । माज का मनुष्य स्वयं स्रष्टा है । वह इतिहास पढने की अपेक्षा इतिहास गढ़ने में अधिक विश्वास रखता है। भाज जो प्रशासन-सूत्र भोर भयं व्यवस्थाएँ बदों और बदली जा रही हैं, वे किसी प्राचीन दर्शन या इतिहास के प्राधार र नहीं, वे मनुष्य के वर्तमान चिन्तन और वर्तमान विवेक के भाघार पर बदली
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पौर बदलो जा रही है । प्रस्तुत पुस्तक में जीवन और समाज की गम्भीर शस्याएं तत्र यत्र ही नहीं, सर्वत्र सुलभ हैं ।
हजार हो जाएं,
रुपया है,
प्रश्न होता है, दुःख मानसिक है या परिस्थितिजन्य ? परिस्थिति दु.ख की नमित है, पर स्रष्टा नहीं । मनुष्य का मनोबल दुःख को सुख में भी बदल [कता है । सामान्यतया माना जाता है, धमीरी सुख का कारण है, गरीबी दुख कारण है। विचारणीय यह है कि वास्तव में गरीब कौन है ? एक व्यक्ति के पास दस हजार रुपए हैं। वह चाहता है कि बीस माराम से जिन्दगी कट जाए। दूसरे के पास एक लाख आशा है कि एक करोड़ हो जायें तो शान्ति से जीवन बोते एक करोड रुपया है, वह भी चाहता है, दस करोड़ हो जाएं तो देश वा बा उद्योगपति बन जाऊँ । पब देखना यह है कि गरीब कौन है ? पहले व्यक्ति को इस हजार की गरीबी है, दूसरे की निन्यानवे लाख की और तीसरे भी नो करोड़ो मनौवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो वास्तव में तीसरा हो कि गरीब है; क्योंकि पहले की वृत्तियाँ जहाँ दम हजार के लिए, दूसरे निन्यानवे लाख के लिए तड़पती है, यहाँ तीसरे को नौ बरोड के लिए।
वह भी के पास
। तीसरे
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तात्पर्य यह है कि गरीबी का अन्त प्रसन्तोष है और सन्तोष ही भयं संख्या का सबसे बड़ा प्रभाव है । संग्रह के जिस बिन्दु पर मनुष्य सन्तोष को प्राप्त होता है, वहीं उसकी गरीबी का प्रश्त हो जाता है । यह बिन्दु यदि पाँच अथवा पाँच हजार पर भी लग गया, तो व्यक्ति सुखी हो जाता है। हमारे देश की प्राचीन परम्परा में तो वे ही व्यक्ति सुखी और समृद्ध माने गए हैं, जिन्होंने कुछ भी सग्रह न रखने में सन्तोष किया है। ऋषि महर्षि, साधु-सन्यासी गरीब नहीं बहलाते थे और न कभी प्रर्थाभाव का दुःख ही व्याप्त था ।""
विज्ञान का युग है । क्षेत्र की दूरी सिमिट रही है, काल की दूरी भी सोमिट रही है, पर मनुष्य, मनुष्य के बीच मनो की दूरी ज्यो की त्यो बनी ही पडी है। अब दूरी को भी सीमित करने का कोई मार्ग है या वह बनी ही हे ? "माज के युग में हम कगार पर खड़े हैं । अन्तरिक्ष युग है। धरती की गोलाई को लेकर सुदूर व्यतीत मे हत्याएं हुई हैं । उसी तथ्य को प्राज का मानव मखों से देख पाया है। इस प्रगति ने मानस को पट भूमि को भान्दो - लित भी किया है । दृष्टि को क्षमता बढी पर मानव का अन्तर मन अभी भी वही है। हिंसा मोर घृणा की बात विवादा| विवेक-बुद्धि भी जागृत हुई है । स्पद मानकर छोड़ भी दें, लेकिन साम्प्रदायिकता और जातीयता, धर्थलोलुपता और मात्सर्य - ये सब उसे भी पूरी तरह जकडे हुए हैं। धर्म, मत अथवा पंथ में न हो, राजनीति और साहित्य में हो, तो क्या उसका विष श्रमृत बन सकता है ? भले ही हम चन्द्रलोक में पहुँच जाएं अथवा शुक्र पर शासन करने लग । उस सफलता का क्या अर्थ होगा, यदि मनुष्य अपनी मनुष्यता से ही हाथ धो बैठे ? मनुष्यता सापेक्ष हो सकती है, परन्तु दूसरे के लिए करने की कामनायें, मर्थात् 'स्व' को गोण करना स्व को उठाना है ।" "
प्राधिक प्रगति वर्तमान समाज का एक प्रनुपेक्षणीय उद्घोष है । संयम प्रगति को सीमा रेखा है । नवोदित समाज में संयम और प्रगति का सहभस्तित्व एक प्रश्न चिह्न है । पर हम देखेंगे, इस प्रश्न चिह्न के सामने उत्तर भी अपना पूर्ण विराम लिये सड़ा है। "यह सच है कि दरिद्रता अच्छी चीज
वयं एक सम्धा भाग १. पृष्ठ १२-१४६ ० सेठ गोविन्ददास के पोषक, प्रचारक व उन्नायक, भा० १, पृष्ठ ४८०४१; लेखक श्री विष्णु प्रभाकर
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नहीं है और माधुनिक समाज को, एक निश्चित मात्राम लम्सलाम भौतिक मुख-सुविधा तो सबको मिले, ऐसा प्रबन्ध करना होता है। परन्तु सादगी का मर्थ दरिद्रता नहीं है पोर न जरूरतें बढ़ा देना प्रगति की निशानी है। हमे भौतिक और नैतिक कल्याण पोर विकास के बीच एक सतुलन उपस्थित करना होगा। यह ध्यान प्रतिदिन रखना होगा कि आर्थिक सयोजन में लक्ष्यो को पूरा करने के साथ-साथ नैतिक पुनरुत्थान के लिए भी अनकल परिस्थितियां निमित करने का काम भी करते रहना है । नहीं तो हम ऐसे मार्ग पर चल पड़ेंगे, जो हमारी संस्कृति और राष्ट्र की मात्मा के प्रतिकूल होगा।" ____पकिन प्रतीक होता है, विचार पूजा है । पररावत-भान्दोलन एक विचार ही नहीं, परिपूर्ण जीवन-दर्शन है। वह नाना विचारको के उर्वर चिन्तन से दिनप्रतिदिन समृद्ध बनता जा रहा है। प्रणवत-प्रायोजन की वेदिका पर बैठकर देवा के चिन्तकों, लेखकों व वक्तापो ने जन-जोवन की मनगिन समस्यामा पर विपार दिया है। उन विकीर्ण विचार कणों का क्तात्मक सयोजन मनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' कर रहे हैं । कुछ समय पूर्व प्रधान को भोर' दो भागो का सकलन-सपादन उन्होने किया था। इस दिशा में उनका यह तीसरा सालन
मणवत-मान्दोलन के इतिहास में मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' का रणग कुछ कम-अधिक वैसा ही सम्भा जा सकता है, जैसा कि पच शील के इतिहास में मिा महेन्द्र का । उनका रायं-क्षेत्र संका रहा है मौर इनका कार्य-क्षेत्र दिस्तो । वर्तमान पातुम मे भी, वे वहीं एकादश सतीष्यं माधु-साध्वियो के साय प्रणवत पार्यमो का दायित्वपूर्ण मचालन कर रहे हैं। मैं उनके सन् प्रयलों की सफलता चाहता हूँ। वि.सं. २०२० तनिक बला ३,
-मुनि नगराज बोधिस्थल, राजनगर
१. सरप-
निदोरन, भाग .
नारा
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सम्पादकीय
१ मार्च, १९६२ की बात है । गंगाशहर (बीकानेर) मे अणुव्रत-प्रान्दोलन. प्रवर्तक प्राचार्यश्री तुलसी के २५ वें पदारोहण वर्ष के उपलक्ष मे धवल समा. रोह मनाया गया। भारत के तत्कालीन उप-राष्ट्रपति और वर्तमान राष्ट्रपति डा. एस. राधाकृष्णन ने 'तुलसी प्रभिनन्दन ग्रन्थ' माचार्यवर को भेंट किया । विस्तृत प्राकार मे ७०८ पृष्ठों का यह अभिनन्दन ग्रन्थ राष्ट्रीय ख्याति के विद्वानों व विचारकों द्वारा सम्पादित था 1 सम्पादक मण्डल के सदस्य थे :
श्री जयप्रकाश नारायण मुनिश्री नगराजजी श्री नरहरि विष्णु गाडगिल श्री मैथिलीशरण गुप्त श्री के० एस० मुन्शी
श्री एन. केसिद्धान्त श्री हरिभाऊ उपाध्याय
श्री जैनेन्द्रकुमार यो मुकुट बिहारी वर्मा
श्री जबरमल भण्डारी श्री अक्षयकुमार जैन प्रबन्ध सम्पादक थे और श्री मोहनलाल कठौतिया व्यवस्थापक थे । जैसा संपादक मण्डल था, उतना ही उच्चस्तरीय ग्रन्थ बन पाया था । समग्र अन्य चार अध्यायों में बटा था।
प्रथम-श्रद्धा, संस्मरण, कृतित्व द्वितीय-जीवन-वृत्त तृतीय-परद्रत चतुर्य-दर्शन मोर परम्परा
अभिनन्दन पन्थ भारवान होने की स्थिति मे सीमित लोगों तक ही पहुँच पाया। अपेक्षित लगा, पृथक्-पृथक् प्रध्यायों का स्वतन्त्र उपयोग यदि किया जाए तो अन्य सामग्री बहजन-मोग्य बन सकती है । प्रस्तुत पुस्तक मुख्यतः अभिनन्दन अन्य के प्रथम मध्याय का प्राकलन है। विषयपरक अन्य उपयोगी सामग्री भी इसमें जोड़ दी गई है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, मभिनन्दन
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परक सामग्री को मपेसा में यह पूरा 'तुलमो अभिनन्दन गाय है। पाठक पाएंगे, इममें प्राचार्यश्री तुरसीको देश-विदेश के विद्वानों, विचारकों, अन-नेतामों व चिन्तकों को वागी में।
में वृता है, पादरणीय मुनिधी नगराबजी के प्रति, जिन्होंने मेरे निषेत पर मपनी कार्य-व्यस्तता में भी भूमिका लिखने का कष्ट उठाया। यो जयमान के सदों में "अभिनन्दन अन्य के संपादन को गालीनता का सारा श्रेय मुनिश्री नगराजजी को है।" प्रस्तुत पुस्तक जब कि उसी अन्य का रूपान्तर मात्र है तो मुनिधी महम ही उसकी शालीनता के योभाग हो जाते हैं । समम पार ममारोह के ये मुरू बिन्दु रहे हैं और प्रगणुव्रत परामर्शक उनको परिचारक स्वामि है।
-मुनि महेन्द्रकमार 'प्रथम'
शि.मं.२.२..कानिक सुपना मतमो पारिश मान, माजी मणी, हिम्मी
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अनुकम
.मानन्द
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। पाचार्यश्री तुपमा २ किस मही. स मरपा 1. पमिटायनि ४ एपमारे पापा नही ४. भारतीय S. REHIM पुणे पुणे अ. भास भारत पुराण C TIRN नगी . Rm १. RETRIE
श्री शिवाजी नाति भारे घी धीमनारायण 1.मोनीवापसम धी ...मा महविरिली
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आचार्यश्री तुलसी
डा० सम्पूर्णानन्द सम्पास, राजस्थान
मेरी अनुभूति
मणुक्त-भान्दोलन के प्रवर्तक प्राचार्यश्री तुलसी राजनीतिक सत्र से बहुत दूर है। किसी दल या पार्टी से सम्बन्ध नही रसते । सिी वाद के प्रचारक नहीं है, परन्तु प्रसिद्धि प्राप्त करने के इन मद मार्गों से दूर रहते हुए भी वे इस पाल के उन व्यक्तियों में हैं, जिनका न्यूनाधिक प्रभाव साखों मनुष्यों के जीवन पर पर है। जैन धर्म के सम्प्रदाय-विशेष के मधिटाता है, इसीलिए प्राचार्य पहलाते हैं। अपने मनुपापियों को जन-धर्म के मूल सिसान्तों ा मध्यापन पराते ही होगे, धमणो को अपने सम्प्रदाय विशेष के नियमादि को शिक्षा-दीपा
ले ही होंगे; परन्तु रिसी ने उनके या उनके अनुयापियों के मुंह से कोई ऐसी पाव नहीं सुनी जो दूमरों के चित्त को दुगने वाली हो।
भारतवर्ष की यह विशेषता रही है कि यहाँ के पार्मिक पर्यावरण की पर्म पर मारपा रखी जा सरती है और उसका उपदेश प्रिया पा सरता है। पापायंधी तुमसी एक दिन मेरे निवासस्थान पर रह चुरे है । मैं उनके प्रवचन मुन पा है। अपने सम्प्रदाय भागारों पालन तो करने ही है. गाहे प. रिचित होने के कारण ये माचार दूगरोपी विविध से लगते हो और वर्तमान पार के लिए (ए मनुपयुक्त भी प्रतीत होते हों; परन्तु उनके पापण मोर . धातपोत मे ऐगी कोई बात नहीं मिलेगी पो र माम्बिोपगिकर लगे । भारत सरोरिक्सामार मापारा। जरासना मोनोt दाना मन्सपो पारपरना परवारस्य होते हुए भी हम परिव और सागरे मामने सिर भगत है। हमारा तोर दियाम-पत्र म पातमा नसोपा पधा तपा-शिम रिप्रदेश, विन रिमो
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भाचार्यश्री दुर
समय, महापुरप का जन्म हो, वह जिस किसी नाम से पुकारा जाता हो, वो तपस्वी पुरुष सदैव प्रादर का पात्र होता है। इसलिए हम सभी मार तुलसी का प्रभिनन्दन करते हैं। उनके प्रवचनो से उस तस्व को महामार की मभि लापा रखते हैं जो धर्म का मार और सर्वस्व है तथा जो मनुष मा के लिए कल्याणकारी है।
भारतीय मरवृति ने पर्म को सदैव ऊँमा स्थान दिरा है । उसको परिभाषाएं ही उसकी व्यापरता को द्योतक हैं। करसाद ने कहा हैदानायससिदि स धर्म -- जिसमें इम लोक और परलोक में उनति हो कार परम पुस्पा की प्राप्ति हो वह धर्म है। मनु ने कहा-धारणार - समाज को जो धारण करना है, वह धर्म है। पाम बहते है-धमा रामाच, स धर्म: किन्न सेव्यते-पमं से पर्थ और काम दोनों बनते है, सिर पर कारोवन क्यों नहीं किया जाना' ग पार को मनाकर भारत मापने को, पता भारतीताको सोगा, न वह अपना हिसार सोमा और समार" हो गग कर गोगा। भौतिश्ता पीपह-दौड़
म RAT 1 में भौतिक वस्तुपो के fu जो पावर मी हा हा भारत भी उसमे गमलोपया है। भोनिदरसे शान होगा | मी, पनी मा के गायनिहोना 1 महीं है। परन्तु भा. इसमें पानी को नाकामTी
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पार एक दिन उस अपन घ हाया महना वा स मानत सtin भार सम्यता पोथी पर हरताल फेरनी होगी। लोभ की भाग सर्वग्राही होती है । व्यास ने कहा है :
नाच्छित्वा परमणि, नाकृत्वा कम दुष्करम् ।
नाहवा स्पघातीय प्राप्नोति महतीं प्रियम् ॥ बिना दूसरों के ममं का छेदन किये, विना दुष्कर कम क्येि. विना मत्स्यपाती की भांति हनन किये (जिस प्रकार धीवर अपने स्वार्थ के लिए निर्दयता । सकडो पालियो को मारता है) महती श्री प्राप्त नहीं हो सकती । लोभ के पशीभूत होकर मनुष्य और मनुष्यो का समूह प्रधा हो जाता है, उसके लिए कोई काम, कोई पाप, प्रकरणीय नहीं रह जाता। लोभ और लोभजन्य मानस उस समय पतन की पराकाष्ठा को पहुँच जाता है, जब मनुष्य अपनी परपीडन-प्रवृत्ति को परहितकारक प्रवृत्ति के रुप में देखने लगता है, किसी का दोपण-उत्सीड़न करते हुए यह समझने लगता है कि मैं उसका उपकार कर रहा हूँ। बहन दिनो की बात नहीं है, पूरोप वालों के साम्राज्य प्रायः सारे एशिया और मीरा पर फैले हए थे। उन देशों के निवासियों का सोपण हो रहा था, उनकी मानवता कचली जा रही थी, उनके पात्म-सम्मान का हनन हो रहा था, परन्तु यूरोपियन कहना था कि हम सोक्तंव्य का पालन कर रहे हैं, हमारे कन्धों पर हाट भैस बन (गोरे मनुष्य का बोझ) है. हमने अपने कार इन लोगों को फार उठाने का वापिस्व ले रखा है। धीरे-धीरे इनको सम्प बना रहे हैं। सम्यताको कसोटी भी पक-ययक होती है। ईसास हए, मैंने एक कहानी पत्री यो । भी तो कहानी ही, पर रोचक भी ची पोर पश्चिमी सम्पना पर कुछ प्राण गलती हुई भी। एकच पादरी मीरा को पिसी नर-मास-मसी जंगली जानियो के बीच काम कर रहे थे । छ दिन बाद सौटकर काम गये पौर एक गाजनिक सभा में उन्होने अपनी सफलता की पर्चा की। शिमी ने पूछा, "पर उन लोगो ने नर-मांस खाना छोड़ दिया है ।" उन्होंने कहा, "नहीं; सभी ऐमा सो नहीं पा, परब यो हो हाप से साने के स्थान पर एकादे से काने लगे हैं।" मेरे पहने का तात्पर्य यह है कि म ममय पर परापार पप जाता,जस मनुष्य की पात्म-वमना स सीमा तब परेच जाती है कि पार पबन जाता है। विभ्रष्टानां भवति शितिपात .
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. भाचार्यश्री तुर मसः । एक नोन पर्याप्त है, सभी दूसरे दोष मानुषंगिक बनकर उसके 1 चले पाते हैं। जहाँ भौतिक विभूति को मनुष्य के जीवन में सर्वोच्च स्थान मित्रः है, वहाँ लोभ से बचना असम्भव है। असत्य के कन्धे पर स्वतन्त्रता का बोझ - हम भारत में वेल्फेयर स्टेट-कल्याणकारी राज्य की स्थापना रहे है और कल्याण' गन्द की भौतिक व्याख्या कर रहे हैं। परिणाम हमारे सामने है । स्वतन्त्र होने के बाद चरित्र का उन्नयन होना चाहिए था, त्याग कोपाल बढ़नी चाहिए थी, पगर्य-सेवन की भावना में प्रभिवद्धि होनी चाहिए पोसा लोगों में उस्माहर्वक लोकहित के लिए काम करने की प्रवृत्ति दोस पाना पाहिए यो। एडी-चोटी का पमीना एक करके राष्ट्र को हित-देश पर मा . ग्योछावर करना था। परन्तु ऐसा हुमा नहीं। स्वार्थ का बोलबाला है । परित्र का घोर पतन हमा है। स्तंम्पनिशद नहीं मिलती। व्यापारो तर बारी मंचारी, मारक, हारटर पिसी मे लोकसपही भावना नहीं । मम पिया बनाने की धुन मे है, भने ही राष्ट्र का माहित हो जाए। कार जी परागप्रपिर-म-पपिकमा लेकरम-से-गम पाम करना, यह साभार सीवानहोगाम करोगे पपा ग्यय कर रहे हैं. परन उगो मारा भी माम नहीं उठा रहे है । लोभ धानी हो रहा है और उसके साप पर का मामा नापा है। समय-माल, पगम्य पावरण पोर me
दिमाएर १९१७ मे महारमाजी न रहा पाकिहमारे पास महामारी
हो' प्रोमा 'नही' का अर्थ 'मई बह र पार भीमम सा हो। पन माप के Hोही मानधन देशको मे मा जा मानामगा । मोमित महामात्रीने देना * में
चस्यानपादाचारा ffm-पषि aft TRIT बानीहार में भी म Premoriat भाभा में मको। मा
HTTERamबसर मोनने रोग आ कर tr
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मनप..रा. पनप
पा समाप पग पगार
पन्नों में ही रह गई।
चरित्र को गिरावट की गति प्रवाध है । इससे घबराकर कुछ लोगो का ज्यान स्व. श्री बुकमन और उनके 'मॉरल रिपार्मामेट' (नैतिक पुनरुत्थान) कार्यक्रम की ओर गया । कार्यक्रम भले ही अच्छा हो, पर हमारी सामाजिक प्रौर माथिक परिस्थितियां भिन्न हैं और हम कम्युनिज्म के विरोध के पाचार पर राष्ट्रीय चरित्र का उन्नयन नही कर सकते । उससे हमारा काम नही चल सक्ता हमारी अपनी मान्यताएं हैं, परम्पराएँ हैं, विश्वास हैं , हमारे मनुक्ल वही उपदेश हो सकते है जो हमारी अनुभूतियो पर अवलम्बित हो, जिनकी जहें हमारे सहस्रो वर्षों के माध्यात्मिक धरातल से जीवन-रस ग्रहण करतो
समाज संगठन का भारतीय व पश्चिमी प्राधार
पश्चिम के समाज-संगठन का माधार है--प्रतिस्पर्धा ; हमारा प्राधार है-सहयोग । हम सभूय समुत्थान के प्रतिपादक हैं , पश्चिम मे व्यक्तियो भौर समुदायों के अधिकारों पर जोर दिया जाता है; हम कर्तव्यो, धर्मों पर जोर देते हैं, इस भूमिका मे जो उपदेश दिया जायेगा, वही हमारे हृदयो में प्रवेश कर सकता है।
प्राचार्यश्री तुलसी ने इस रहस्य को पहचाना है । वह स्वयं जैन हैं, पर जनता को नैतिक उपदेश देते समय वह धर्म के उस मच पर खड़े होते हैं, जिस पर वैदिक, बौद्ध, जैन भादि भारत-सम्भूत सभी सम्प्रदायों का समान रूप से प्रधिकार है। वह बालब्रह्मचारी हैं, साघु हैं, तपस्थी हैं, उनकी वाणी में पोज है । इसलिए उनकी बातो को सभी श्रद्धापूर्वक सुनते हैं । कितने लोग उनके उपदेश को व्यवहार मे लाते हैं, वह न्यारी कथा है; परन्तु सुनने मात्र से भी कुछ लाभ तो होता ही है और फिर : रसरी पावत जात ते, सिल पर होत निसान ।
माचार्य श्री लोगो से जिन बातों का संकल्प कराने हैं, वे सब घूम-फिर कर पहिंसा या प्रस्तेय के अन्तर्गत हो पाती हैं । पतञ्जनि ने महिसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को महारत कहा है और यह ठीक भी है। इनमें से
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प्राचायंग्री तुन
किसी एक को भी निवाहना कठिन होता है और एक के निवाहने के प्रपल राबको ही निबाहना अनिवार्य हो जाता है। एक को पकड़कर दूसरों से व नहीं जा सकता। मान लीजिये कि कोई यह संकल्प करता है कि मैं पान रिश्वत नहीं लूंगा पौर किसी माल में मिलावट नहीं करूंगा। संक्रापू करने के लिए ही तो किया जायेगा, तोडने के लिए नहीं। पदे पदे प्रलो. माते हैं, पुराने संस्कार नीचे की ओर खींचते हैं। लोम का संवरण कर फटिन होता है । चित्त डावाडोल हो जाता है । वह जिन किन्ही दैवी शक्तिः पर विश्वास करता हो, उनसे शक्ति को माचना करता है कि मेरा यह मंक कही ट न जाये । में मिथ्याचरण को छोडकर सत्यावरण को और माता कही परीक्षा में डिग न जाऊँ । वैदिक शब्दों में वह यह कहता है-प्रग्ने, वापर प्रत्त चरिष्यामि, तच्छयम् तन्मे राष्प्रताम् इदमहमन्तात्सत्यममि--हे दोष को दूर करके पविन्न करने वाले भगवन् ! हे व्रतो के स्वामी, मैं वन में प्रावरण करने जा रहा हूँ। मुझको शक्ति दीजिये कि मैं उसे पूरा कर सकें उसको सम्पन्न कीजिये, मैं अनत को छोड़कर सत्य को अपनाता है। द्रत के निभ जाना, प्रलोभनो पर विजय पाना, सरल काम नहीं है। बड़े भाग्य। इसमें सफलता पिलती है। और यह भी निश्चित है कि ब्रती की गति एक बार पर ही अवरुद्ध न होगी। एक व्रत उसको दूसरे व्रत की ओर ले जायेगा । एक को पूरा करने के लिए युगपत् सबको अपनाना होगा; और जो भारम्भ परम प्रणु प्रतीत होता रहा हो, वह अपने वास्तविक रूप में बहुत बड़ा बन जायेगा। इसी से तो कहा कि स्वल्पमप्पाय धर्मस्प प्रायते महतो भयात् इमोलिए मैं रहता है कि वस्तुतः कोई भी यत प्रण नहीं है । पिसी एक छोटे-से श्रत को भी यदि ईमानदारी से निबाहा जाए तो वह मनुष्य के सारे चरित्र को
मार्य श्री तुलसी के प्रवचनों में तो बहुत लोग दीख पड़ते हैं, स्त्रियाँ भी यहत-मो दौम पड़ती है । सेठ-गाहकारों का भी जमपट रहना है। इसी से में घबराना है। हमारे देश में साघुपो के दरबार में जाने और उनके उपदेशों का पलेसार विधि से सुनने का बडा चलन है। ऐसे लोग न धावें मच्छा है।
बगे पहले उन लोगों को प्रभावित करना है जो समाज का नेतृत्व कर रहे हैं। 1 ३ वर्ग को पारष्ट करता है। इसी वर्ग में से शिक्षा. भम्यापक, माटर,
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श्राचायंथी तुलसी
इंजीनियर, राजनीतिक नेता, सरकारी कर्मचारी निकलते हैं। यदि इन लोगों का चरित्र सुधरे तो समाज पर शीघ्र और प्रत्यक्ष प्रभाव पड़े । मैं भाशा करता हूँ कि प्राचार्यश्री का ध्यान मेरे इस निवेदन की घोर जाएगा। भगवान् उनको चिरायु और उनके अभियान को सफल करे ।
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व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्था
रोक्ष गोविन्ददार, पनाम
HTTTTTTTER को पूर्ण , मोर माना in यहाही . मामा , पागं ही है। मानव ६. उगी fryit को PRIL 34 am भी मा
गे। परीस्मिनुमका जिमी पर उनकीमा को पानी प्रम-रणे भू-मास पर मिति समर बार उन्हें फिर पाने में गटाय गर्म frrinहम जगसीकोमा पामोत्तिकमा बाम उममे मिन-नान धोपन माट हैपौर राममाय मा गयो प्राषित गे प्लावित रमतामू को हग एक पूर्ण सत्य मानकर उसकी पनन्त किगों को उनके दो-छोटे मनन्त पूर्ण प्रण-पोंकीसमा दे सकते है। यही स्थिति का पौर परमेसर की है। गोस्वामी तुलसीदामनी ने कहा भी है : ईयर पा और मदिनामपात मानव-रपना ईस्वर के भरणुरूपों का ही प्रतिरूप है, ओ ममय के साथ अपने मूल रूप से पृथक मोर उममे प्रविष्ट होता रहता है । मूर्य-किरणों को भांति उसका मस्तित्व भी क्षणिक होता है, पर समय की यह स्वस्सा, मार की यह मल्पमता होते हुए भी माना की शक्ति, उसकी सामम्यं समय की सहवरी न होकर एक मतुल, पट मोर पक्षण्ड शक्ति का ऐसा स्रोत होती है। जिसकी तुलना में भाज सहस्रांश को वै किरणें भी पीछे पड़ जाती है जो जगती की जीवनदायिनी हैं। उदाहरण के लिए, भग्रेजी को यह उक्ति "There ths sun cannot rise the doctor does enter there कितनी यथार्थ है ! फिर माज के वंज्ञानिक युग में मानव की अन्तरिक्ष यात्राएं और ऐसे ही अनेकानेक चामत्कारिक अन्वेषण, जो किसी समय सर्वथा अकल्पनीय मौर मलौकिक थे, आज हमारे मन में प्राश्चर्य का भाव भी जागृत नहीं करते । इस प्रकार की
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व्यक्ति नही, स्वयं एक संस्था पावित और सामथ्यं से भरा यह अपूण मानव, प्राग अपन पुरुषाय नम प्रकृति के साथ प्रतिस्पर्षी बना सड़ा है। ___जगतो मैं सनातन काल से प्रधान रूप में सदा ही दो बातों का द्वन्द्व चलता रहा है। सूर्य जब अपनी किरण ममेटता है तो अवनि पर सघन अन्धकार छा पाता है। अर्थात् प्रकाश का स्थान अन्धकार और फिर अन्धकार का स्थान प्रकार ले लेता है । यह क्रम अनन्त काल से अनवरत चलता रहता है। इसी प्रकार मानव के मादा भी पह देत का इन्द्र गतिशील होना है। इसे हम मच्छे मोर बुरे, गुण और दोष, ज्ञान प्रौर भज्ञान तथा प्रकाश और अन्धकार प्रादि प्रगणित नामो से पुकारते हैं । इन्हीं गुण-दोषों के अनन्त-प्रगणित भेद और उपभेद होते हैं, जिनके माध्यम से मानव, जीवन में उन्ननि घोर अवनति के मार्ग में प्रयास में मनायाम हो अग्रसर होता है। यहाँ हम मानव जीवन के इसी अच्छे और बुरे, उचित और अनुचित पक्ष पर विचार करेंगे। जीवन की सिद्धि मोर पुनर्जन्म की शुद्धि ___ भारत धर्म-प्रधान देश है, पर व्यावहारिक सचाई मे बहुत पीछे होना जा रहा है। भारतीय सोग धर्म और दर्शन को तो बढी चर्चा करते हैं, यहाँ तक उनके दैनिक जीवन के कृत्य, वाणिज्य-रायसाय, यात्राएं, वाहिक सम्बन्ध प्रादि जैसे पा भी दान-पुष्य, पूजा-पाठ मादि धार्मिक वृत्तियो से ही प्रारम्भ होते है: हिन्तुमायों के भारम्भ पोर पन्त को छोड जीवन की जो एक लम्बी मंरिस है, उसमें व्यक्ति धर्म के इम पावहारिफ पस से सदा ही उदासीन रहता है। स धर्म-प्रधान देश में मानव मे पावहारिक सचाई में प्रामाणिकता के स्थान पर पारम्बर और माधिभौतिक शक्तियों का प्राधिपत्य होता जा रहा है। जीवन मे जर स्यावहारिक सनाई नहीं, प्रमाणिस्ता नहीं, तो धर्माचरण
से सम्भव है ! इसके विपरीत भौतिरतावादी माने जाने वाले देशों को जब भारतीय पारा करते है तो वहां के निवासियों को व्यवहारगत सचाई मोर प्रामाणिपता की प्रशंसा करते हैं। दूसरी पोर जो विदेशी भारत की यात्रा करते है। उन्हें यहा की ये दानिकता के सास में प्रामालिपटारामा खसता है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाया है कि हमारा यह धर्माचरा जीवनपिके लिए मही; पुनगन्य मोदि के लिए है। किन्तु यहाँ भी हम भल रहे
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प्राचार्यश्री तुलसी
हैं । जब यह जीवन ही शुद्ध नहीं हुआ तो अगला जन्म कैसे शुद्ध होगा? यह सुनिश्चित है कि उपासना की अपेक्षा जीवन को सचाई को प्राथमिकता दिये दिना इम जन्म की सिद्धि और पुनर्जन्म की शुद्धि सर्वथा असम्भव है।
प्रश्न उठता है कि जीवन को यह सिद्धि और पुनर्जन्म को शुद्धि कैसे हो सकती है ? स्पष्ट है कि चारित्रिक विकास के बिना जीवन की यह प्रायमिक और महान् उपलब्धि सम्भव नहीं । चरित्र का सम्बन्ध किसी कार्य-व्यापार ठक ही सीमित नहीं, अपितु उसका सम्बन्ध जीवन की उन मूल प्रवृत्तियों से है जो मनुष्य को हिंसक बनाती हैं । गोषण, अन्याय, असमानता, अमहिष्णुता, प्राक्रमण दूसरे के प्रभुत्व का अपहरण या उसमें हस्तक्षेप और असामाजिक प्रवृत्तियाँ । ये सब चरित्र-दोप हैं। प्रायः सभी लोग इनमे प्राधान्त हैं । भेद प्रकार का है। कोई एक प्रकार के दोष से प्राकान्त है, तो दूसरा दूसरे प्रकार के दोप से। कोई कम मात्रा में है, तो कोई अधिक मात्रा में है। इस विभेद-विषमता के विप की व्याप्ति का प्रधान कारण शिक्षा और अर्थव्यवस्था का दोषपूर्ण होना माना जा सकता है । माज की जो शिक्षा व्यवस्था है, उसमे चारित्रिक विकास की कोई निश्चित योजना नहीं है । भारत की प्रथम और द्वितीय पचवर्षीय योजना में भारत के भौतिक विकास के प्रयत्न हो सन्निहित थे। कदाचित भले भजन न होई गोपाला भोर प्रारत काह न करे कुक की उक्ति के अनुसार भूनों की भूस मिटाने के प्राथमिक मानवीय क्तव्य के नाते यह उचिन भी था; किन्तु परित्र-बल के विना भर-पेट भोजन पाने वाला कोई व्यक्ति या राष्ट्र भाज के प्रगतिशील विश्व में प्रतिष्ठित होना तो दूर, कितनी देर सहा रह सकेगा, यह एक यहा प्रश्न है । मतः उदरपूर्ति के यत्न में अपने परम्परागत चरित्र-दल । नहीं गंवा बैठना चाहिए । मह हर्ष का विषय है कि तृतीय पचवर्षीय योजना में इस दिशा में प्रध प्रयन्न मन्तनिहित हैं। हमारी शिक्षा कसो हो, यह भी एक गम्भीर प्रश्न है। बड़े-बडे विशेष इग मम्बन्ध में एकमत नहीं हैं । अनेक तथ्य पौर तर शिक्षा के उम्पन पक्ष के सम्बन्ध में दिये जाने रहे हैं और दिये जा गरते हैं । निश्चित ही भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में पागे बड़े है : विन्तु भान
क विकाग एक प्रमयत विभाग है। कोरा-ज्ञान भयावह है, कोरा ___ ५ है और नियत्रहीन गतिवान्त ततरनाका शुष्टि हा ' पुरी है। दृष्टि गुरु है तो मान पड होगा: दुष्टि लिन्
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व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्था होगी तो ज्ञान विकृत हो जायेगा, चरित्र दूषित हो जायेगा। इस दृष्टि-दीप से हम सभी बहुत बुरी तरह अमित हैं। भापा, प्रान्त, राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता के दृष्टि-दोष के जो दृश्य देश में भाज जहां-तहां देखने को मिल रहे हैं, ये यहाँ के चारित्रिक ह्रास के ही परिचायक है । घृणा, सकोणं मनोवृत्ति प्रोर पारसरिक अविश्वास के भयावह अन्तराल मे भारतीय माज ऐसे डूब रहे हैं कि कार उठकर बाहर की हवा लेने की बात सोच ही नहीं पाते । इस भयावह स्थिति को समय रहते समझना है, मपने आपको सम्भालना है । यह कार्य चरित्र-बल से ही सम्भव है और चरित्र को सजाने के लिए शिक्षा में सुधार अपरिहार्य है। प्रश्न है-यह शिक्षा कैसी हो?
सक्षेप में जीवन के निर्दिष्ट लक्ष्य तक यदि हमें पहेचना है, तो ऐसे जीवन के लिए निश्चित वही शिक्षा उपयोगी होगी, जिसे हम मयम की शिक्षा को सज्ञा दे सकते हैं । मंयमी जीवन में सादगी और सरलता का मनायास ही सम्मिश्रण होना है और जहां जीवन सादगी से पूर्ण होगा, उसमे सरलता होगी, वहाँ कर्तव्यनिष्ठा बढ़ेगी ही। तम्प-निष्ठा के जागत होते ही व्यक्ति-निर्माण का वह कार्य जो माज के युग की, हमारी शिक्षा की, उसके स्तर के सुधार की मांग है, सहज ही पूरा जायेगा। उन्नति की धुरी
भ-म्यवस्था भी दोषपूर्ण है। पप-व्यवस्था सुधरे धिना चरित्रवान् बनने मे महिनाई होती है और परित्रवान् बने बिना समाजवादी समाज दने, यह भी सम्भव नहीं है। इसीलिए यह पावश्यक है कि देश के कर्णधार योजनामों के क्रियान्वयन में परित्र-विकास के सर्वोपरि महत्त्व को दृष्टि से प्रोमल न करें। ईमानदारी चरित्र का एक प्रधान पररा है । यदि परिष नहीं तो ईमानदारी महा से पायेगो, और जब ईमानदारी नहीं, तो इन दीर्घमूत्रीय योजनामों से, जो भाज प्रियान्वित हो रहीं हैं, मागे चलकर पर्ष-लाम भले ही हो, पर अभिशाप में परिवार, प्रगम और प्रसमानता का ऐसा घेरा समाज में पड़ेगा, जिसमे निस्सना फिर पासान बात न होगी।
हम भार देशोन्नति की धुरी चरित्र ही है। बिना परिव-विकास के देश का विकास प्रमभव है। चरित्र निर्माणका सम्बन्ध हमारी शिक्षा और पर्ष
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प्राचार्य मी
जुड़ा हुआ है। इनके होने पर को
नहीं की जा सकी। मागुनमा भूतपूर्वमायोजन है।
रित्र-निर्माणको दिशा में एक
कोटे
स्वभाव से हो मानव सपा की परिधि में बाहरी फोर में भी यही तथ्य निहित है। माया
होता है।
माने में या
है तो उनके श्री प्रवृति जागृत होती है और
उपान्तकरण वनों की ओर
बेईमानी और पता जब व्यक्तिको हो रवैव वैमनस्य, शील और अनाचार को दूर करने इस प्रति के उदन होते ही स्वाग श्री होना है। जीवन सुधार की दिशा में वनों का महत्व सर्वोपरि है। वन में प्रधानसे ग्रात्मानुशाशन को यकता होती है। जिस प्रकार सिदान्त बायन करना जितना महान है, उस पर अमल करना उतना ही कठिन, उमी प्रकार लेना तो मासान है, पर उसका निभाना बडा मठिन होता है। व्रतमान में स्वनियमन व हृदय परिवर्तन से बड़ी सहायता मिलती है।
भरत के पाँच प्रकार हैं- प्रहिसा, सत्य, प्रवीर्य, ब्रह्मवयं या स्वदारसंतोष और परिग्रह या इच्छा-परिमाण |
महिला - रागद्वेषात्मक प्रवृत्तियों का निरोध या प्रारमा की राग-द्वेप-रहित प्रवृत्ति है।
सत्य हिंसा का रचनात्मक या भाव प्रकाशनात्मक पहलू है । श्रवौयं - महिसात्मक अधिकारों की व्याख्या है । ब्रह्मवर्ष--अहिंसा का स्वात्म रमणात्मक पक्ष है ।
- अपरिग्रह - प्रहिसा का परम-पदार्थ-निरपेक्ष रूप है ।
व्रत हृदयपरिवर्तन का परिणाम होता है । बहुषा जन साधारण का हृदय उपदेशात्मक पद्धति से परिवर्तित नहीं होता । भतः समाज को दुव्र्व्यवस्था को बदलने के लिए भी प्रयत्न किया जाता है। उदाहरण के लिए मार्थिक दुस्वस्या व्रतों से सीधा सम्बन्ध नहीं रखती, किन्तु भात्मिक दुव्यवस्था मिटाने के लिए और संयत, सदाचारपूर्ण जीवन-यापन की दिशा में व्रत बहुत उपयोगी होते हैं । हृदय परिवर्तन पोर व्रताचरण से जब ात्मिक दुव्यवस्था मिट जाती है तो
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व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्था
उससे मायिक दुव्यवस्था भी स्वतः सुत्ररती है और उसके फलस्वरूप सामाजिक दुर्व्यवस्था भी मिट जाती है ।
व्यक्ति के चरित्र और नैतिकता का उसकी अर्थव्यवस्था से गहरा सम्बन्ध 1 बुभुक्षितः किं न करोति पापम की उचित के अनुसार भूखा प्रादमी क्या पाप नहीं कर सकता ! इसके विपरीत किसी विचारक के इस कथन को भी कि संसार में हरएक मनुष्य की श्रावश्यकता भरने की पर्याप्त से अधिक पदार्थ हैं, पर एक भी व्यक्ति की प्राचा भरने को वह पर्याप्त है, ' हम दृष्टि से प्रोमल नही कर सकते । एक निर्धन निराशा से पीड़ित है तो दूसरा धनिक भाशा से । यही हमारी मयं व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना है । भगवान् महावीर ने भाषी घनन्वता बताते हुए बहा है। यदि सोने और चांदी के मला तुल्यमस्य पर्वत भी मनुष्य को उपलब्ध हो जायें तो भी उसकी तृष्णा नहीं मरती, क्योकि धन मसस्य है औौर तृष्णा माना की तरह प्रभ
गरीय कौन ?
विचारणीय यह है कि वास्तव में गरीब कौन है ? क्या गरीब ये है, जिनके पास पोटासा पत है ? नहीं। गरीब तो यथार्थ में वे हैं जो भौतिक दृष्टि से समुद्ध होते हुए भी तुष्णा से पीड़ित हैं। एक व्यक्ति के पास दस हजार रुपये हैं। वह चाहता है, बीस हजार हो जाएं तो माराम से जिन्दगी वट जाए। टूमरे के पास एक लाख रुपया है, वह भी चाहता है कि एक करोड़ हो जाए शान्ति से जीवन बीते। तीसरे के पास एक करोड़ रुपया है, वह भी चाहता है, दस करोड़ हो जाएं तो देश का बडा उद्योगपति बन जाऊं । भब देखना यह है कि गरीब कौन है? पहले व्यक्ति की दस हजार को गरीबी है, दूसरे की निन्यानवे लाख की मोर सोसरे दोनो रोड को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो वास्तव में तोगरा व्यक्ति हो अधिक गरीब है, क्योकि पहले की वृत्तियाँ जहाँ दम हजार के लिए, दूसरे को नियान सास के लिए तडपती है, वहाँ तोसरे की तो करोड़ के
1. There is enough for everyone's need but not everyone's greed.
५. मुवन्ज स्वरस उपध्या भयं सिया
टु
सासमा प्रणतया ।
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मानासंधी तुर निए ! तारा यह गिरीकीरामन गर है मौर मनोरही ई. संगमा बा गोवामा | सपके जिम विन्द पर मनु'य समाप के प्रास होता है. यही उगी गरीची का प्रस्त हो जाता है। यह बिन्दु मदि पाम पपा पार हजार पर भी सग गया, तो पति भी हो जाता है। हमारे देशी प्रानीन परम्परा में तो दे ही पति गुमो पौर पर माने गए हैं, जिन्होंने कुछ भी गहन रणने में गलोष किया है । ऋषि, महपि साधु-मंन्यासी गरीव नहीं कहना थे और न सभी उन्हें प्रपामा काम ही व्यापता पा !
भगवान् महावीर ने मुण्डा पशिगहो-मुम्ही को पग्ग्रिह बनाया है। परिग्रह सर्वया स्पाग्य है। उन्होने मागे महा : वितण ताण म स पमधन से मनुष्य पण नहीं पा साना । महाभारत के प्रणेता महषि पाम ने
उपर प्रियते यावत् तावत् स्वस्वं हि देहिनाम् ।
प्रधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दामहति ।। उदर-पालन के लिए जो भावश्यक है, वह व्यक्ति का अपना है। इससे अधिक संग्रह कर जो व्यक्ति रखता है, वह चोर है मोर दण्ड का पात्र है।
माधुनिक युग में अर्थ-लिप्सा से पचने के लिए महात्मा गावी ने इसीलिए धनपतियों को सलाह दी थी कि वे अपने को उसका ट्रस्टी मानें । इस प्रकार हम देखते है हमारे सभी महज्जनो, पूर्व पुरुषो, सलो और भक्तो ने मधिक अर्थसंग्रह को अनर्थकारी मान उसका निपंध किया है। उनके इस निषेध का यह तात्पर्य कदापि नहीं कि उन्होंने सामाजिक जीवन के लिए प्रर्य को पावश्यकता की दष्टि से ग्रोझल कर दिया हो। मग्रह की जिम भावना से समाज प्रनीति और अनाचार का शिकार होता है, उसे दृष्टि मे रख व्यक्ति की भावनात्मक शुद्धि के लिए उसके दृष्टिकोण की परिशुद्धि ही हमारे महाजनों का अभीष्ट था । वर्तमान युग अर्थ-प्रधान है। प्राज ऐसे लोगो की संख्या अधिक है जो मायिक समस्या को ही देश की प्रधान समस्या मानते हैं। प्राज के भौतिकवादी युग मे प्रारिक समस्या का यह प्राधान्य स्वाभाविक ही है। किन्तु चारित्रिक शुद्धि
पौर प्राध्यात्मिकता को जीवन में उतारे बिना व्यक्ति, समाज और देश की उन्नति ___ • परिकल्पना एक मृगमरीचिका ही है । अणु-यायुधों के इस युग में अणुयत एक - , प्रयत्न है । एक प्रोर हिंसा के बीभत्स रूप को अपने गर्भ में छिपाये
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व्यक्ति नहीं, स्वयं एक संस्था भरणुवमो से सुसज्जित माधुनिक जैट रॉकेट मन्तरिक्ष की यात्रा को प्रस्तुत है दूसरी मोर भाचार्यश्री तुलसी का यह प्रणवत-मान्दोलन व्यक्ति-व्यक्ति के। माध्यम से हिसा, विषमता, शोपण, सम्रह प्रोर अनाचार के विरुद्ध हिंसा सदाचार, सहिष्णुता, अपरिग्रह और सदाचार की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नरतह। मानव और पशु तथा अन्य जीव जोधारगुनो मे जो एकमन्तर है, वह है उसकी शान शक्ति का। निसर्ग ने प्रन्यो की अपेक्षा मानव को ज्ञान-शक्ति का जो विपुल भण्डार सौंपा है, अपने इसी सामर्थ्य के कारण मानव सनातन काल से ही सष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी वना हुमा है। आज के विश्व मे जबकि एक मोर हिंसा और बर्बरता का दावानल दहक रहा है तो दूसरी ओर प्रतिसा और दशान्ति वो एक शीतल सरिता जन-मानस को उद्वेलित कर रही है। अब मात्र के मानव को यह तय करना है कि उसे हिंमा और दर्बरता के दावानल में भुलसना है अथवा अहिंसा और शाति की शीतल सरिता में स्नान करना है। तराजू के इन दो पलड़ो पर भसन्तुलित स्थिति में अाज विश्व रखा हुदा है और उसको बागडोर, इस तराजू की चोटी, उसी ज्ञान-शक्ति सम्पन्न मानव के हाथ मे है जो अपनी शान-सत्ता के कारण सष्टि का सिरमौर है। सर्वमान्य प्राचार-संहिता
प्राचार्यश्री तुलसी से मेरा थोड़ा ही सम्पर्क हुमा है, परन्तु वे जो कुछ करते रहे हैं और अणुव्रत का जो साहित्य प्रकाशित होता रहा है, उसे मैं ध्यान से देखता रहा हूँ। जैन साघुपो को त्याग-वृत्ति पर मेरी सदा से ही बडी श्रद्धा रही है। इस प्राचीन संस्कृति वाले देश में त्याग ही सर्वाधिक पूज्य रहा है और जन साधुमो का त्याग के क्षेत्र मे बडा ऊंचा स्थान है। फिर प्राचार्यश्री तुलसी और उनके साथी किसी धर्म के मकुचित दायरे में कैद भी नहीं हैं । मैं प्राचार्यश्री तुरसी के विवार, प्रतिभा और कार्य-प्रवीणता की सराहना क्येि विना नही रह सकता। उनका यह मणुव्रत-आन्दोलन किसी पक्ष विदोप का मान्दोलन न होकर समची मानव-जाति के अमिक विकास और उसके सदाचारी जीवन का, इन बनो के रूप में एक ऐसा अनुष्ठान है जिसे स्वीकार करने मात्र से भय, विषाद हिंसा, ईर्ष्या, विषमता जानी रहती है और सुख-शान्ति की स्थापना हो जाती है । मेरा विश्वास है, हिमा भले ही बर्बरता की चरम सीमा पर पच जाए,
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पापायी तुरन पर उमा भी antixnा हो और टहरान, हरमिति में भारत की IET, उसी प्रनिया नि है
पागाधी तुलमी रक गाद गाधनायक, ना तेराव भागापौरमा मोनो । नरेन में औसवगे बड़ी बात है यह है उन नपा पाने प्रवासी गा.पा एक विशेष जाप्रम गायन.TAIT निमिग ममगाउन इम बन-स्यामा जो स्वरूप है, उगीको गोपना, बरगान-पान्दोगन में समाहित है। दूगरों मे, नोम प्रापा को निर्माण का पाग्दोलन रहा का समता है। भारतीय माति प्रोर दान के महिमा, सन्य प्रारि सावनोम माधारो पर नैतिकता पीए मायापार-गहिला की मामी ने है सकते हैं। व्यक्ति न होकर स्वयं एक संस्था
प्राचार्यश्री तुलमी प्रथम पमांना जोमाने का साघु-संघ के साथ सार्वजनिक हित की भावना पर
ध्यान में उतरे हैं। पावापेयी साहित्य, दर्शन और शिक्षा के अधिकारी प्राचार्य एक घंष्ठ साहित्यकारभार धानिक है। अपने साथ रांघ में उन्होने निरपेक्षा शिक्षा प्रणाली का जन्म " है तथा संस्कृत, राजस्थानी भाषा को भी बति में उनसरा भिनन्दनीय योग है। उनके संघ में हिन्दी की प्रधानता प्राचार्यश्री की मम-बममी परिचायक है। मापकी प्रेरणा से ही साघ-समदाय सामयिक गतिविधि रो दर्शन मार साहिल के क्षेत्र में उतरा है। इसी के प्रनन्तर माप देश की गिरती हुई नाता को ऊचं सचरण देने मे प्रेरित हए और उगो का शम परिणाम यह सब प्रणयत-आन्दोलन बना। प्राचार्यश्री तुलसी एक व्यक्ति न हार " संस्था -रूप हैं।
अन्त मे मैं प्राचार्यश्री तुलसी को, उनके इस वास्तविक " तथा उनके द्वारा हो रहे जन-कल्याण के कार्य को अपनी हादिक धना
की गिरती हुई नैतिक स्थिति
व्यक्ति न होकर स्वयं एक
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एक अमिट स्मृति
श्री शिवाजी नरहरि भावे
महामहिम भाचार्यश्री तुलसी बहुन वर्ष पहले पहली वार ही धूलिया पधारे थे। इसके पहले यहाँ उनका परिचय नहीं था। लेकिन पुलिया पधारने पर उनका सहज ही परिचय प्राप्त हुप्रा । वे सायकाल से थोड़े ही पहले अपने कुछ साथी साघुमों के साथ यहाँ के गाधी तत्वज्ञान मन्दिर मे पधारे। हमारे मामंत्रण पर उन्होने नि संकोच स्वीकृति दी थी। यहां का शान्त और पवित्र निवास स्थान देखकर उनको काफी सतोष हुमा । सायंकालीन प्रार्थना के बाद कुछ वार्तालाप करेंगे, ऐसा उन्होने माश्वासन दिया था। उस मुताबिक प्रार्थना हो चुकी थी । सारी गृष्टि चन्द्रमा की राह देख रही थी । सब ओर शान्ति पौर समुत्सुक्ता छाई हुई थी। तत्वज्ञान मन्दिर के बरामदे में वार्तालाप भारम्भ हमा । सर्ग सदभिः सप. कथमपि हि पुष्पेन भवति, भवभूति की इस उक्ति का अनुभव हो रहा था।
वार्तालाप का प्रमुख विषय तत्त्वज्ञान और अहिंमा ही था। बीच में एक ध्यक्ति ने कहा-महिंसा में निष्ठा रखने वाले भी कभी-कभी पनजाने विरोध के भमेने में पर जाते हैं। प्राचार्य श्री तुलसी ने कहा-"विरोध को तो हम विनोद समझकर उममे मानन्द मानते हैं।" इस सिलसिले में उन्होने एक पद्य भी गाकर बताया । श्रोतामो पर इसका बहन असर हमा।
मगमीन सजवानां तजलसतोपविहितवत्तीना।
सम्पाधीपरिशुना निधारणवैरिणो जगति ॥ समुच मनहरि के इस कष्ट मनभय को प्राचार्यपी तुलसी ने कितना मधुर कर दिया । म लोग प्रधान होरर वार्तालाप सुनते रहे ।
प्राचार्यत्रो विशिष्ट पथ के संचालक हैं, एर दड़े भान्दोलन के प्रवर्तक है। जो पास्त प्रमाण पहित है. किन्तु इन सब बड़ी-बड़ी उपाधियों का उनके
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भा
भाषण में माभाग भी हिंगी वो प्रतीत नहीं होता था । इतनी सरलता !
स्नेह | इतनी शान्ति | ज्ञान
के बिना कैसे प्राप्त होती है ? हमारे लिये यही पस्मृिति है।
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एक पंथ के आचार्य नहीं
श्री श्रीमन्नारायण सदस्य, योजना आयोग
नि.सन्देह करोडो मानब प्राज प्राथमिक और मामूली जरूरतें भी पूरा नही कर पाते हैं, अत उनका जीवन-स्तर पर उठाना परम पावश्यक लगता है। प्रत्येक स्वतन्त्र भोर लोकतन्त्री देश के नागरिक को कम-से-कम जीवनोपयोगी वस्तु तो अवश्य ही मिल जानी चाहिए, परन्तु हमे अच्छी तरह समझ लेना होगा कि केवल इन भौतिक प्रावश्यकताप्रो की पूर्ति कर देने से ही शान्तिपूर्ण और प्रगतिशील समाज की स्थापना नहीं हो सकेगी। जब तक लोगों के दिलोंदिमागों मे सच्चा परिवर्तन नही होगा, तब तक मनुष्य जाति को भौतिक समृद्धि भी नसीब नही होगी।
सादगी और दरिद्रता
पाखिर मनुष्य केवल रोटी खाकर हो नहीं जीता और न भौतिक सुखसामग्री से मनुष्य को सच्चा मानसिक और मात्मिक सुख ही मिल साता है। हमारे देश की सस्कृति मे सो पनादि काल से नैतिक मोर माध्यात्मिक मल्यों को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है। इस देश में तो मनुष्य के धन-वैभव को देखकर नहीं, उसके सेवा-भाव और त्याग को देखकर मादर होता है। यह सच है कि दरिद्रता अच्छी चीज नहीं है मौर माधुनिक समाज को, एक निश्चित मात्रा मे कम-से-कम भौतिक सुख-सुविधा तो सबको मिले, ऐसा प्रवाध करना होता है। परन्तु सादगी का अर्थ दरिद्रता नहीं है और न जरूरतें बढ़ा देना प्रगति की निशानी हमे भौतिक और नैतिक कल्याण भौर विकास के वीष एक सन्तुलन उपस्थित करना होगा। यह ध्यान प्रतिदिन रखना होगा कि माथिक संयोजन में लक्ष्यों को पूरा करने के साथ-साथ नैतिक पुनहत्थान के लिए
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माण
भी attrafalfATH भी कहना है नही हम गे माग नागे, हमारी परराष्ट्रमोमानाने हो
निनामी-farmer और ईमानस नही होगे. हमीमीरको मITRA र गगे। राष्ट्र की म
मापारि की पोतात. पारि माने नहीं है । राष्ट्र कर स ति और
मो मारनाममार और ननित नागरिक जिन्हें अपने riyों और शिक्षा का गम भान होना है। भारत
राशनका भी धर्मपा है, जिगराम है-मभी प्रगति धन प्रति नतम और मामा में मनमरण में ही है। यदि इस बिल को हम भूतादंगे तो हमारा भी बल्याग नहीं हो साना।
पषस-पादोलनको नमिक सयोजनाही एक विशिष्ट उपवमानः है। यह पान्दोगन व्यगित को मुप्त ननिक भावना पो उदबुद्ध करता है। विवेकपूर्व जीवन पा ममत्व प्रत्येक व्यक्ति की गम माना है। प्रभावशाली व्यक्तित्व
भारत के मुझ जैसे बहत-से व्यक्ति पाज प्रामायंबा तलमी को केवल एक पंथ के प्राचार्य नही मानते हैं। हम तो उन्हें देश के महान व्यक्तियों में से ए' प्रभावशाली व्यक्ति मानते हैं, जिन्होंने भारत में नीति और सन्यवहार झंडा ऊंचा उठाया है। प्रणुव्रत-पान्दोलन द्वारा देश के हजारो और माता व्यक्तियों को अपना नैतिक स्तर ऊंचा करने का अवसर मिला है और भाव में भी मिलता रहेगा। यह प्रान्दोलन बच्चे, बडे, नौजवान, स्त्री पुष्प, सरकार कर्मचारी, व्यापारी वर्ग प्रादि सबके लिए खुला है। इसके पीछे एक ही पनि और वह है-नतिक शक्ति । यह स्पष्ट ही है कि इस प्रकार का मान्दाला सरकारी शक्ति से संचालित नहीं किया जा सकता। भारतवर्ष में यह परमराह रही है कि जनता से नैतिकता ऋपि, मुनि व माचार्यों द्वारा ही संचालिनहुरह।
__ मैं प्राशा करता है कि प्राचार्यश्री तुलसी बहत वर्षों तक इस देश की जनता को नैतिकता की पोर ले जाने में सफल रहेगे और उनके जीवन से हमारा १ लाखों व्यक्तियों को स्थायी लाभ मिलेगा।
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भारतीय संस्कृति के संरक्षक
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डा० मोतीलाल दास, एम० ए०. बो० एन०, पो-एच० डी०
सस्थापनमत्री, भारतीय सानि परिषद, पलकत्ता भारतीय सस्कृति एक पाश्वत जीवन शक्ति है। प्रत्यन्त प्राचीन काल से मापनिक युग मा महान् मात्मामो के जीवन और उनकी शिक्षापो से प्रेरणा को लहरें प्रवाहित हुई है। इन सतो ने मपनी गतिशील प्राध्यास्मिाता, गम्भीर पनुमको और मरने सेवा पोर त्यागमय जीवन के दाग हमागे सम्पमा पोर गति के सारमा सत्त्व को जीवित रमा है । प्राचार्यश्री तुलसी एक ऐसे ही सन है। यह मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मैं ऐमे विशिष्ट महापुरुष के निकट सम्पर्क में पा सका।मैं मरवन ममिति, कलरत्ता के पदाधिकारियों का माभारी है कि उन्होंने मुझे हम महान् पर्माचार्य से मिलने का प्रवरार दिया।
भाचार्यश्री तुलसो पवस्था मे मुझसे छोटे हैं । उनका जन्म परतूबर, १९१४ में इपा पोर मैंने उन्नीसवीं पताम्मी की मस्तगत किरणों को देखा है। उन्होंने ग्यारह वर्ष की परमार षय मे जैन धर्म के तेरापम मम्प्रदाय के वठिन साथश्व बीदीक्षा ली। अपने दुम गुणो पौरभमाधारण प्रतिभा के बल पर वाईम वर्ष पौ परस्पा में ही ये तेरा प्रदाय के ना पाचार्य धनगरातब भावार्य पर पर उनरो पम्पोम वर्ग हो गए हैं और वे अपने सम्प्रदायकोनैतिक धेष्टता मोर मात्मिक उत्थान के नये-नये मागा पर अगर पर रहे हैं। मंगलमयी प्राति
दुनिया पात्र पुरोगामी शिकार हो रही है। गोम पौर निमा, प्रम मोरोपना निवाल शेलवाया है। प्राटापार और पतन दुग मे महान् पापा पार पहरा देगारपिनी प्रसन्नता होती है। उनके शान पहरे समोर ए र निर सेहो को और मादाण हेला
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मापाग्री उमा है। समाग में कारण वह कोर 4 मही हर हैं। उनकी प्रारपिसपी है, जो प्रथम वर्णन पर ही मानाप्रमालनी है । ना घोडा और ज्योतिर्मम ने भागा पोर पालिका मायामन है और मागगुतिमध्यपहार माने भालोर मुग्ध कर देता है।
उनमें और मात्रा पुर में समानता प्रतीत होती है। गौतम बुद्ध महानसम हिडपे, त्रिदोंने सीम मागम से प्रेरित होकर अपने पदुपात्रियों नोभमन हिताय पोरम मुसाय धर्म का उपदेश देने के लिए भेजा। उन महान धर्म-गयार मोहाह हो माधयंत्री नवगी ने पर-पानामों का पायोजन किया है । इग नवीन प्रयोग में कुछ पमापार गुन्दरता है । तेराइप में साधु अपनी प-यात्रामों में जहाँ कही भी जाते हैं, नई भावना पार नया बातावरण उत्पन्न कर देते हैं। धर्म का ठोस माधार
अपनी पदयात्रा के मध्य प्राचारं श्री तुलसी बंगान पाए और कुछ दिन कलकत्ता में ठहरे । उम समय मैंने उनसे साक्षाकार पिया मोर बातचीत की। उन्होंने मुझसे अणुव्रतों की प्रतिक्षा लेने को कहा । मुझे लग्नापूर्वक बहना पड़ता है कि मैंने अपने भीतर प्रतिज्ञाएं लेने जितनी शक्ति अनुभव नहीं की मोर झिझरपूर्वक वैसा करने से इन्कार कर दिया । बिन्तु वे इससे तनिक भी नाराज नही हुए । तटस्थ भाव से, जो उनकी विशेषता है और क्षमाशील स्वभाव से, जो अपूर्व है. उन्होंने मुभम तौरने, विचार करने और फिर निर्णय करने की यहा। प्राचार्यश्री तुलसी की शिक्षाएं बुद्ध की शिक्षाग्रो की भांति नैतिक मादसा वाद पर आधारित हैं। उनके अनुसार नैतिक श्रेष्टता ही धर्म का निश्चित मार टॉस 'माधार है। जब कि भौतिकवाद का चारों मोर बोलबाला है, उन्हान मानवता के नैतिक उत्थान के लिए अशुद्रत-मान्दोलन चलाया है।
दुमरे अनेक व्यक्तियों के साथ जो ज्ञान भौर अनुभव में विद्वत्ता प्रार भाध्यात्मिक भावना में मुझ से मागे हैं, मैं पतनोन्मुख भारत के नतिक उत्थान के लिए प्राचार्यश्री तुलसी ने जो काम हाथ में लिया है और जो प्रामातात सफलताएँ प्राप्त की हैं, उनके प्रति अपनी हार्दिक श्रम समषित करता हूँ।
अगुवत-मान्दोलन एक महान प्रयास है और उसकी वल्पना भी उतनी हा
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महान् है । एक श्रेष्ठ सस्प-धर्मी सन्यासा क द्वारा उसका संचालन हा रहा है, अपने सम्प्रदाय को संगठित करने के बाद उन्होदामाच१६४ को देशव्यापी नैतिक पतन के विरुद्ध अपना मान्दोलन प्रारम्भ किया। युगपुरुष व वीर नेता
हम सदियो की दासता के बाद सन् १६४७ में स्वतन्त्र हुए, किन्तु हमने अपनी स्वतन्त्रता अनुशासन के कठिन मार्ग से प्राप्ति नहीं की। इसलिए अधिकार और घन-लिप्सा ने समाज-संगठन को विकृत कर दिया। जीवन के हर क्षेत्र में प्रकुशलता का बोलबाला है। नीतिहीनता ने हमारी शक्ति को क्षीण कर दिया है और इसलिए जब तक हम नैतिक स्वास्थ्य पुन. प्राप्त नही कर लेते, हम राष्ट्रो के समाज मे अरना उचित स्थान प्राप्त करने की मासा नहीं कर सकते। मानव पतन के सर्वव्यापी प्रकार के मध्य नैनिक उत्थान की मुखर पुकार पाश्चर्यकारक ताजगी लिये हुए माई है मौर नगे पाँव व श्वेत वस्त्रधारी यह साधु अचानक ही युगपुरुप व वीर नेता बन गया है। ऐसे ही पुरुष को प्राज राष्ट्र को तात्कालिक मावश्यकता है।
शुक्ल यजुर्वेद में एक स्फूर्तिदायक मन्त्र है, जिसमे ऋपि अपनी सच्ची भास्था प्रकट करते हैं-"ऐ उज्वल ज्ञान के मालोक, पाक्ति की अग्नि-शिखा, मुझे सत्पथ पर प्रग्नसर कर 1 मैं नये पवित्र जीवन को प्रगीकार परूंगा, ममर पात्मानों के पद-चिह्नों पर चलता हुना सत्य और साहस का जीवन व्यतीत करूंगा"
मनुष्य को मात्माभिव्यक्ति कर्म के माध्यम से होती है, ऐसा कर्म जो कष्टसाध्य और स्थायी हो और जो प्रात्मा को मुक्ति मोर विजय को घोषणा करने वाला हो । मनुष्य की निस्वार्थ भाव से फल की प्राक्षा का स्याग करके कर्म करना चाहिए । यही सच्ची चारित्रिक पूर्णता है। चरित्र मोर नैतिक श्रेष्ठता के बिना मनुष्य पशु बन जाता है और सत्यं, शिवं व सुन्दरं का अनुसरण पर वह प्रेम के मार्ग पर ऊँचा और अधिक ऊंचा उठता जाता है और मन्त में अमर प्रात्मानों में राज-मिहामन के पद पर मान होता है । मैतिक मूल्यों को स्थापना
माधानी नुपनी ने भारत माता की सच्ची मुक्ति के लिए मणुवत.
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भागात्री दुमी
पादोरमकामा महामायापर गरीतिक anाम ममने वामा मही है। महीfr frejार्ग मानिस गाना और सामाजिागान मे भी प्रतिक महोगनी निगा। गरिपाया गया
और गारे गमात्र के जीवन में मनिममामा मस्यों की स्थापना मंतिक पुनस्थान का सर्वाना मार्ग महामही ६ किलोगों के सामाजिक जीवन में मामा परिपनन हुने की मशीक्षा की जाए, यति मत गुपार पर ध्यान दिन किया जाए। म्पगियों रो ही समाज बनना है। यदिगा यति गम्मन बन जाए तो माना जिक उपान मे पथक प्रयाग के बिना होगमाज धर्म-रायण बन जाएगा।
जय कोई पनि प्रतिमा लेता है तो वह अपने को नतिक रूप में ना उठानेमा प्रयास करता है। यह अपने द्वारा प्रापन संध के प्रति शानिक भावना से प्रेरित होता है और इसलिए वह उम माधारण व्यक्ति को माना जिरो कानून अपवा सामाजिक प्रतिष्ठा के भय के प्रनावा और मिनी बात च प्रेरणा नही मिलती, ग्राज की दुनिया में अधिक मफल होता है।
प्रत्येक व्यक्ति में पेप्टता मोर महानना का स्वाभानिक अंग होता है बाई वह समाज के किसी भी वर्ग से सम्बन्धित पो न हो । यदि हम प्रत्येक व्यक्ति में मात्म-सम्मान की भावना उत्पन्न कर सकें और उसे अपने इन स्वाभाविक गुणों का ज्ञान करा सकें, तो चमत्कारी परिणाम पा सकते हैं। यदि मात्म-नान व प्रात्म-निष्ठा हो तो व्यक्ति के लिए सत्पथ पर चलना अधिक सरल होता है। ऐसी स्थिति में तब वह सदाचार का मार्ग निपंधक न रहकर विधायक वास्त. विकता का रूप ले लेता है। प्रतिज्ञा-ग्रहण का परिणाम ___ अणुव्रत-आन्दोलन अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य प्रौर अपरिग्रह के सुईिदित सिद्धान्तों पर पाधारित है, किन्तु वह उनमे नई सुगन्ध भरता है । कुछ लोग प्रतिज्ञानों और उपदेशों को केवल दिखावा पौर बेकार की चीजें समझ हैं, किन्तु भराल में उनमे प्रेरक शक्ति भरी हुई है। उनसे नि.स्वार्थ सेवा की ज्योति प्रकट होती है जो मानव-मन में रहे पशु-बल को जला देती है और उसकी राख से नया मामय जन्म लेता है, अमर पौर दवी प्राणी ।
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कुछ लोग यह तर्क कर सकते हैं कि ये तो युगो पुराने मौलिक सिद्धान्त हैं और यदि प्राचार्यश्री तुलसी उनके कल्याणकारी परिणामों का प्रचार करते हैं तो इसमें कोई नवीनता नहीं है । यह तर्क ठीक नहीं है । यह साहसपूर्वक कहन होगा कि प्राचार्यश्री तुलसी ने अपने शक्तिशाली दढ़ व्यक्तित्व द्वारा उनमे ते उत्पन्न किया है।
प्राचार्यश्री तुलसी अणुव्रत-अान्दोलन वो अपने करीब ७०० निस्वार्थ साह साध्वियों के दल को सहायता से चला रहे हैं। उन्होने माचार्यश्री के कडे मन शासन में रहकर और कठोर सयम का जीवन विताकर प्रात्म-जय प्राप्त व है । उन्होंने धाधुनिक ज्ञान-विज्ञान का भी अच्छा अध्ययन किया है। इस मतिरिक्त ये साधु-साध्वी दृढ़ मरल्पवान् हैं और उन्होने अपने भीतर सहिष्णुर पौर सहनशीलता को अत्यधिक भावना का रिकास किया है, जिसका है भगवान् बुद्ध के प्रसिद्ध शिष्यो मे दर्शन होता है । प्राध्यात्मिक प्रभियान
यह प्राध्यात्मिक कार्यकर्तामों का दल जब गांवो भोर नगरो में निकल है तो पाश्चर्यजनक उत्साह उत्पन्न हो जाता है और नैतिक गुणों को सच्च पर श्रद्धा हो पाती है। जब हम नगे पाँव साघम्रो के दल को अपना स्व सामान सपने कयो पर लिए देश के विभिन्न भागों से गुजरते हुए देखते हैं यह वल रोमाचक अनुभव ही नहीं होता, बल्कि वस्तुतः एक परिणामदा पाध्यात्मिक अभियान प्रतीत होना है।
साधुसाध्वियां श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। वे किमी वाहन का उपयं नहीं करते । उनका वाहन तो उनके अपने दो पाव होते हैं। वे साधारण किसी को सहायता नही लेते. उनका कोई निश्चित निवास-गृह नहीं होता न उनके पास एक पैसा ही होता है । माकि प्राचीन भारत के साधु-मन्तों परम्परा है, वे भिक्षा भी मांग कर लेते हैं । भ्रमर की तरह वे इतना ही पर करते हैं, जिससे दाता पर भार न पड़े।
प्राचार्यश्री तुलसीमायेर देवल लोगों को अपने जीवन पा सच्चा ल प्राप्त करने में सहयोग देने रा एक निःस्वार्थ प्रयास है। पूर्णता प्राप्त करने सार मी परतो पर गिड किया जा सका है। हिन्तु के लिए हम
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मनमरण कारा| मन हर भी मनाली पारितों को पी गोम पाप गरमा: काहन सपनो ग माग का हाति समर्पन ना पाहिला उममे थानिक सौगनास उसान होगा, परदर गी पौर गामायना और प्रेन का प्रसार होगा। समन्ययमूलक पादांगाद
पापायंग्री तुलसी मणुमत-मादोजन में भी महान है । निरगन्दे यह उनकी महान देन है, किन्तु यही सब कुछ नहीं है। उनकी प्रतिमा विविध है पौर उनकी दृष्टि सर्वव्यापी है। उनका समन्वयमूलक मारवाद उनकी सभा प्रवृत्तियों मे नये प्राण फूंक देता है। ऐमी प्रफुल्लता सा देता है जो बुद्धिगम्य . प्रतीत नहीं होती। मगर दुर्गणों का सोप हो जाता है तो संस्कृति का मागमन अवश्यम्भावी है। जब दुर्गुण, बुराई और पतन नामोप हो जाये तो संस्कृत का अपने पाप विकास होता है।
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वे प्राचीन भारत के अधिकांश धर्माचार्यों से महमत है कि इच्छा ही सारे दुखों की जा है। वे उनकी हग राय से भी सहमत हैं कि जब इच्छा पा प्रभाव नष्ट हो जाता है, तभी हम सर्वोच्च शान्ति पौर मानन्द की प्राप्ति कर सरते है।
लकसा के गात कालेज में एक माध्वी ने मस्तृत में भाषण दिया पा पौर हमे पता चला कि प्राचापं श्री माधु-साध्वियों को शिक्षा देने में अपना पापी ममय सचंपरने है । ये ममतप्राण्ड विद्वान, भोजस्वी यादा और गम्भीर चिन्तक हैं। पपने विचारों में प्रमगामी उत्साह और पसीम श्रा साप देगा बोने से दूसरे बोने तक अपना नंतिक पुतरस्पान का सन्देश
बहन वाम मा पार पनी यह होना है। इस दिन वार्य में हम पर भारत प्रेमी में हदय से महमानी बनने की प्रार्थना परते हैं। उत्थान के ऐगेरिनर प्रयाग मे ही रविको और शानियों की महान भारत की यह पल्पना गरार हो गरेगी। भारतीय संस्कृति हम सरकमा सभी मभिमदन पर है। रासस्थान पा यह मात दीपंत्रीयो हो और अपने पावन प्पेय रोमिटरे।
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: युगे-युगे
सस्कृति और युग
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नये संसार मे भारत, अपने स्वभाव और अपनी संस्कृति के अनुसार, राष्ट स्थान प्राप्त करने के लिए यत्न कर रहा है। पत्र भारत ने राजवातुभ्य प्राप्त कर लिया है । परन्तु स्वातन्त्र्य एक उपाय मात्र है । रा एक बड़े लक्ष्य को सिद्ध करना है तथा इस प्राचीन देश को नवीन है । यह एक बहुत बड़ा काम है और इसमें हर व्यक्ति का सहयोग है । इस देश की पुरानी सभ्यता और संस्कृति को इस नये युग के बनाना है । जीवन के हरएक विभाग में शामूल परिवर्तन लाना है । प्रारम्भ हो गया है। केन्द्रीय सरकार की जो पचवर्षीय योजनाएं चल उनका मुख्य उद्देश्य यही है। उनमे यद्यपि प्रार्थिक सुधार पर अधिक या जा रहा है, फिर भी अधिकारियो को इस बात का पूरा ज्ञान है कि प्रायिक उन्नति से, केवल दारिद्र्य-निवारण से, देश की उन्नति नहीं हो है । साथ-साथ अनेक सामाजिक सुधार भी आवश्यक हैं। शिक्षा क्षेत्र में बहुत पिछड़ा हुआ है । इस युग मे यह लज्जा और परिभव की बात यपि इस देश में अच्छे प्रच्छे विद्वान् भी मिलते हैं । परन्तु इस युग में ' की कसौटी ही दूसरी है । केवल बीस प्रतिशत आदमी ही पेट भर खा और सब भूखे रह जायें तो यह देश की समृद्धि नहीं कही जा सकती है । मच्छे विद्वान् भले ही मिलते हो, परन्तु अधिकाश जनता यदि निरक्षर है उन्नति की नहीं समझी जा सकती है । इतनी विद्वत्ता तो व्ययं गई, उसका साधारण जनता पर कोई असर ही नहीं हुआ। इस युग में रा जनता की उन्नति ही उन्नति समझी जाती है । इस दृष्टि से भी मे बहुत काम बाकी है।
काम इतना बडा और सर्वतोमुख है कि सारी जनता यदि बड़ी तत्परता एकता के साथ निरन्तर प्रयत्न करें, तब कार्य सिद्धि को सम्भावना है, नहीं लकुल नहीं है । कुछ इने-गिने व्यक्तियो के इस काम में भाग लेने से लक्ष्य नहीं हो सकता है । सारी जनता का सहयोग अपेक्षित है। बड़ा ऐकमत्य और उत्साह हो । चीन के सम्बन्ध में भारत में तरह-तरह की भावनाएं है । की राजनैतिक भौर पार्थिक व्यवस्था के बारे में भी यहाँ काफी मतभेद है । भारतीय चीन हो माये हैं और उन्होंने अपने-अपने अनुभवों का वर्णन भी
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भासायी हुन
fruit होने पर मnिit
A.KRRIEarth में मारा है। मीन की 147 को
मारमा प्रयोग HIT IIT
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1| उम में एक हैग1 daratमारे भारत में हो रासन रहा है। भागने का गरगेडा यानि किर वरमा भीरकोfat-बड़ी पाबना माईका रही है और जिनको आगोमाम मनापीको गया माग कपारी , गर गापा
भी
हो सय पहले मरेका प्रेमी र पा. पनेक बोटी-मोटी देनी रिया को का, राजा-महाराने मोर नपा प्राने-माने गम्र में महानमार राना यहरन रिमामलों में प्रजा का कोई भी प्रधिकार नहीं था। समाना भारत का कोई भी प्रसनही, जह!
म हो रहा हो और महीना का प्रधिकार न हो। मष्टि में मनात भारत एकही मूत्र में बात माह यह एक प्रकार की एकता है। यह प्रयव उन्ननिकाला है। इस बार पर बड़े-बड़े काम किये जा सकते हैं। चरित्र-भ्रम
छ सन्तोषजनक बातों के होने हए भो स्वानाध्य के बाद देश में प्रसन्तान फैल रहा है। पचवर्षीय योजनामो के सफल होने पर भी देश में शिकायतें मुन्न में पा रही हैं। ये दुःख को भावाजें साधारण जनता की दरिद्रता मोर पिछड़ा ह स्थिति के सम्बन्ध में नहीं हैं । चारो मोर से एक ही शब्द सुनने में माना है और वह है 'चरित्र-भ्रंश' । लोग अपने साधारण वार्तालाप मे, नेत-वर्ग अपन भाषणो में, यहो घापित करते हैं कि देश के सामने सबसे बड़ी समस्या बनता के चरित्र-भ्रश की है। धर्म मोर मानवता का पूरा तिरस्कार करके लोग माना स्वार्थ साधने में तत्पर हैं। जीवन के हरएक क्षेत्र में इस बात का अनुभव किया जा रहा है। जनता का ऐमा कोई भी वर्ग नहीं है जो हम चरित्र-भ्रश से करा हो। किसी वर्ग, दल, धर्म, सम्प्रदाय या बणं को दूसरों पर इस विषय न
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बामि युगे युगे योग करने का अधिकार नहीं है। जब तक गायोजी हमारे बीच थे, तब हम लोगों के एक बड़े पथ-प्रदर्शक थे। वे हरएक व्यक्ति को, हरएक दल हरएक वर्ग को, शासन के अधिकारियों को, समस्त देश को चरित्र की - से देखा करते थे। उनकी वही एक बसोटी थी। राजनीति के क्षेत्र में पौर चरित्र की रक्षा करते हुए काम करना असम्भव समझा जाता था। । सारा जीवन इस बात का प्रमाण है कि यह विचार अत्यन्त भ्रममूलक प्रविधिन अपनी प्रार्थना-समामो में जो छोटे छोटे दम-दम मिनट के भापरण । करते थे, उनमा मुग्य उद्देश्य जनता का चरित्र-निर्माण ही था। उनके ये रण वो मार्मिक थे, विचारगोन लोग उनकी प्रतीक्षा करते थे, समाचार में सबसे पहले उन्ही को पार करने थे और दिन में अपने मित्रों के साथ
पो चर्चा पाने थे । इन भाषणों का प्रभाय मरवारी कर्मचारियो पर, भारत और विधायिती पर, व्यापारियों पर, महाथों पर, धर्मोपदेशों पर, तो जनता पर पाना पा । पात्रोत्री के स्वर्गवाम होने के बाद उनका वर न पर भी रिक्त है। कोई भी उसको प्रहण करने में अपने को समथं न
iनिरपेक्षता बनाम धर्म-विमुखता
देश पुनिर्माण में सबसे बड़ा बाम मोय मोर प्रादेशिक पानों राहाहा है। यह साभारिक भी है। उनके पास शक्ति भी । भी है। इस बार में पागों की एक विशेष दृष्टि होती है। उन पपिसा पाकिती है। हमारे सामन यो प-निरपेश धामन । बड़ा गहै। वारता येतो हमाग सामन पप-दिपेश पास नहीं रिप में पेश नही हो परन्तु मदा धर्म में रिमुव नहीं है कोई सिनगामार धर्म की पानीरमाया पिरत यस्तुस्थिति यह है सिनको नार मंगोष्टि नहीं बनाई जा रही है। हम
मन तो बार पारमाविमा परि सही। हमारेन एमnिम स्टार के पार परिष गिर रहा है। पम्प नाहग में मिल उन्नति मार-माय परिधी पर हमारो रि-सिमसारमा सामना।
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पासायी गुनी
रिया है। वनों को पाने के रोगियों में वासना करने पर बल हो जाती है। चीन में मार और एका है। पीन को पाने की उम्र को उमाह माप भगीरप प्रवल कर रही भारत में पाया पाना है। बस यही प्रोधित 3 run.? कभम में नीबोना। मन में एकता है. मायामाल यह है कि मारे भानही राबनिक राम कर रहा है। भारत ने मगार का गवणे हा स माज का है और वह पर भी रहा है।
विएनी-सी योजना बनाई जा रही है और कानाको जानी है। इस काम मायों की ममता में सरकारी
पारी है. गाय गाभाग मरिन भी पाप हो स्वानुमय के पाये गा मंत्री रात्र पा, प्रतंक घोटी-मोटी देशी रिमा भी पों, राजा-महाराजे मोरपाय अपने माने गम्य में महानुनार राज करते थे। वही सव इन रियामों में प्रना का कोई भी अधिकार नहीं था। इस समय तो भारत का कोई भी पास नही, जहां प्रजातनम नहीं रहा हो मोर जहाँ प्रजा का अधिकार न हो। मष्टि से समम्त भारत एक ही सत्र में बाधा गया है। यह एक प्रकार की एकता है । यह अवश्य उन्नति का लक्षण है। इनके माधार पर बड़े-बड़े काम किये जा सकते है। चारिप-भ्रंश
कुछ सन्तोषजनक बातों के होने हुए भी स्वानन्थ्य के बाद देश में मसन्तोष फैल रहा है। पचवर्षीय योजनामो के मफल होने पर भी देश मे निकाय सुनने मे भा रही हैं। ये दुःख को प्रावाजें साधारण जनता की दरिद्रता और पिछड़ी हुई स्थिति के सम्बन्ध में नहीं हैं। चारों मोर से एक ही दाद सुनने में माता है और वह है 'चरित्र भ्रम'। लोग अपने साधारण वार्तालाप में, नेतु-वर्षे मपन भापणों में, यही घोपित करते हैं कि देश के सामने सबसे बड़ी समस्या बनता के चरित्र भ्रश की है। धर्म और मानवता का पूरा तिरस्कार करके लोग अपना स्वार्थ साधने में तत्पर हैं। जीवन के हरएक क्षेत्र में इस बात का अनुभव किया जा रहा है। जनता का ऐसा कोई भी वर्ग नही है जो इस परित्र-भ्रश से बचा हो। किसी वर्ग, दल, धर्म, सम्प्रदाय या वर्ण को दुमरों पर इस विषय में
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'म्भवामि युगे-युगे भियोग करने का अधिकार नहीं है । अब तक गायोजी हमारे बीच थे, तब कि हम लोगो के एक वरे पथ-प्रदर्शक धे। वे हरएक व्यक्ति को, हरएक दल जे, हरएक वर्ग को, शासन के अधिकाग्यिो को, समस्त देश को चरित्र की प्टि से देखा करते थे। उनकी वही एक बमोटी थी। राजनीति के क्षेत्र में एम मोर परिवबो रक्षा करने हा काम करना प्रगम्भव समझा जाता था। उनका सारा जीवन इस बात का प्रमाण है कि यह विचार अत्यन्त भ्रममूलक । प्रतिदिन अपनी प्रार्थना-सभाप्रो में जो छोटे छाट दम-द्रम मिनट के भाषण दया करते थे, उनसरा मुम्य उद्देश्य जनना का चरित्र-निर्माण ही था । उनके ये मापण बरे मामिक थे, विचारशील लोग उनकी प्रतीक्षा करते थे, समाचारपत्रों में सबसे पहले उन्ही शे पहा बरते थे और दिन में अपने मित्रों के साथ उन्हीं की चर्चा करते थे। इन भापणो का प्रभाय सरकारी कर्मचारियों पर, मध्यापक और विद्यार्थियो पर, व्यापारियों पर, गृहस्पो पर, घोरों पर, सारी जनता पर पहना धा । गाजी के स्वर्गवास होने के बाद उनका यह स्थान पर भी रिका है। कोई भी उमरो ग्रहण करने में अपने को समर्थ नही पा रहा है। धर्म निरपेक्षता बनाम धर्म-विमुखता
देश के पुननिर्माण में मरसे बसा नाम मोर पोर प्रादेशिक शामनों के द्वारा ही किया जा रहा है । यहाभाषिक भी है। उनके पान धक्ति भी है, धन भी है। परन्तु साम में सामनों की एक विशेष दष्टि होती है। उनका प्टि मधिवास प्राधिक होती है। हमारे सामन को धर्म-निरपेश सामन होने का बड़ा गई है। भारत में तो हमान शासन धर्म-निरपेक्ष भासन नही है। धर्म विप से निरपेक्ष भी हो हो, परन्तु मा धर्म में विमुप नही है।गईभी सासन सामा पर्म की उपेक्षा नही र सरता । परल बस्तुस्थिति यह है कि माननीबड़ी-बहरीकोनाएँ धर्म की रष्टि में नहीं बनाया होगहमाग सासनको रस पाहता है निता का परितगहो। हमारे मन को तरपनि में स्वासा के पति गिर रहा है। पन मामन विरबहस में पाक्षिक उन्नति के मार-गाय पीचर सर होहो जाएगो । धिनतिक मासा पस्न बरगवान राम
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प्राचाबंधी तुलसी
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नहीं है, वह तो जनता का काम है ।
प्राचीन भारत में परिस्थितियाँ भिन्न थीं । जनता में धर्म-बुद्धि अधिक पी, परलोक से डर था, धर्माचार्य के नेतृत्व में श्रद्धा थी । प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के प्रनेक धर्माचार्य होते थे और जनता पर बड़ा प्रभाव था। शासन और धर्माचार्यों का परस्पर सहयोग था । दोनों मिलकर जनता को चरित्र भ्रंश से बचाने थे । वह परिस्थिति अब नहीं है । प्रश्न यह है-पत्र क्या हो ?
धर्माचार्यों के लिए स्वरिणम अवसर
परिस्थिति तो अवश्य बहुत बदल गई है; परन्तु स्मरण रहे कि हम लोग अपने-अपने धर्म को सनातन मानते हैं । हम लोग मानते हैं कि परिस्थिति के भिन्न होते हुए भी मानव-जीवन मे कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो सनातन हैं, जिनको स्वीकार किये बिना मनुष्य जीवन सफल नही हो सकता है, मनुष्य सुख प्राप्त नही कर सकता है । भारत में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों का जन्म हुआ । हर एक धर्म और सम्प्रदाय अपने तत्वों को सनातन मानता है और उनको हर एक परिस्थिति में उपयुक्त मानता है इन तत्वो का रहस्य हमारे धर्माचार्य हो जानते हैं, वे ही साधारण जनता में उनका प्रचार कर सकते हैं। भारत में जो-जो धर्म और सम्प्रदाय उत्पन्न हुए, वे सब भारत में आज भी किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है । उनको परम्पराए भी अधिकाश सुरक्षित हैं । इन धर्मों के रहस्य जानने याने धर्माचार्य धीर माधु-सन्यासी हमारे ही बीच हैं और जगह-जगह काम भी कर रहे हैं। हाँ, अब शासन से उनका सम्बन्ध नहीं है उना प्राचीनकाल में था । तथापि इन धर्मो का रहस्य जानने वाले जनता ही के बीच रहते हैं और जनता के नगत है। क्या हमको यह भाशा करने वा अधिकार नहीं है कि इस पर समय में जब के कारण जनता ग्रत्रिक पीडित है हमारे धर्माचार्य और साधु-सन्यासी सपने को गंगठित करके देश के चरित्र-निर्माण का नाम अपने हाथ में ले ले । जनता मे इस प्रकार की मासा होना स्वाभाविक है और वर्गाचार्या वो वह दिलाने के लिए एक स्वर्णिम सवसर प्राप्त है कि हमारे प्राचीन धर्मों और सम्प्रदायों में भाग भी जान है ।
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दामि युगे-मुगे चार्यश्री तुलसी को दिव्य वृष्टि जिन धर्माचार्यों ने वर्तमान परिस्थितियो को पच्छी तरह से समझ कर इस अवसर पर, भारतीय जनता पार भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा र प्रेम से प्रेरित होकर उसकी रक्षा और सेवा करने का निश्चय किया, मे पाचार्यश्री तुलमी का नाम प्रथम गण्य है । प्राचार्यश्री ने अपना 'मरणमतदोलन' प्रारम्भ करके वह काम किया है जो हमारे सबसे बडे विश्वविख्यात । नहीं कर मकने थे। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देख लिया कि परित्र.
के क्या-क्या नरे प्रसर देश पर हो चुके हैं और अधिक क्या-क्या हो सकते - उन्होंने देखा कि इसके कारण देश का कृच्छ-सम्पाजित स्वातनाय सतरे में . चरित्र-ध्रा के कारण व्यक्ति, वर्ग, दल और जातियां परने-अपने स्वापं. धन में तत्पर है। देश, धर्म और मनिका चाहे जो भी हो जाए।चरित-श - एक बहुत करवा फर यह होता है कि अनना मे पारस्परिक विश्वास सर्वपा माप्त हो जाता है। जहां परस्पर विकास नहीं है, वहाँ मगठन नहीं हो सकता ; जहाँ फट होती है. वहाँ एकता नष्ट होती है। प्रम देश में फिर अलगजग होने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । नये-नये मूत्रों की मांग पारों मोर से उठ ही है। इनके पीछे व्यक्तियो का पोर वर्गों का स्वार्थ ाि प्रा है। भाषा
पापी भगर जिस प्रकार उत्तर भारत में द्रोह और हिमा के कारण हो रहे -उसी प्रकार दक्षिण भारत दौर लकर मे भी व्यक्तिगत जीवन में इतना विस्य पा गया है कि मयम का कुछ भी मुल्य नहीं रहा। भारतीय साति
पाप हो सयम है । सयम-प्राण घरगुत-मान्दोलन प्रारम्भ करके माशायी नमो ने अपनी धर्मनिष्या पौराषिता दिखलाई है।
प्रणा के अन्तर्गत बी परत हैं. भारतीय मराति स्वलभीपरिचय सने पालो लिए कोई राय नहीं है। भारत में जितने पमं जान्न ए, उन सब में ना प्रथम स्थान है। मोतिये सब सबममूलक है और अपम हो भारतीय धौ । प्राग है। अपवा पम-मार पा, पाहे वह भारतीय 7 पपा विदेगो, सरम हो किसी न किसी रूप में प्रारत है। इसको गीकार करने में किसी भी धर्म के भनुपियों को पापति नहीं होनी चाहिए।
ये ४३ लिए पर रहे परे है कि महामानमें भी बार है और
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प्राचार्यश्री सुनी
उनके पालन करने में प्रत्रिक प्राध्यात्मिक पावित प्रवेशित है । परन्तु मावारण व्यक्तियों के लिए प्रतों के पालन में भी चरित्र चाहिए। जनता में इन पांचों तों के प्रभाव मग रूप किये हुए हैं | महिसा ही को लीजिये। इसके प्रभाव का बहुत स्पष्ट रूप तो प्रामिष भोजन है । परन्तु इसके मोर मी म रूप है, जिनको पहचानने के लिए विकसित बुद्धि प्रवेशित है। इनके पालन में याग की धावश्यकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अगर कोई व्यक्ति सच्ची निष्ठा से इनका पान करे तो उसके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन हो जाता है। समाज से उसका सम्बन्ध मानन्दमय हो जाता है, वह भीतर से मुखी बन जाता है | यह है कि श्रद्धा हो । बो का पालन भीतरी प्रेरणा से हो, बाहर के दबाव से नहीं ।
भारतीय संस्कृति का एक पुष्प
जिस पद्धति से प्राचामंत्री तुलसी ने प्रणुव्रत प्रान्दोलन प्रारम्भ किया मौर उसको समस्त भारत में फैलाया, उससे उनके व्यक्तित्व का प्राबल्य और माहात्म्य स्पष्ट होता है । पहले तो उन्होंने इस काम के लिए अपने ही जैन-सम्प्रदाय के कुछ साधुषों और साध्वियों को तैयार किया । भव उनके पास अनेकों विद्वान्, सहनशील, हर एक परिस्थिति का सामना करने को शक्ति रखने वाले सहायक हैं जो पद यात्रा करते हुए भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में संचार करते हैं और जनता में नये प्राण फूंक देते हैं। उनकी नियमबद्ध दिनचर्या को देखकर जनता प्राश्चर्य चकित हो जाती है । उसके पीछे शताब्दियों को परम्परा काम कर रही है । प्राचार्यश्री और उनके सहायको को जीवन शैली प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक विकसित पुष्प है। इस प्रकार की जीवन शैली भारत के बाहर नहीं देखी जा सकती है। इस पुष्प को प्राचार्यजी ने भारत माता की सेवा में समर्पित किया है । प्राजकल के गिरे हुए भारतीय समाज में प्राचार्यश्री का जन्म हुमा यही शुभ लक्षण है कि समाज का पुनरुत्थान प्रवश्य होगा ।
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आधुनिक भारत के सुकरात
महर्षि विनोद. एम० ए०, पी-एच०डी०, न्यायरत्न, दर्शनालंकार प्रतिनिधि, विश्व शान्ति प्रान्दोलन, टोकियो (जापान);
सदस्य, रायल सोसाइटी माफ पार्टस्, लन्दन
तपस्या सर्वश्रेष्ठ गुण है
-पौषिस्त (तंत्तरीय उपनिषद्, १.९) प्राचार्यश्री तुलसी एक अर्थ में माधुनिक भारत के सुकरात हैं। वह एक पारगत तकविद् हैं, किन्तु उनकी मुख्य शिक्षा यह है कि सत्य केवल वाद-विवाद का विषय नहीं, प्रत्युत प्रावार का विषय है । एक साताब्दी से अधिक की अग्रेजी शिक्षा ने भारतीय मानस को तप्रधान बना दिया है। महात्मा गाधी, प. मदनमोहन मालवीय और डा. राधाकृष्णन ने इस बुराई का प्रकटत. बहुत कुछ निवारण किया है। प्राचार्यश्री तुलसी ने भारत में मिघ्या तकंवाद की बुराई को दूर करने के लिए एक नया ही मार्ग अपनाया है। उनका भाग्रह है कि मनुष्य को नतिक अनुशासनों का पालन करके सत्यमय भोर ईश्वरपरायण जीवन बिताना चाहिए । छोटा प्राकार, विशाल परिणाम
इन दिनों हम घटनामों पौर वस्तुपों को विशालता से प्रभावित होते हैं और उनके पान्तरिक महत्त्व की उपेक्षा करते हैं। फासीसी गणितज्ञ पोय केर ने कहा है कि एक चींटी पहाड़ से भी बड़ी होती है। पहाड़ की एक छोटी सी पट्टान सासों बीटियों को मार सकती है, किन्तु पहाड़ को यह पता नहीं चलता कि उसे स्वयं पोपयवा चीटियों को क्या हुमा । इसके विपरीत हर चींटी को पौड़ा चौर मृत्यु का भयं विदित होता है। प्राचार्यश्री तुलसी की पररावत.
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पाचार्यश्री तुलसी
विचारधारा नैतिक अनुमान का महत्व प्रस्ट करती है । यह मनुशासन माकार मैं छोटा होते हुए भी परिणाम की दृष्टि से बहुत विधान है
अपने प्रारम्भिक जीवन में प्राचार्यथी तुलसी ने परत कड़े प्रशासन का पालन किया। वे यह मानते थे कि कठोर तपस्या के द्वारा ही मनुष्य इस संसार में नया जीवन प्राप्त कर सकता है। नये जीवन का यह पुरस्कार प्रत्येक व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से प्राप्त कर सकता है। नया जीवन भरने पाप नहीं मिलता । उसे प्राप्त करना होता है । माचार्य तुमी के कथनानुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। भारत जैसे देश में ही प्राचार्य तुलसी जैसे महापुरुष जन्म से सकते है । तपस्या के द्वारा नया जीवन प्राप्त करने के लिए भारतीय पूर्वजों का उदारहण मौर भारतीय सांस्कृतिक सम्पदा अत्यन्त मूल्यवान् भाती है ।
मैं प्राचार्य तुलमी से मिला हूँ। मैंने अनुभव किया कि वे ईश्वरीय पुरुष हैं और उन्होने ईश्वर का सन्देश फैलाने मीर उसका कार्य पूरा करने के लिए ही जन्म धारण किया है । वे न भूतकाल मे रहते हैं, न भविष्य काल में । वे दो नित्य वर्तमान में रहते हैं। उनका सन्देश सत्र युगो के लिए और सारी मानवजाति के लिए है ।
ईश्वर द्वारा मनुष्य की खोज
अज्ञात काल से मनुष्य का आन्तरिक विकास केवल एक सत्य के माधार पर हुमा है । वह सत्य है— मानव द्वारा ईश्वर की खोज । इस बात को हम बिल्कुल दूसरी तरह से भी कह सकते हैं कि ईश्वर भी मनुष्य की सोज कर रहा है । ईश्वर को मनुष्य की खोज उतनी ही प्रिय है जितना कि मनुष्य ईश्वर की खोज करने के लिए उत्सुक है। एक बार यदि हम समझ लें कि ईश्वर और मनुष्य दो पृथक सिद्धान्त नहीं हैं, पूर्ण मनुष्य हो स्वयं ईश्वर होता है तो दुनिया के सभी धर्म आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के भिन्न-भिन्न मार्ग प्रतीत होगे । जब मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार करता है तो वह केवल मपनी सर्वश्रेष्ठ मात्मा का ही साक्षात्कार करता है ।
थाचार्य तुलसी के सन्देश का आज के मानव के लिए यही प्राशय है कि स्वयं अपने लिए अपनी अन्तरात्मा के अन्तिम सत्य का पता लगाये । यही
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माधुनिक भारत के सुकरात देवत्व का सिद्धान्त है । उन्होने स्वयं पूर्ण दर्शन की स्थापना की है, जिसके द्वारा मनुप्य आत्म-ज्ञान के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। अणुव्रत उनके व्यावहारिक दर्शन का नाम है मौर वह आज के अणु-युग के सर्वथा उपयुवत है।
प्रण शब्द का अर्थ होता है-छोटा और व्रत शब्द का अर्थ है-स्वयं स्वीकृत अनुशासन । जैमिनी के अनुसार व्रत एक मनो व्यापार है, बाह्य कर्म नही । प्ररण भौतिक पदार्थ का सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाग होता है । प्राधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि एक भौतिक प्रणु मे अनन्त शक्ति छिपी हुई है । त्रिसूत्री उपाय
प्राचार्य तुलसी ने इस वैज्ञानिक सत्य का मनुष्य के नैतिक और आध्या. मिक प्रयास के क्षेत्र में प्रयोग किया है । उन्होने यह पता लगाया है कि छोटेसे-छोटा स्वय स्वीकृत भनुशासन मनुष्य की हीन प्रकृति को मामूल बदल सकता है। मनुष्य को प्रान्तरिक प्रकृति को परिष्कृत करने के लिए दिखाऊ त्याग करने अथवा भक्तिपूर्ण कार्यों का प्रदर्शन करने की आवश्यकता नहीं होती। यह उपाय त्रिमूत्री है : १. गहरी व्याकुलता, २. प्रसदिग्ध सकल्प और ३. एकान्त निष्ठा।
१. हम में पात्म-विकास को गहरी व्याकुलता उत्पन्न होनी चाहिए। हम बाहरी वस्तुमो पोर वातावरण मे बहुत अधिक व्यस्त रहते हैं। हमको अपनी अन्तरात्मा को नवीन विशालता को पहचानना चाहिए। फासीसी यथार्थवादी लेखक सरतरे ने इस व्याकुलता को ही वेदना का नाम दिया है । व्याकुलता की यह भावना इतनी तीव्र होनी चाहिए कि हर क्षण वेचनी पोर व्यग्रता अनुभव हो।
२. माध्यात्मिक प्रगति के लिए स्पष्ट सुनिश्चित संकल्प मत्यन्त प्रावश्यक है। इन दिनों किनारे पर रहने का फैशन चल पड़ा है। लोग कहते हैं, हम न इस तरफ हैं, न उस तरफ । राजनीति मे यह उचित हो सकता है, किन्तु भाध्या. त्मिक क्षेत्र मे तटस्थता का प्रथं जाता होता है । तटस्थता की भावना भय का चिह्न होती है। यदि हममें घना है और यदि हम भय से प्रेरित नहीं है तो स्पष्ट सकल्प करना कुछ भी कठिन नहीं हो सकता।
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पाचार्यश्री तुन .काय निष्ठा कापणं है-सम्पूर्ण पारम-रामपंग को पावन यिा वित पारमा उम जीवन में कुछ भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता पनिाय हमारे समय राममिशार है । प्राय सारी दुनिया में शिमा प्रवानिय इस मान्तरिक विघटन की बुराई का पोषण कर रही है । एमसन ने बहुत समय पूर्व दर बुराई के विरह वाया था। मारम-समर्पण की भावना हमको पान्तरिक मनुशासन का जीवन बिताने में ममयं बनायेगी। इस शताबों के शान्तिदूत
भाधुनिक जीवन दिखावटी हो गया है। उममे कोई गम्भीरता, कोई सार वकोई अर्थ नहीं है। मनुप्य सम्पएं प्रात्म-पान के किनारे पहेब गया है। मनुष्य यदि प्राचार्य नुससी के प्रात्मानुशामन के मार्ग का अनुसरण करे वो वह अपने फो मारम-नाच से बचा सकता है। प्रणवत की विचारधारा मनुष्य को अपने प्रान्तरिक प्रमों से सहने के लिए अत्यन्त शक्तिशाली स्त्र प्रदान करती है । प्रल्प अनुशामन प्राध्यात्मिक शक्ति का विशाल भण्डार सुलभ कर सकता है। प्राचार्य तुलसी प्रपने प्रणमत-मस्त्र के साथ इस शादी के शान्ति दूत हैं। हम मरणुव्रतों का व्याकुलता, दृढ संकल्प और निष्ठापूर्वक पालन कर उनके देवी पथ-प्रदर्शन के अधिकारी बनें।
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सुधारक तुलसी
डा० विश्वेश्वरप्रसाद, एम० ए०, डी० लिट अध्यक्ष, इतिहास विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
विश्व के इतिहास में समय-समय पर अनेक समाज-सुधारक होते रहे हैं, जिनके प्रभाव से समाज की गति एक सोधे रास्ते पर बनी रही है । जब-जब वह राजमार्ग या धर्ममार्ग को छोड़कर इधर-उधर भटकने लगता है, तब-तब कोई महान नेता, उपदेशक और सुधारक भाकर समाज की नकेल पकड़ उसे ठीक मार्ग पर ला देता है । भारतवर्ष के इतिहास मे तो वह बात घोर भी सही है । इसीलिए गीता मे भगवान् कृष्ण ने कहा था कि "जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब अधमं को हटाने के लिए में भवतरित होता हूँ ।" महान सुधारक ईश्वर के अश हो होते हैं मीर उसी की प्रेरणा से वह समाज को धर्म के राजमार्ग पर लाते हैं | समाज की स्थिरता और दृढता के लिए भावश्यक है कि वह धर्म की राह पकड़े | यह धर्म क्या है ? मेरी समझ मे धर्म वही है, जिससे समाज का अस्तित्व बने । जिस चलन से समाज विश्वखल हो भीर उसकी इकाई को ठेस लगे, वह श्रधर्म है। समाज को श्रृंखलाबद्ध रखने के लिए मौर उसके भगो-प्रत्यगो में एक्ता और सहानुभूति बनाये रखने के लिए धर्म के नियम बनाये जाते हैं । यद्यपि समाज की गति के साथ इन नियमो में परिवर्तन भी होता रहता है, फिर भी कुछ नियम मौलिक होते हैं जो सदा ही समान रहते हैं और उनके प्रकुलित होने पर समाज में शिथिलता था जाती है, धनाचार बढ़ता है और समाज का अस्तित्व ही नष्ट होने लगता है । ये नियम सदाचार बहलाते हैं और हर युग तथा काल मे एक समान हो रहते हैं । शास्त्रों में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन है । ये लक्षण मौलिक है मोर उनमे उथल-पुथल होने से समाज की स्थिति हो खतर में पड़ जाती है । सत्य, स्तेय, अपरिग्रह आदि ऐसे ही नियम है जो समाज के प्रारम्भ से माज तक और भविष्य में समाज के
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२९ पुनः कर्मकाण्ड में लिप्त हए । मठों और मन्दिरो के निर्माण, व्रतों और । को ही मब कुछ माना गया, जिससे भाचरण में शिथिलता । समाज ढीला पड़ने लगा और मापसी सम्बन्ध बिगड़ने लगे । राजनीतिक
साम्राज्यो का बनना-बिगहना सनिक बल पर ही माधारित था पोर । को हानि पहुँची । हर्ष के काल मे यह भावना उत्तरोत्तर मौर
तथा देश पर बाह्य पाक्रमण हए । देश के भीतर युद्धों की । चल पड़ी और विदेशी धर्म का भी प्रादुर्भाव हमा। जनसमह पबड़ा . सच्चे मार्ग को पाने के लिए छटपटा उठा । इस काल में अनेक धर्म
मौर नेता देश में अवतरित हुए, जिनका उपदेश फिर यही था कि प्राचरण ठीक करो, भक्ति-मार्ग का अवलम्बन करो पोर पारस्परिक - सामजस्य और सहिष्णुता को बढाम्रो जिससे मत-मतान्तरों के झगड़ों • उठकर सत्य-मार्ग का पाश्रय लिया जाए । प्रत्याचार से इसी मार्ग
मिल सकती थी। रा', रामानुज, रामानन्द, कबीर, नानक, तुलसी, दादू मादि अनेक कई सौ वर्षों में होते रहे और समाज को सीधे मार्ग पर चलाने का करते रहे जिससे उस समय के शासन और राजनीति की कठोरतामों के
हिन्दू-समाज पोर व्यक्ति शान्ति मोर मात्म-विश्वास कायम रख सका । देश पर पुनः एक संकट मठारहवी शती में पाया और इस बार विदेशी
और विदेशी संस्कृति ने एक जोरदार प्राक्रमण किया, जिससे भारतीय
पौर देश के धर्म का पूर्ण प्रस्तित्व ही नष्ट प्रायः हो गया था। पश्चिम ईसाई-सम्प्रदाय ने हिन्दुओं को अपने
.:. लकिया पौर कार्य में मिशनरी.लोगो को..
प्राप्त थी। .: शती के प्रारम्भ में देश
धार्मिक माचरण . शास्त्रयुक्त ,
यहां के वासी पश्चात्य
विशेषत: नई प्रग्रेजी । परम्परामों, बुरी पा नास्तिकता को
बचाने का
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मुघारक तुलसी माधिक दया मुपरे । इस योजना के लिए पावश्यक था कि सुचरित्र परहित. रत, कतव्य-परायण, सदाचारी नेता, हारिम, मापारी, शिक्षक, कारोगर प्रादि देश के विकास की बागरीर परने हाथ में हैं। यदिइन वगों में सदाचारी कमोदई तो देखकरहित न होकरहित हो जाएगा और देश उन्नति की भोर भासर नहीं हो सकता। दुर्भाग्यवस जिस समय यह मुपवसर पाया और पाया हुई कि सब इतने क्यो के कठोर परिश्रम मोर त्याग के फलस्वरूप देश की उन्नति होगी भोर गरीबी मिटेगो, उस समय देखा गया कि कर्मचारियों, नेतापों, व्यापारियों भादि में मनापार और स्वापं को द्धि हो रही है क्योकि पर इनके लिए निस्य नये अवसर प्राने लगे। अगर यही क्रम बना रहा तो नई योजना का कोई सामने होगा और उनकी सफलता सदिग्ध बन जाएगी। देश में चारों भोर यही मावाज उठने लगी कि शासन को इस प्रकार के मगर-- मच्छो से माया पाए पोर भ्रष्टापार (Corruption) को दूर किया जाए।
ऐसे समय में मापायं तुलसी ने अपने मात-पान्दोलनको प्रबल किया भोर अनेक वर्षों के सदस्यों को पुन. सदाचार को पोर प्रेरित किया। प्राचार्य तुलसी ने यह काम पहले ही शुरू कर दिया था, पर इसकी प्रधानता और गतिशीलता स्वतत्रता के बाद, विशेष रूप से बढ़ी। इनका यह मान्दोलन अपने हंग का निराला है। घमं के सहारे व्यक्ति को ये प्रती बनाते हैं मोर उसको इस प्रकार बल देकर कुमार्ग मोर कुरीतियों से अलग करके सदाचार बी भोर अग्रसर करते हैं। यह बात छोटे-छोटे होते हैं, पर इनका प्रभाव बहुत ही गम्भीर होता है, जो व्यक्ति तथा समाज के जीवन में क्रान्ति ला देता है। व्यापारियों, सरकारी कर्मचारियो, विद्यार्थियों शादि में यह पान्दोलन चल चुका है और इसके प्रभाव में सहसों व्यक्ति मा चुके हैं। पाज इसकी महत्ता स्पष्ट न जान पड़े, पर कल के समान में इसका असर पूरी तरह दिखाई पड़ेगा, जन समाज पुनः सदाचार मौर धर्म द्वारा अनुप्लावित होगा और भविष्य में प्राज की बुराइयो का अस्तित्व न होगा । प्राचार्य तुलसी और उनके शिष्य मुनिगण का कार्य भविष्य के लिए है और नये समाज के सगठन के लिए सहायक है। इसकी सफलता देश के कल्याण के लिए है। पाशा है, यह सफल होगा और प्राचार्य तुलसी सुधारकों को उस परम्परा में जो इस देश के इतिहास में बरावर उन्नति लाते रहे हैं, अपना मुख्य स्थान बना जाएंगे । उनके उपदेश और नेतृत्व से समाज गौरवशील बनेगा।
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सुधारक तुलसी
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प्रार्थिक दशा सुधरे। इस योजना के लिए मावश्यक या कि सम्बरित्र, परहितरत, कम्पयरायण सदाचारी नेता, हानिम, कापारी, शिक्षक, कारोगर मादि देश के विकास की बागडोर भरने हाथ में लें। यदि इन वर्गों मे सदाचार की कमी हुई तो देश का वि न होकर प्रति हो जाएगा और देश उन्नति की पोर अग्रसर नहीं हो सकता । दुर्भाग्यवश जिस समय यह सुप्रवसर पाया और माया हुई कि सब इतने वर्षों के कठोर परिश्रम पोर त्याग के फलस्वरूप देश की उन्नति होगी मोर गरीबी मिटेगी, उस समय देखा गया कि कर्मचारियो, नेताओं,
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रियों मादि में मनाधार और स्वायं को वृद्धि हो रही है । नयोकि प्रब नए नित्य नये एवसर माने लगे। भगर यही क्रम बना रहा तो नई
का कोई लाभ न होगा और उनकी सफलता सदिग्ध बन जाएगी । रों पोर महो भावाज उठने लगी कि शासन को इस प्रकार के मगरचाया जाए मोर भ्रष्टाचार (Corruption ) को दूर किया जाए । जय में माचार्य तुलसी ने अपने प्रयुत-भान्दोलन को प्रबल दिया मोर कि सदस्यों को पुन सदाचार की पोर प्रेरित किया । प्राचार्य तुलसी पहले ही शुरू कर दिया था, पर इसकी प्रधानता और गतिशीलता स्वाद, विशेष रूप से बढ़ी । इनका यह भान्दोलन अपने ढंग का म के सहारे व्यक्ति को ये व्रतो बनाते हैं और उसको इस प्रकार | मोर कुरीतियों से अलग करके सदाचार की भोर प्रग्रसर पटे होते हैं, पर इनका प्रभाव बहुत ही गम्भीर होता
समाज के जीवन में प्रान्ति वा देता है । व्यापारियों, सरकारी थियों भादि मे यह प्रान्दोलन चल चुका है और इसके प्रभाव प्रा चुके हैं। प्राज इमको महता स्पष्ट न जान पड़े, पर कल । मसर पूरी तरह दिखाई पड़ेगा, जब समाज पुनः सदाचार
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| होगा और भविष्य में प्राज की बुराइयों का मस्तित्व उनके शिष्य मुनिगरण का कार्य भविष्य के लिए के संगठन के लिए सहायक है । इसकी सफलता देश के है, यह सफल होगा और प्राचार्य तुलसी सुधारकों को के इतिहास मे बराबर उन्नति लाते रहे हैं, अपना । उनके उपदेश और नेतृत्व से समाज गौरवशील बनेगा ।
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भाली पोर माग्दोमन को बारमारमा मार्ग पर घमासा पर शेर विरा; यो क रिना REET . . मही कर सकता है। याग गरपा , : रयाग पर गायींशी ने बल दिया और समुदाय को राष्ट्रहित के लिए स्थान सेवा प्रमुख पतंय, 'जननी की राजा का हो? -- है व्यवहार का प्राधिकर
। सुरागठित नहीं हो और इसी के पापा भारतवर्ष सर्वसात बनायी गई, तर उन्नति के नये राम । माथिक उन्नति को
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सुधारक तुलसी
४३ मापिक दशा सुधरे । इस योजना के लिए आवश्यक था कि सच्चरित्र, परहितरत, कर्तव्य-परायण, सदाचारी नेता, हाकिम, व्यापारी, शिक्षक, कारीगर प्रादि देश के विकास की बागडोर अपने हाथ में लें। यदि इन वगों मे सदाचार की कमी हुई तो देश का हित न होकर प्रहित हो जाएगा और देश उन्नति की भोर मासर नहीं हो सकता । दुर्भाग्यवश जिस समय यह सुअवसर प्राया और माशा हुई कि प्रब इतने वर्षों के कठोर परिश्रम और त्याग के फलस्वरूप देश की उन्नति होगी और गरीबी मिटेगी, उस समय देखा गया कि कर्मचारियों, नेताओं, व्यापारियों प्रादि मे अनाचार और स्वार्थ को वृद्धि हो रही है ; क्योकि अब इनके लिए नित्य नये अवसर प्राने लगे। मगर यही क्रम बना रहा तो नई योजनामों का कोई लाभ न होगा और उनकी सफलता सदिग्ध बन जाएगी। देश में चारों पोर यही मावाज उठने लगी कि शासन को इस प्रकार के मगरमच्छों से बचाया जाए और भ्रष्टाचार (Corruption) को दूर किया जाए।
ऐसे समय मे भाचायं तुलसी ने अपने प्रावत-मान्दोलन को प्रबल किया और भनेक वगो के सदस्यों को पुन. सदाचार की और प्रेरित किया। प्राचार्य तुलसी ने यह काम पहले ही शुरू कर दिया था, पर इसकी प्रधानता और गतिशीलता स्वतनता के बाद, विशेष रूप से बढ़ी । इनका यह भान्दोलन अपने ढंग का निराला है। धर्म के सहारे व्यक्ति को ये प्रती बनाते हैं और उसको इस प्रकार बल देकर कुमाग भौर कुरीतियों से अलग करके सदाचार की भोर अग्रसर करते हैं। यह व्रत छोटे-छोटे होते हैं, पर इनका प्रभाव बहुत ही गम्भीर होता है, जो व्यक्ति तथा समाज के जीवन मे क्रान्ति सा देता है। व्यापारियों, सरकारी कमंपारियों, विद्यार्थियों मादि में यह प्रान्दोलन चल चुका है और इसके प्रभाव में सहस्रों व्यक्ति भा गुके हैं। प्राज इसकी महत्ता स्पष्ट न जान पड़े, पर कल के समाज में इसका प्रसर पूरी तरह दिखाई पड़ेगा, जब समाज पुनः सदाचार पोर धर्म द्वारा अनुप्लावित होगा पौर भविष्य में प्राज की बुराइयों का अस्तित्व न होगा । मायार्य तुलसी और उनके शिष्य मुनिगणना कार्य भविष्य के लिए है पोर नये समाज के संगठन के लिए सहायक है। इसकी वफलता देश के कल्याण के लिए है। माग है, यह सफल होगा भोर मालार्य तुलसी सुधारको को उस परम्परा में जो इस देश के इतिहास मे बराबर उन्नति लाते रहे हैं, अपना मुख्य स्थान बना जाएंगे। उनके उपदेश मोर नेतृत्व से समाज गौरवशील बनेगा)
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मेरा सम्पर्क
का० यशपाल
लाहौर-पड्यन्त्र के शहीद सुखदेव और मैं लाहौर के नेशनल कालेज में सहपाठी थे। एक दिन लाहौर जिला-कचहरी के समीप हमे दो श्वेतामर बन साधु सामने से पाते दिखाई दिये । हम दोनो ने मन्त्रणा की कि इन साधुओं के अहिंसा-व्रत की परीक्षा की जाए। हम उन्हें देखकर बहुत जोर से हंस पड़े। सुखदेव ने उनकी मोर सकेत करके कह दिया, "देखो तो इनका पासा !" उत्तर में हमे जो श्रोध-भरी गालियां सुनने को मिली, उससे उस प्रकार साधुनों के प्रति हमारी प्रथक्षा, गहरी विरक्ति मे बदल गई।
मेरी प्रवृत्ति किसी भी सम्प्रदाय के अध्यात्म की पोर नहीं है। कारण यह है कि मैं इहलोक को पाथिव परिस्थितियो मोर समाज को जीवन-व्यवस्था स स्वतन्त्र मनुष्य को, इस जगत के प्रभावो से स्वतन्त्र चेतना में विश्वास नहीं कर सकता। मध्यात्म का मापार तप्यो से परखा जा सकने वाला मान नहा है। उमका भाधार केवल शाद-प्रमाण ही है। इसलिए मैं समाज का कल्याण माध्यात्मिक विश्वास में नहीं मान सकता । अध्यात्म में रति, मुझे मनुष्य का समाज से उन्मुश करने वाली और तथ्यों से भटकाने वाली स्वार्थ परक मारमराह ही जान पड़ती है। इसलिए प्रणवत-प्रान्दोलन के लक्ष्यो मे, सामाधिक बार राजनीतिक उन्नति की अपेक्षा माध्यात्मिक उन्नति को महत्व देने की घोषणा ये, मुझे कुछ भी उत्साह नहीं हुमा था।
जनदर्शन का मुझे सभ्य परिचय नहीं है। काकवचन्याय' से ऐसा समझता हूँ किचन-दसन ब्रह्माण्ड और ससार का निमारण मोर नियमन करत वाली किमी दरको दावित में विश्वास नहीं करता। वह परमार मारमा मे बियाम करना है, मनिएन मुनियों और मावायो द्वारा माया. मिक उन्नति का मस्त देने मादोलन की बात मुझे बिल्कुल असगन मोर ६५ गाव पड़ो। ऐने मान्दोलन को पन मन्तब-चिन्तन की पारमाति
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मेरा सम्पर्क
ही समझता था।
दो-तीन वर्ष पूर्व प्राचार्य तुलसी लखनऊ में माये थे। प्राचार्यश्री के सत्संग का भायोजन करने वाले सज्जनो ने मुझे सूचना दी कि पाचार्यश्री ने अन्य कई स्थानीय नागरिकों में मुझे भी स्मरण किया है । लड़कपन को कटु स्मृति के बावजूद उनके दर्शन करने के लिए चला गया था। उस सत्सग मे आये हुए प्रधिकाश लोग प्राय प्राचार्य तुलसी के दर्शन करके ही सन्तुष्ट थे। मैंने उनसे सक्षेप मे मात्मा के प्रभाव मे भी पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे कुछ प्रश्न पूछे थे और उन्होने मुझसे समाजवाद की भावना को व्यवहारिक रूप दे सकने के सम्बन्ध में बात की थी। ____ प्राचार्य का दर्शन करके लौटा, तो उनकी सौम्यता और सद्भावना के गहरे प्रभाव से सन्तोप अनुभव हुपा । अनुभव किया, जैन साधुमो के सम्बन्ध में लड़कपन की कटु स्मृति से ही धारणा बना लेना उचित नहीं था।
दो बार प्रौर-एक बार अकेले पोर एक बार पत्नी-सहित आचार्य तुलसी के दर्शन के लिए चला गया था और उनसे प्रात्मा के अभाव मे भी पुनर्जन्म की सम्भावना के सम्बन्ध में बातें की थी। उनके बहुत सक्षिप्त उत्तर मुझे तक. संगत लगे थे। उस सम्बन्ध में काफी सोचा , और फिर सोच लिया कि पुनर्जन्म हो या न हो, इस जन्म के दायित्वों को ही निबाह सर्फ, यही बहुत है।
एक दिन मुनि नगरानी व मुनि महेन्द्रकुमारजी ने मेरे मकान पर पधारने की कृपा की। उनके पाने से पूर्व उनके बैठ सकने के लिए कसियां हटा कर एक तस्त डालकर सोतलपाटी बिछा दी थी। मुनियों ने उस तस्त पर बिछी सीतलपाटी पर आसन ग्रहण करना स्वीकार नही किया। तस्त हटा देना पड़ा। फर्श की दरी भी हटा देनी पड़ी। तब मुनियो ने अपने हाथ मे लिये चंवर से फर्श को झाड़ कर अपने पासन बिछाये मोर बैठ गये। मैं और पत्नी उनके सामने फर्श पर ही बैठ गए।
दोनो मुनियों ने मावसंवादी दृष्टिकोण से शोपणहीन समाज की व्यवस्था के सम्बन्ध में मुझसे कुछ प्रश्न किये । मैंने अपने ज्ञान के अनुसार उत्तर दिये । मुनियों ने बताया कि प्राचार्यश्री के सामने घरगुवत-मान्दोलन की भूमिका पर एक विचारणीय प्रश्न है । प्रणव्रत में पाने वाले कुछ एक उद्योगपति अपने उद्योगों को शोपण-मुक्त बनाना चाहते हैं, पर अब तक उन्हें एक समुचित
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पराधी
मारा
नही पहना -भारत का मान-दामा को मान न गुममा ना । महिला में मामूलन
मायाHI REit भीगार। NATiraimit fan I उग-पन्नों से परिमान मदहोगा,
गोदोमो । उम्पो पET तो प्रमोचन ही महा IF TRUTH में घर पर मार में बिना मन बने उससे
पिनार मेर-भर में पाने के लिए मीन की तो मानों में होने पाप नामक कारण नहीं हो
निगोपिया ना जाने के कारण या माम मा गरम करने काम में समान से न जाने के कारण तापी -नहि पिार मे उपोम-पा मारम्भ करें तो उनसेनमा गुमतमा पर पोर प्रषिकमे-पशिक सादन में होगी। उन उपोष-पारा प्रारको को जति जीवित देने का भी समेट लाम होना चाहिए, परन्तु यह नाभ किसी मसिन-
विरको सम्पत्ति नहीं, बल्कि भमिकों को ही सम्मिलित सम्पत्ति मानी जानी पाहिए । मापनों को कायम सने और बहाने पतिरिक्त बहलाम-धन उन उद्योग-धन्धों में समे हुए श्रमिकों को शिक्षा, चिकित्सा तपा सांस्कृतिक मुविधाए देने के लिए उपयोग में लाया जा सरता है। परन्तु उयोग-धन्धों से नाम पवाय होना चाहिए। समाजवादी देशो में ऐसा ही किया जाता है।
मेरी बात से मुनियों का समाधान नहीं हुपा । उन्होंने वहा-जिस प्रणाला पोर व्यवस्था मे लाभ का उद्देश्य रहेगा, उस व्यवस्या से निश्चय ही शोपण होगा । वह व्यवस्था और प्रणाली महिंसा मोर पारस्परिक सहयोग की नहा हा देगी।
मैं मुनियों का समाधान नहीं कर सका; परन्तु इस बात से मुझे अवश्य तोप हुमा कि प्रणवत-प्रान्दोलन के अन्तर्गत शोषण मुक्ति के प्रयोगों पर चा जा रहा है। मैंने मुनिजी से अनुमति लेकर एक प्रश्न पूछा-~-माप अपने व्यक्तिगत र्य को छोड़कर समाज-सेवा करना चाहते है ; ऐसी अवस्था में मापका पाज और सामाजिक व्यवहार से पथक रहकर जीवन बितामा क्या तर्कसगठ
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मेरा सम्पर्क मोर सहायक हो सकता है ? इसमे वैचित्र्य के अतिरिक्त कौन सार्थकता है ? इससे मापको मसुविधा ही तो होती होगी।
__ मुनिजी ने बहुत शान्ति से उत्तर दिया-हमे असुविधा हो, तो उसकी चिन्ता हमे होनी चाहिए । हमारे वेश अथवा कुछ व्यवहार प्रापको विचित्र लगे हैं, तो उन्हें हमारी व्यक्तिगत रुचि या विश्वास की बात समझ कर उसे सहना चाहिए। हमारे बो प्रयत्न पापको समाज के हितकारी जान पड़ते हैं, उनमे तो भाप सहयोगी बन ही सकते हैं !
मुनिजी की बात तर्कसगत लगी। उनके चले जाने के बाद ख्याल' प्राया कि यदि किसी को व्यक्तिगत रुचि और सन्तोष, समाज के लिए हानिकारक नहीं हैं, तो उनसे खिन्न होने की क्या जरूरत ? यदि मैं दिन-भर सिगरेट फूकते रहने की अपनी पादत को मसामाजिक नहीं समझता, उस प्रादत को क्षमा कर सकता है, तो जैन मुनियो के मुख पर कपड़ा रखने और हाथ में चंबर लेकर चलने की इच्छा से ही क्यों खिन्न हूँ ? प्राचार्य तुलसी की प्रेरणा से भगुवत-आन्दोलन यदि माध्यात्मिक उन्नति के लिए उद्बोधन करता हमा जनसाधारण के पार्थिव कष्टों को दूर करने और उन्हें मनुष्य की तरह जीवित रह सकने मे भी योगभूत बनता है तो मैं उसका स्वागत करता है।
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मानवता के पोषक, प्रचारक व उन्नायक
श्री विष्णु प्रभाकर क्सिी व्यक्ति के बारे मे लिखना बहुत कठिन है । कहूँगा, संकट से पूर्ण है। फिर किसी पंथ के प्राचार्य के बारे में। तब तो विवेक-वधि की उपेक्षा करके श्रद्धा के पुष्प अर्पण करना ही सुगम मार्ग है । इसका यह अर्थ नहीं होता कि श्रद्धा सहज होती ही नहीं ; परन्तु जहाँ श्रद्धा सहज हो जाती है, वहाँ प्रायः लेखनी उठाने का अवसर ही नही पाता । श्रद्धा का स्वभाव है कि वह बहुधा बम में जीती है। लेखनी मे अक्सर निर्णायक बुद्धि ही वागत हो माती है और वही संकट का क्षण है । उससे पलायन करके कुछ लेखक तो प्रशसात्मक विशेषणों का प्रयोग करके मुक्ति का मार्ग इंद लेते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो उतने हो विशेपरमो का प्रयोग उसकी विपरीत दिशा में करते हैं। सच तो यह है कि विशेषण के मोह से मुक्त होकर चिन्तन करना संकटापन्न है । वह किसी को प्रिय नही हो सकता। इसीलिए हम प्रशसा प्रपवा निन्दा पों में सोचने के मादी हो गए।
फिर यदि लेखक मेरे जैसा हो, तो स्थिति मोर विषम हो जाती है। माचापंथी तुलसी गगी जन श्वेताम्बर तेरापंथ को गुरु परम्परा के नवम पट्टधर प्राचार्य हैं और मैं तेरापथी तो क्या, जैन भी नहीं है। सप पूछा जाए तो वहीं भी नही हूँ। किमी मत, पंथ अथवा दल में पपने को समा नहीं पाता। धर्म ही नहीं, राजनीति मोर साहित्य के क्षेत्र मे भी..." । लेकिन यह सब कहने पर भी मुक्ति क्या मुलभ है ! यह सब भी तो कलम से ही लिखा है। पब माश्वस्त करे या न करे, पराजिस तो कर ही देता है। इसलिए लिना भी अनिवार्य हो उठता है। विप प्रमृत यन रूपता है?
भार के दुम में हम गार पर खो है । पातरिश-पग है । परती को गोलाई
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मानावा पोपानारक ना
't पोकर गदर मत में हागए । मीनप्प पारा मानर पाखों में देख पाया है। मप्रगति ने मानग पनि को पासोतिरा भी किया है। दृष्टि की धमना की है।
फिर भी जागाह है, पर मानस पन्तर. मन मनी भी नहीं हिमा और पूजा को बाल विवाह मानर मोह भीदें,नि मापदाक्षिकता और जातीयता नीना पोर माम-ये सा उमे पो पूरी तरह सोहा है। धर्म मत पमा पचन हो, रात्र. नीति धौर माहिस्य में हो तो क्या बनरा विष पम्प माता है भने हो हम मनोक में परमाए पवा पुरु परासन करन ममें। उम सफलता पासा पर्य होगा, या मनुष्य अपनी मामा से हो हाप पी मनुष्यवा सापेक्ष हो मरती है, परन्तु मरे के लिए करने की कामना में, प्रपात 'स्व' को मोग करने की प्रति मे, मापेक्षता है भी, तो कमी-कम । यहा र पो गोल करना स्व को उठाना है।
मापार्यश्री तुलसी गणोर पाम जाने पाक मधमर मिना, चंगे हम मरप को हमने फिर से पहचाना हो। या कहें, उसकी पनि मे फिर से परिचय पाया हो। जब-जब भी उनसे मिलने से मोमाय हपा, तब तब यही अनुभव हुपा कि उनके भीतर एक ऐमी सात्यिक पति है जो मानवना वा फछ करने को पूरी ईमानदारी के साप भातर है। जो अपने पारों भोर फैनी मनास्था, कामरण हीनमा पोर मानवीयता को भस्म कर देना चाहती है। कला में सौन्दर्य के दर्शन
पहली में बहुन सक्षिप्त थी कि के भामह पर किहीं के साथ जाना पड़ा । जाकर देखता हूँ कि तुम-वेत वस्त्रधारी, मंझने पद के एकमेन प्राचार्य साधु मात्रियों से घिरे हमारे प्रणाम को मधुर माद मुस्कान से वीरार करते हुए पासीदि दे रहे हैं। गौर वर्ण, ज्योतिर्मय दीप्त नयन, मुख पर वित्ता का जहा गाम्भीयं नही, बल्कि प्रहणपोलता का तारस्य देखकर पाग्रह की पटता घुन-गुछ गई । यार नहीं पड़ता कि कुछ बहुत बात हुई हों; पर उनके सिप्य. शिष्याओं से कना-साधना के कुछ नमूने अवश्य देखें । सुन्दर हस्तलिपि, पात्रों पर चित्राकन : रामय या सदुपयोग तो पाश्री, साधुग्रो के निरालस्य का प्रमाण भी था । यह भी जाना कि साधु-दल शुष्कता था अनुमोदक नहीं है,
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मानवता के पोपक, प्रचारक व उन्नायक
श्री विष्णु प्रभाकर शिमीमति कार में लिपना रहन कटिन है। कहेगा, संकट से पूर्ण है। फिर रिमो पंप के पापा के वार में सब तो विक-वृद्धि की संसा करके बनानुप्प पंप करना हो मगम मार्ग है। इसका यह प्रमं नहीं होता कियता रहा होती ही नही; परन्तु जहाँ श्रमा महर हो जाती है, वहीं प्रायः सेसनी उठाने का प्रवमर ही नहीं माना। यहा का स्वभाव है कि वह बहुधा मर्म में जीती है। लेसनी में अक्सर निर्णायक बुद्धि हो जामुन हा माती है मोर वही संकट का क्षण है। उममे पलायन करके कुछ लेखक वा प्रासात्मक विशेषणों का प्रयोग करके मुक्ति का मार्ग लेते हैं। कुछ एक भी होते हैं जो उतने ही विशेषणों का प्रयोग उसको विपरीत दिशा में करत हैं। सच तो यह है कि विशेपण के मोह से मुक्त होकर चिन्तन करना संकटापन है । वह किसी को प्रिय नहीं हो सकता। इसीलिए हम प्रशंसा भयवा निन्दा के मयों में सोचने के प्रादी हो गए।
फिर यदि लेखक मेरे जैसा हो, तो स्थिति मोर विषम हो जाती है। आचार्यश्री तुलसी गणी जैन श्वेताम्बर तेरापथ की गुरु परम्परा के नवम पद्रधर भाचार्य हैं और मैं तेरापंथी तो क्या, जैन भी नही है। सच पूछा जाए तो कहीं भी नहीं है। किसी मत, पथ प्रथवा दल में अपने को समा नहीं पाता। धर्म ही नहीं, राजनीति और साहित्य के क्षेत्र मे भी..." । लेकिन यह सब कहने पर भी मुक्ति क्या सुलभ है ! यह सब भी तो कलम से ही लिखा है। प्रब तर्क पाश्वस्त करे या न करे, पराजित तो कर ही देता है। इसलिए लिखना भी अनिवार्य हो उठता है । दिप अमृत बन सकता है ? •m ज के युग मे हम कगार पर खड़े हैं । अन्तरिक्ष-युग है । धरती की गोलाई
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भानवता के पोपक, प्रबारक व उन्नायक
को लेकर सुदूर बतीत में हत्याएं हुई है। इसी तथ्य को प्राज का मानव प्रांखों से देख पाया है। इस प्रति ने मानस पटभूमि को प्रान्दोलित भी किया है। दृष्टि की क्षमता बढ़ी है । विवेक-द्धि भी जागत हुई है, पर मानव का अन्तरमन प्रभी भी वहीं है। हिमा और पणा की वात विवादास्पद मानकर छोड़ भी दें, लेकिन साम्प्रदायिकता और जातीरता, प्रर्यलोलुपना घोर मात्मर्य-ये सब उसे अभी पूरी तरह जकडे हुए हैं। धर्म, मत अथवा पथ में न हो, राजनौति और साहित्य मे हों, तो क्या उनका दिप अमृत बन सकता है ? मले ही हम चन्द्रलोक मे पहुँच आए अथवा शुक्र पर शासन करने लगे। उस सफलता माश अर्थ होगा, यदि मभूप्य प्रपनी मनुप्यता से ही हाथ धो बैठे ? मनुष्यता सापेक्ष हो सकती है, परन्तु दूसरे के लिए कुछ करने की कामना में, अपति 'स्व' को गौण करने को प्रति में, सापेक्षता है भी, तो कम-से-कम । वहाँ स्व को गोरा करना स्व को उठाना है।
प्राचार्यश्री तुलसी गणो के पास जाने का जब अवसर मिला, तव जैसे इस सत्य को हमने फिर से पहचाना हो या कहे, उसकी शक्ति से फिर से परिचय पाया हो। जब-जब भी उनसे मिलने का सौभाग्य हुप्रा, तव तव यही अनुभव हुप्रा कि उनके भीतर एक ऐसी सात्त्विक अग्नि है जो मानवता के हितार्थ कुछ करने को पूरी ईमानदारी के साथ माहर है । जो अपने चारों ओर फैली अनास्था, माचरण होनता और प्रमानवीयता को भस्म कर देना चाहती है। कला में सौन्दर्य के दर्शन
पहली भेंट बहुत सक्षिप्त यो । किन्हीं के मारह पर किन्हीं के साथ जाना पड़ा। जाकर देखता हूँ कि शुभ-पवेत वस्त्रधारी, मझले कद में, एक जैन प्राचार्य साधु माध्वियों से घिरे हमारे प्रणाम को मधुर मन्द मुस्कान से स्वीकार करते हुए भाशीर्वाद दे रहे हैं । गौर वर्ण, ज्योतिर्मर दीप्त नयन, मुख पर विद्वत्ता का उड़ गाम्भीर्य नही, बल्कि ग्रहणशीलता का तारल्य देखकर भागह की कटता पुन-पुछ गई। याद नहीं पड़ता कि कुछ बहुत बात हुई हों; पर उनके शिष्यशिध्यायों को कना-साधना के कुछ नमूने अवश्य देते । सुन्दर हस्तलिपि, पात्रों पर नि ; समय का सदुपयोग हो था ही, साधुमो के निरालस्य प्रमाण भी था । मह भी जाना कि साघु-दल सकता का अनुमोदफ नहीं
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पामाधी तुर में
करने की मा भीमा है। कोपोर माह-विहीन
अमीर में मनापाको TREET, भाषा देने वान को पलीगामा भीरको बागमका में भी कोई कमी नहीं था। बन का मही सगा। भाग प्रौर भोर में मुझे मचि है; और ग N EET पागहर भार नही है, को कभी एक बोझ बन कर पाता है। परन्तु यही पर पामार्यत्री सुनी वो जी-भरार पास से देखा नियाr-faनिमय करने का पनगा भी मिसा । रहत पछी तरह यार है। गनकोवामदीया प्रातिपय प्रानों को मेकर पाचाग्री में काफी स्पष्ट ही । तभी पायरिये सौम्य योर माय विहीन है। महिया पौरमपरिरह के मरने मार्ग में उन्हें इतना सहन यिाम है कि हार का समाधान करन में मस्तक पर कुछ अधिक जोर देना नहीं पडना । पानोरना से उत्तर नहीं होते। साहियाना उनो लिए नहा है. इसलिए अनिता भी नही है । ह केवल एकापना और माह-विहीन र समयंन । वे काल वसा है। कुछ कहना चाहते हैं बिना किसी माक्षर के प्रभावशाली ढग से प्रस्तुत कर दी है। प्राश्वस्त तो न तव हपा था, नमाज तक हो सका है : परन्तु विगट मानवता में उनकी मट मास्या ने मुझे निश्चय ही प्रभावित किया था। वह अर प्रान्दोलन के जन्मदाता हैं। उनकी दष्टि में चरित-उत्थान का वह एक सह. मार्ग है। कवि की भांति मैं अरावन की प्रण-बम में काव्यात्मा तुलना नहीं कर सकता। करना चाहंगा भी नही। उम सारे प्रान्दोलन के पीछे जो उदात भावना है, उसको स्वीकार करते हुए भी उसकी सचालन व्यवस्था में मेरा मारथा नहीं है। परन्तु उन द्रों का मूलाधार वही मानवता है, जो सला। है, अभिन्न है और है अजेय ।
विश्व में सत्ता का खेल है। सत्ताअर्थात स्व की महिमा : इसीलिए वह माल्याणकर है। इसी प्रकल्पारण का निकालने के लिए यह भएमा प्रान्दोलन है। इन सबका दावा है कि चरित्र-निर्माण द्वारा सता को कल्याण कर बनाया जा सकता है: पग मुझे लगता है कि उद्देश्य शुभ होने पर भी यह दावा ही सबसे बड़ो वाधा है । क्योकि जहाँ दावा है, वहाँ साधन
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जानवता के पोपक, प्रचारक उन्नायक चार सायन जुटाने वाले स्वयं सत्ता के शिकार हो जाते हैं. इसलिए उनशे नास-पाम दल उग पाते हैं। पंमा दे है पौर देकर मन-ही-मन सदस गुना माने को प्राशा रसते हैं। इसीलिए जमे ही सिदि-प्राप्त व्यक्ति का मार्गशुन मगन नहीं रहना, वे सताके दलदल में पारण्ठम जाते हैं। स्वयं माधापंधी ने रहा है-"धन पौर राज्य की सता में विलीन धर्मको विवहा बार तो कोई पतिरेक न होगा।" इसमें अधिक स्पष्ट और कटोर पदों का प्रयोग हम नहीं कर सकते। प्रियात्मक शक्ति और संवेदनशीलता
पर पायद यह तो विपातर हो गया। यह तो मरो अपनी मात्र है। राने घर वन-भादोलन के जन्मदाता को मानवता में मासका क्यों हो! जो यति नितिमूलकन मं को जन-कल्याण के क्षेत्र में में पाया, मानता में उमरी माय (RENR हो बाभन है। इसीलिए माय भी है। उनकी क्रियापक परिमोर सदनशीलता नियही सो नि RRAAT पितानानानामों पो से वायलिहरे-भरे मुरम्म प्रदेश में परिपतित कर देपो । कारमान नही लिखा है, 'सो महापुरी महारा का पता गयाना हो तो यह देखना चाहिए किन भरने से छोटे साप मा almaar है।" पापाश्री स्वभाव मे ही सबको समान मानते हैं। परन से हो धमे में सोच रही है पौर रे सार उन्हें पानी मातृधो को भोर से सात में मिमे है । महाने पोहो जोशमी ममभासमयमों में होने कहा है, "मेरमों का है, नियों है . नही. हानि है। धर्म र सलिए गमा है।" पोसत्र को सोशल कोमोजमा ओमपपोतो है,
गोको जानना mant, लिए नोरा.मोहरमहीमही कारण । मे विकास सहै। कोटि गमावा पीर समय में ही देखो विपक्षमा विरखनाaai कोनहीगारवार nt, 'मामा समamvोकर।" मोरिस परव-पारोबार में हो,
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विचारों से
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वर्तमान शताब्दी के महापुरुप
प्रो. एन. वो० वैद्य एम० ए०
फर्ग्युमन कालेज, पूना सदोष विदधाति हन्ति कुमति मियादृशं बाधते, धत्तं धर्मति तनोति परमे सवेगनिवेदने । राणादीन विनिहन्ति नीतिममला पुष्णाति हन्त्यलयं,
यदा किन करोति सद्गुरुमुखारभ्युद्गता भारती। महान पोर सद्गुरु के मुख से निकले हुए वचन सदज्ञान प्रदान करते हैं, दुर्मति का हरण करते हैं, मिथ्या विश्वासों का नाश करते हैं, धार्मिक मनोवृत्ति उत्पन्न करते हैं, मोक्ष को आकाक्षा और पार्थिव जगत के प्रति विरक्ति पैदा करते हैं, राग-देव प्रादि विकारों का नाश करते हैं, सच्ची राह पर चलने का साहस प्रदान करते हैं और गलत एवं भ्रामक मार्ग पर नहीं जाने देते । सक्षेप में, सद्गुरु क्या नहीं कर सकता ?
दूसरे शादों में, सद्गुरु इस जीवन में और दूसरे जीवन में जो भी वास्तव में कल्याणकारी है, उस सबका उद्गम मोर मूल स्रोत हैं।' शालाकापुरुप
इन पक्तियों का असली रहस्प मैंने उस समय जाना, जब मैंने चार वर्ष पूर्व राजगृह में प्राचार्यश्री तुलसी का प्रवचन सुना । कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो प्रथम दर्शन में ही मानस पर प्रतिक्रमणीय छार डालते हैं। पूज्य प्राचार्यश्री सचमुच में ऐसे ही महापुरुष हैं। जैन श्वेताम्बर तेरापय सम्प्रदाय के वर्तमान प्राचार्य को उनके चम्बकीय धारण भोर प्राररावान व्यक्तित्व के कारण भासानी से युगप्रधान, वर्तमान सताब्दी का महापुरुष अथवा शलाकापुरुष
१. उत्तराध्ययन पर रेवेन्द्र को टीका
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पाचार्यश्री र
(उच्चकोटि का पुरुष अथवा प्रति मानव) कहा जा सकता है। मेग अत्यन्त सद्भाग्य था कि मुझे उनके सम्पर्क में प्राने का अवसर मिला मौन उस सम्पर्क की मधुर और उज्ज्वल स्मृतियों को हमेशा याद रखेंगा । सता सद्भिः संग कयमपि हि पुण्येन भवति अर्थात् सत्संग किसी पुष्प से प्राप्त होता है।
उत्तराध्ययन सूत्र मे लिखा है कि चार बातो का स्यायो महत्त्व है। लोक इस प्रकार है:
चत्तारि परमगाणि दुल्लहागाह जंतुनो।
माणुसतं मुई सद्धा सजमम्मि य वौरियं ॥३.१॥ अर्थात विसी भी प्राणी के लिए चार स्थायी महत्त्व की बातें प्रावकर कठिन है। मनुष्य जन्म, धर्म का ज्ञान, उसके प्रति घना और पात्म-सम्म । सामध्य। उसी प्रकरण में भागे कहा गया है :
माशुस्स विगह सा मुई पामरस दुल्लहा। ३.६ ॥ अर्थात् मनुष्य जन्म मिल जाने पर भी धर्म का श्रवण कठिन है। दुमपतय नामक दशम अध्ययन में भी हमी भावना को दोहराया या
प्रहोग पचिरियत पिसे सहे
उत्तम घाम मुई। दुल्लहा।१०-१८॥ यदपि मनुष्य पांचों इन्द्रियों से सम्पन्न हो साता है, किनु असम पम शिक्षा मिलना लंभ होता है।
इमलिए किसी व्यक्ति के लिए यह परम सौभाग्य का हो विषय हो हा है उगे महानगर पथवा मरे पप-
पकमा सम्पर्क प्राप्त होका यो विधक मने मिसान्तों का निशान करना हो। सरसे मार पूर्ण वामहैरिको प्राने उदेशनमार सप प्रापारण भी करता भापारधी गुरमीक चम्बकीय पारगंज राम्चो और उनको चोर विधापो प्रचार .art हो मन पर पता है। उनका मान महारका समसामायिकमा युवानही है। इस . ने और उतरता, सापार विधानता काan tra
है। सदगारों मनि म्यान मारमा नमुना ६.
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वर्तमान पताब्दी के महापुरुष
"
कम-से-कम घोडे समय के लिए तो वे नित्य प्रति को चिन्तावों मौर भौतिक स्वायों के लिए होने वाले अपने नैरन्तरिक संघर्षो को भूल जाते हैं और संकुचित मौर दकियानूसी दृष्टिकोण को त्याग कर मानो किसी उच्च, भव्य और प्रो रिक जगत में पहुँच जाते हैं ।
बुराइयों की रामबाग पोि
शु-पालन जिसका पूज्य प्राचार्यश्री मचालन कर रहे हैं और जो प्रायः उनके जीवन का ध्येय ही है वास्तव में एक महान वरदान है पौर वर्तमान युग को रामस्त बुराइयों को रामबाग पौषधि होगी। दुनिया में जो व्यक्ति लोगों के जीवन मोर भाग्य-विधाता बने हुए हैं, यदि वे इस महान आयोजन पर गम्भीरता से विचार करें तो हमारे पृथ्वी-मण्डल का मुम ही एकदम बदल जाए मोर दुनिया में जो परस्पर भ्रात्मनाश की उमत पौर मावेशपूर्ण प्रतिस्पर्धा चल रही है, बन्द हो जाए तब निशस्त्रीकरण, माणविक अस्त्रों के परीक्षण को शेरने घोर मानव जाति के सम्पूर्ण विभाग के सर को टालने के लिए मयोपोडो बेकार की बसें करने को कोई प्रावश्यकता नहीं ह जायेगी | मनुष्य मरने को सृष्टिबाट मे गनुभव करता है । किन्तु स्मात् ये उद्गार फूट पड़ते हैं 'मनुष्य ने मनुष्य को मया बना दिया है ।'
पत्र मान्दोलन वास्तव में सम्प्रदायिक पान्दावन है पर उसको हमारी पनि सरकार का भी नविना चाहिए। यदि इस आन्दोलन के मूलभूत मिलों को नई दो को शिक्षा दी जाए तो वे बहुत मध्ये नागरिक बन सकेंग और वास्तव में विदश नागरिक बनाने के धिकारी किनेकोसम्बी-पोटी बातों के बजाय जो प्रायः बहुते कुछ है प्रकारका योजन राष्ट्रीय एकता को पूर्वक बिरसा
बुध है, और दमिक
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तरुण तपस्वी आचार्यश्री तुलसी
श्रीमती दिनेशनन्दिनी डालमिया, एम०
जिनको हम इतनी निकटता से जानते हैं, उनके बारे में कुछ कहना उ ही कठिन है, जितना प्रसुप्त प्रज्ञा के द्वारा शक्ति को सीमाबद्ध करना । धाचाश्री तुलसी को बचपन मे जानती हैं। कई बार सोचा भी था कि सुविधा से उनके बारे में अपनी धनुभूतियाँ लिखूं, पर ऐसा कर नहीं पाई उनके व्यक्तित्व को जितनी निकटता से देखा, उतना हो निखरा हुदा या उच्च जमाने में वे इतने विख्यात न थे, किन्तु विलक्षण अवश्य थे। उनकी तपश्चर्या, मन औौर दारीर को अद्भुत शक्ति और माध्यात्मिकता के तत्त्वांकर गुरु की दिव्य दृष्टि से छिप न सके और वे इस जैन संघ के उत्तराधिकारी चुन लिये गए । इन्होंने प्राचीन मर्यादामों की रक्षा करते हुए, सम्पूर्ण व्यवस्था को मौलिक्ता का एक नया रूप दिया । सारे सघ को बल बुद्धि और शक्ति क इक्ट्ठा कर तपश्वर्या और प्रात्म-शुद्धि का सुगम मार्ग बतलाते सकी पंडा हुए, के बन्धनों को काटते हुए, शान्ति स्थापना के सकल्प से भागे बढ़े। जन-समूह ने इनका स्वागत किया और तब इनका सेवा क्षेत्र द्रोपदी के चोर की तप विस्तृत हो गया । प्राचार्यश्री तुलसी ने धार्मिक इतिहास की परम्पराम्रों पर हूँ बल नहीं दिया, बल्कि व्यक्ति और समय की मावश्यक्ताओं को समझ उसने मनुरूप ही प्रपने उपदेशो को मोडा : संघ के स्वतन्त्र व्यक्तित्व मोर वैशिष्ट् का निर्वाह करते हुए साम्प्रदायिक भेदों को हटाने का भगीरथ प्रयत्न किया । सत्य, अहिंसा, स्तेय, ब्रह्मचयं और परिग्रह को जीवन-व्यवहार की मूल भित्ति मानने वाले इस संघ के सूत्रधार के उपदेशो से जनता प्राश्वस्त हुई। राज के की इस far परिस्थिति में, जब सेवा का स्थान स्वार्थ ने वश्वास का सन्देह ने, स्नेह घोर श्रद्धा का स्थान घुणा ने ले लिया है, राज उन्होंने भगवान् महावीर की महिला नीति का हर व्यक्ति मे समन्वय करते हुए ये दृष्टिकोण से एक नई पृष्ठभूमि तैयार को ।
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तरुण तपस्वी प्राचार्यश्री तुलसी
मानव को देव नहीं, मानव बनाने का इनका गम्भीर प्रयत्न, बिना किसी फल प्रौर कोति की माकांक्षा के निरन्तर चलता है। इनको अपने जीवन पथवा सेवा के लिए कोई मार्थिक साधन नहीं जुटाने पड़ते। बिना किसी प्रतिद्वन्द्विता की भावना से प्रभावित हुए अपने कार्यों को रचनात्मक रूप देते रहते हैं। पद और प्रशसा की भावना से उपराम होकर ये मानव की असहिष्णु हृदय भूमि को नैतिक हल से जोतते हैं । प्रेम और धर्म के बीजो को बोते हैं। शास्त्रों के निचुड़े हुए मकं से उन्हे सींचते हैं । क्षेत्र को तरह उसकी रखवाली करते हैं, यही उनके प्रस्तित्व भोर सफलता की कुंजी है। यही इस य का गुहातम इतिवृत्त है कि इतने थोडे काल में विज्ञान और विनाश की इस कसमसाती बेला में भी समाज मे इन्होने अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है।
नगरो मोर ग्रामो में घूम कर, छाया, पानी, शीत, प्रातप मादि यातनाएँ सहन कर लोक कल्याण करते हैं। जीवन की सफलता के भचूक मन्त्र इस पणुवत को इस महिमा के देवदूत ने एक सरल जामा पहना कर लोगों के सामने रखा। सुगन्धित द्रव्यों के धूम्रसमूह सा यह अनन्त प्रासमान में उठा मोर इहलोक भौर परलोक के द्वार पर प्रकाश डाला।
जर प्राचार्यश्री पद्मासन की तरह एक सुगम भासन में बैठते हैं तो उनके पारदर्शी ज्योति-विस्फारित नेत्रो से विशद प्रानन्द और नीरव शान्ति का स्रोत बहता है। उनकी वाणी में मिठास, मार्मिकता मोर सहन शान का एक प्रवाह-सा रहता है, जिसे सर्व साधारण भी सहज ही ग्रहण कर सकता है। जीवन को सुन्दर बनाने के लिए इनके पास पर्याप्त सामग्री है। __ मैं इतना कुछ जानते हुए भी इस धर्म के गद तत्वों को पार तक हृदयंगम नहीं कर सकी है, क्योंकि इन्होने मपने पापको इतना विद्याल बना लिया है कि लको जान सेना ही इनके प्रादों को सटीक समझ लेना है, क्योकि ये हो इनकी सत्यता के सागार प्रतीक हैं । वैसे तो सारे ही धर्म-पथ बड़े कटिन और काइ-खाबड़ है, परन्तु दम पथ के पधिक तो खाट की तीसो घार पर ही चलते है। पुरु के प्रति शिम्यों का पूर्ण मारम-समपंग पोर उनके व्यक्तित्व: इस तस्प तपस्वी के मादेशों में इस तरह समर जाते हैं, जैसे बृहत् साम का स्तुति-पाठ इन्द्र में समा जाता है।
एमाग की वेदी पर कमी का होम करने के बाद भी ये बडे कर्मठ है।
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महामानव तुलसी
प्रो० मूलचन्द सेठिया, एम० ए०
बिरला प्रार्ट स कालेज, पिलानी प्राचार्यश्री तुलसी का नाम भारत में नैतिक पुनरुत्थान के प्रान्दोलन का एक प्रतीक बन गया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रो में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाचायधी तुलसी द्वारा प्रवर्तित अणुव्रत-अान्दोलन अन्धकार में दीप-शिखा की तरह सबका ध्यान प्राकृट कर रहा है। एक मुग्ध विस्मय के साथ युग देख रहा है कि एक सम्प्रदाय के पाचार्य में इतनी व्यापक संवेदनशीलता, दूरदर्शिता मोर अपने सम्प्रदाय की परिधि से कार उठ कर जन-जीवन की नैतिक-समस्थापो से उलझने भौर उन्हें समझाने की प्रवृत्ति कैसे उत्पन्न हो ? भाचार्यश्री तुलसी को निकट से देखने वाले यह जानते हैं कि इसका रहस्य उनकी महामानवता मे छिपा है । मानवीय सवेदना से प्रेरित होकर ही उन्होंने प्रतिकता के विरुद्ध प्रणवत-मान्दोलन पारम्भ किया। पाज के युग मे, जव कि प्रत्येक घग एक-दूसरे से भ्रष्टाचार के लिए उत्तरदायी सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहा है और स्वयं अपने को निकोप घोषित करता है, पाचार्यश्री तुलसी अपने निलप व्यक्तित्व के कारण ही यह अनुभव कर सके कि भ्रष्टाचार एक बर्ग-विशेप की समस्या न होकर निखिल मानव-समाज की समस्या है। जितनी ध्यापक समस्या हो, उसका समाधान भी उतना ही मुलग्राही होना चाहिए। भाचार्यश्री तुलसी ने इस मानवीय समस्या का मानवीय समाधन हो प्रस्तुत किया है। उनका सन्देश है कि जन-जीवन के व्यापक क्षेत्र में, जो व्यक्ति जहां पर खड़ा है, वह पपने विन्द के केन्द्र से दत्त बनाते हुए समाज के अधिकाधिक भाग को परिपर करने का प्रयल करे । यही कारण है कि जब भन्याय विचारक विवाद पौर वितर्क के द्वारा प्यार के छिलके उतारते ही रह गये, भाचार्यश्री तुलसी अपनी निष्ठा और भार मानवीय संवेदना के सम्बय को लेकर भ्रष्टाचार
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की समस्या के व्यावहारिक समाधान में संलग्न हो गये ।
पवित्रता का वृत्त
यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी समस्या को उनके व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य मे ही समझा और सुलझाया जा सकता है; परन्तु जब तक सामाजिक वातावरण में परिवर्तन नहीं हो, तब तक हाय-पर-हाथ घर कर बैठे रहना भी तो एक प्रकार को पराजित मनोवृत्ति का परिचायक है । जो समाज-तन्त्र की भाषा मे सोचते हैं, वे बडे-बडे पकड़ों के मायाजाल में उत हुए निकट भविष्य में हो किसी चमत्कार के घटित होने की द्वारा में निवेष्ट बैठे रहते हैं, परन्तु जो मानव को व्यक्ति रूप में जानते हैं और नि रोकड़ों व्यक्तियों के सजीव - सम्पर्क मे माते हैं, उनके लिए का खुला रहता है। धाचार्यश्री तुलसी के लिए व्यक्ति समाज की एक इकाई नहीं; प्रत्युत समाज ही की है। वे समान से होकर पति के पास नहीं पहुँचने, वरन् व्यक्ति से होकर समाज के नि पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। समाज तो एक कल्पना है, जिसकी सरा व्यक्तियों को समष्टि पर निर्भर है, परन्तु व्यक्ति अपने पाप में हो सर है, हालांकि उसको सार्थकता समाज की युवापेक्षिणी होती है। मचार्यश्री सुनी का प्रश्नादोलन मी क्ति को लेकर चलता है, समाज तो उसका दूरमामी लक्ष्य है। पति को सुधार कर समाज के सुधार को चरम परि के रूप में प्राप्त करना चाहते है, समाज के सुधार को अनिवार्य परियति सुधार नहीं मानने। गनिए उन प्रारम्भिक में नया प्रतीत हो सकता है परन्तु उसमें महात्म्भावना की हुई है। निष्टा समाज में एक ऐसा पत्रकातो कोरोभी सम्पूर्ण समाज को बारे रेकी qat 47 670 feq14) K1 9414 KZT KR Wipez garbi मित्र, दार्शनिक और
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आचार्यश्री तुलसी
कार्डीने
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महामानव तुलसी प्रान्दोलन को एक नैतिक शक्ति का रूप प्रदान कर दिया है। इस पान्दोलन का मूलाधार कोई राजनतिक या प्राधिक सगठन नहीं, बल्कि प्राचार्यश्री तुलसी का महान् मानवीय व्यक्तित्व ही है। एक सम्प्रदाय के मान्य प्राचार्य होते हुए भी पावाप्रवर ने अपने व्यक्तित्व को शाम्प्रदाधिक से अधिक मानवीय ही बनाये रखा है। प्राचार्यप्रवर अणुवतियों के लिए केवल सप-प्रमुख ही नहीं, उनके मित्र, दार्शनिक और मार्ग-दर्शक (Friend, Philosopher and Guide) भी है। वे अपने जीवन की कटिनाइयो, उलझनों और सुम्ब-दुख की सैकड़ों वावें प्राचार्यश्री तुलनी के सम्मुख रखते हैं और उनको अपने संघ-प्रमुख द्वारा जो समाधान प्राप्त होता है, वह उनकी सामयिक समस्याम्रो को सुलझाने के साथ ही उन्हें वह नैतिक बल भी प्रदान करता है जो अन्तत प्राध्यात्मिकता की मोर पग्रमर करता है। पावार्यश्री तुलसी की दृष्टि मे 'हल है हल कापन जीवन का'। प्राचार्यप्रवर मनप्य के जीवन को भौतिकता के भार से हलका देखना चाहते हैं, उसके मन को राग-विराग के भार से हलरा देखना चाहते हैं और अन्तत. उसको पास्मा को कमो के भार से हलका देखना चाहते हैं। उनकी दृष्टि पद-तारे को धरह इसी जीय-मुक्ति की पोर लगी हुई है। परन्तु वै लघु मानव को मंगुली पकड कर धीरे-धीरे उस लक्ष्य की ओर भागे बढ़ाना चाहते है। मेरी दृष्टि में प्राचायंधी तुलसी माज भी समाज सुधारक नहीं, एक मात्मसाधक ही हैं और उनका समाज सुधार का लक्ष्य पात्म-साधना के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमिका निर्माण करना हो है।
माज के युग में जाकि प्रत्येक व्यक्ति पर कोई-न-कोई 'लेबल' लगा हमा हैपौर दलों के दलदल में फंसे हुए मानवता के पैर मुक्त होने के लिए छटपटा रहे किमी व्यक्ति में मगनव का हृदय और मानवता का प्रकाश देखकर चित्त मे मालार का अनुभव होता है। हमारा यह प्रासाद पाश्चयं में बदल जाता है. जब कि हम यह अनुभव करते हैं कि एक बहत एवं गौरवशाली सम्प्रदाय के भारारं होने पर भी उनकी निविरोप मानवता पात्र भी भक्षण्ण है। निस्सदेह भाचारंभी तुलसी एक महान साधक हैं, सहस्रो साधनों के एकमात्र मार्ग-निर्देशक है। एक धर्म सघ के व्यवस्थापक हैं और एक नैतिक प्रा-दोलन के प्रवर्तक । परन्तु और कुछ भी होने के पूर्व वे एक महामानव हैं। वे एक महान रात मौर महान पापा भी इमोलिए बन सके हैं कि उनमें मानवता वा जो मल द्रश्य है, बह कसौटी पर कसे हुए सोने के समान शुद्ध है।
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तीर्थकरों के समय का वर्तन
डा. होरालाल चोपड़ा. एन. ए., ओ.न्दि
वार, माता शिविद्यालय
पार मेहर tiriगे. भगान महानोर पोर भागन बुरे समय से पागा मिका निर पार किया जा रहा है. किन्तु पापाची लगीन परिगा की भाना को सिमे हमारे सामने रखा है। यह भूना हो है। महिमा का काम दाना हो रही है जिहन मनुष्या पमा यों की भावना को पापान न पाए. प्रति जोइन का बह . विधायक मुरूप है। यह मा, पवन ३ कम में मच प्रार की हिमा का निषेध करता है और ममस्त चनन पर प्रवेतन प्राणियों पर लागू होता है। पावाश्री तुममी ने अपने पारायंत्व काल में प्रतिमा की सच्ची भावना का केवल उसरे को ही नहीं, अपितु क्रियात्मक रूप से अपनाने पर बन
अहिंसा जीवन का नकारात्मक मन्य नहीं है। गांधीजी पोर मावापत्रा तुलसी ने बीसवीं शताब्दी मे उसको विधायक और नियमित रूप दिया है मार उसमें गहरा दर्शन भर दिया है। यह प्राब की दुनिया की सभी बुराइया का रामबाण प्रौषधि है।
दुनिया माज विज्ञान के क्षेत्र मे तोर प्रगति कर रही है और सभ्यता की कमोटो यह है कि मनुष्य भाका मे प्रयवा ब्रह्माण्ड मे उह सके, चन्द्रमा त पहेच सके, मयवा समुद्र के नीचे यात्रा कर सके, किन दयनीय बात यह है कि मनुष्य ने अपने वास्तविक जीवन का माशय भुला दिया। उसे इस पृथ्वी तत पर रहना है मोर पाने सहवासी मानो के साथ मिल-जलकर और समरस होकर रहना है। पाधी जी ने जीवन का यही ठोस गुगा सिखाया या प्रार पाचार्यश्री तुलसी ने भी जीवन के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण से इसी प्रकार
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तीर्थंकरों के समय का वर्तन
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क्रान्ति ला दी है। पुरातन जैन परम्परा में लालन होने पर भी उन्होंने जैन-धर्म को प्राधुनिक, उदार और कान्तिकारी रूप दिया है, जिससे कि हमारी भाज की श्रावश्यकता की पूर्ति हो सके अथवा यों कह सकते हैं कि उन्होने जैन धर्म के अपनी स्वर्ण से सत्र मेल हटा दिया है पर उसे अपने उज्ज्वल रूप में प्रस्तुत किया है जैसा कि वह तोर्थंकरों के समय मे था ।
प्रेम सरल और महिमा में हमको उस समय विरोधाभास दिखाई देता है, जब हम उनके एक साथ अस्तित्व की कल्पना करते हैं, किन्तु वे वास्तविक जीवन मे विद्यमान हैं और जीवन के उस दर्शन में भी है, जिसका प्रतिपादन प्राचार्यश्री तुलसी ने किया है । यद्यपि यह श्रमगत प्रतीत होगा, किन्तु यह एक तथ्य है कि विज्ञान पौर सभ्यता के जो भी डावे हो, मनुष्य तभी प्रगति कर सकता है, जब वह माध्यात्मिकता को अपनाएगा और अपने जीवन को प्रेम, सत्य भोर महिंसा की त्रिवेणी में प्लावित करेगा ।
जब हम प्रकार के जीवन को बदल डालने वाले व्यावहारिक दर्शन का न केवल प्रतिपादन किया जाता है प्रत्युत उसे दैनिक जीवन में कार्यान्वित किया जाता है तो बाहर और भीतर से विशेष होगा हो । जुव्रत ऐसा ही दर्शन है, किन्तु उसके सिद्धान्तों में दृढ निष्ठा इस पथ पर चलने वाले व्यक्ति को बदल देगी ।
भवत पात्म-वृद्धि और मात्म-उन्नति की प्रत्रिया है । उसके द्वारा व्यक्ति बो समस्त विसंगतियां लुप्त हो जाती हैं और वह उस पार्थिव उथल-पुथल में से पधिक शुद्ध, श्रेष्ठ और शान्त बन कर निकलता है पोर जीवन के पथ का सच्चा यात्री बनता है ।
प्राचार्य श्री तुलसी अपने उद्देश्य में सफल हों, जिन्होने पशुव्रत के रूप मे व्यावहारिक जीवन का मार्ग बतलाया है ।
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इस युग के महान् अशोक
श्री के. एस. धरणेन्द्रमा निर्देशक, साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थान, मैसूर राज्य
प्राचार्यश्री तुलसी एक महान् पण्डित तथा बहुमुखी प्रतिभा वाले परित हैं। लौकिक बुद्धि के साथ-साथ उनमें महान माध्यात्मिक गुणों का समाश है। माध्यात्मिक शक्ति से वे सम्पन्न हैं, जिमका न केवल मात्म-द्धि के लिए बल्कि मानव-जाति की सेवा के लिए भी वह पूरा उपयोग करते हैं।
मानव-जाति की आवश्यक्तामों का उन्हें भान है। लोगो के समान उनकी शिक्षा-हीनता को दूर करने में वे विश्वास करते हैं। भरने नुसार मे, जिनमे साधु मोर साध्वियों दोनो हैं, शिक्षा प्रचार को वे सूब प्रारसाहन रहे हैं। वे एक जन्मजात शिक्षक है मौर ज्ञान को सोत्र में मान बाल । की शिक्षा में ये बहुत रुपि लेते है ।
उनका दृष्टिकोण पानिक है। पौर्वात्य और पाश्चात्य दोनो हास्ना " उन्होंने अप्पयन किया है । यही नही बल्कि माधुनिक विज्ञान, राजनीति समाजशास्त्र में भी उनकी यही दिलचस्पी है।
लोगों में व्याप्त ननिक मध पतन यो देख कर उन्होने सारे राष्ट्रम मधन-पान्दोलन किया है । जीवन के प्राध्यामिक मूल्यों के प्रतिपादन उनका उत्साह सराहनीय है। महान ममोक से उनको तुलना की जा गा. बिपने महिमा केमिसान्त को शिक्षा पोर उमर प्रसार के लिए अपना मुहर देशो में भेजा था। सर्वोपय नेता में महात्मा गांधी से भी उस गुरना की जा महती है।
उना अनिता भासमोर उसके माध्यमिक प्रचाराम" का जादा होता है। मांग उन्हें पसन्द करो, पोर Gita करने के निरउनी र उन पास
प्राईगाममोह के पास
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इस युग के महान् प्रशाक
भगवान बुद्ध की तरह उन्होने ऐसे नि:स्वार्थ और उत्साही भनुयायियों का - दल तैयार किया है जो मनुष्य-जाति की सेवा के लिए अपना जीवन पित
करने के लिए कटिबद्ध है । वे सभी विशिष्ट विद्वान् मौर निष्कलंक चरित्र वाले
माचार्यश्री तुलसी प्रभी संतालीस वर्ष के ही हैं, किन्तु उन्होंने सेवा मौर भावाश्याग के द्वारा त्याग और बलिदान का अनुपम उदाहरण उपस्थित कर दिया है।
। प्राचार्यश्री तुलसी के प्रति में बड़ी विनम्रता से अपनी श्रद्धाजलि अर्पित का हूँ।
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श्रीकृष्णा के साश्वासन को पूर्ति
श्री टो० एन० वेंकट रत्न भायम, मो रमन भान
भारतमागी जिने गौमायामोहक प्राचार्यश्री नमो ने नाता' पापारिमा भिगिपनि दर में पसपायानन का मान दिया
रवाना
भारत दिम पौर नियोय गायापों का देश है. शिनु नई राजना पापीनवारो का होने के पश्नान पर इस गुवन पान्दोलन का मा है। देश ने यह बताना चाहमा स्वागतात कोपरि इस प्रयोग करने वाले महात्मा गाधी ये। माधोवी मत्य को ही इयर का मोर जीवन में उनका एक मात्र ध्येय माय को नौका सेना या पोर उरा मात्र इच्छा थी कि प्रमस्य पर सत्य की जय हो। माध्यात्मिक परम्पराम्रों का धनी
देश को स्वतन्त्र हए सोलह वर्ष हो गए । इम पवधि में देश का नैतिक एकीकरण हमा मौर राष्ट्रनिर्माण को दो-बही प्रवृत्तियां शुरू इसका प्रकट प्रमाण है-मोद्योगिक क्रान्ति और सामाजिक पुनर्गठन । . हमाग राष्ट्र प्रमश: बलवान होगा और अन्य पूर्वी मोर पाश्चात्य या साथ-साप विश्व-कल्याण के लिए नेतृत्व कर सकेगा। पश्चिमी दशा इस नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए उचत हैं। केवल इसलिए नहा राष्ट्रपिता महात्मा गाधी को कीर्ति चारो मोर फैल गई है प्रत्युत इसलिए कि भारत प्रत्यन्त प्राचीन प्राध्यात्मिक परम्परामों का धनी है। किन्तु हमारे राष्ट्र को दूमरे देशो को माध्यात्मिक मूल्य सुलभ करने की बात की पूर्ति करना हो तो उसे पात्म-निरीक्षण करना होगा। इस प्रारम-नि
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नौकृष्ण के पाश्वासन की पूर्ति
को अत्यन्त पावश्यकता है। क्योकि नैतिक पतन का संकट भी इस समय राष्ट्र पर मंडरा रहा है, चारित्रिक मोर माध्यामिक मूल्यों को भुला देने की बात तो दूर रही, वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद्गीता के होते इए. महात्मा गाधी की महान नतिक और माध्यामिक शक्ति के उठ जाने के पश्चार भारतीय सामूहिक रूप में पतन की ओर अग्रसर हो रहे हैं और अपने समस्त उच्च प्रादों को भुलाते जा रहे हैं। इसलिए प्रणवत जैसे ग्रान्दोलन को अत्यन्त प्रावश्यकता है। राष्ट्र को प्राचार्यश्री तुलसी और उनके सैकड़ों साधु-साध्वियों के दल के प्रति वृतज्ञ होना चाहिए जो इस पान्दोलन को चला
हमे यह देखकर बडा सन्तोष होता है कि इस प्रान्दोलन का प्रारम्भ हुए यद्यपि दम-बारह वर्ष ही हुए है, किन्तु वह इतना शक्तिशाली हो गया है कि हमारे राष्ट्र के जीवन में एक महान नैतिक शक्ति बन गया है। हम इस मान्दोलन को भगवान श्रीकृष्ण के पाश्वासन की पूर्ति मानते हैं। उन्होंने भगवद गीता के चौथे अध्याय के पाठवें इलोक में कहा है कि धर्म की रक्षा करना उनका मुख्य कार्य है और वह स्वयं समय-समय पर नाना रूपों में अवतार धारण करते हैं। साधन चतुष्टय को प्राप्ति में सहयोगी
इमारे देश के नवयुवक हमारे सतों और महात्मापों के जीवन चरित्रों भौर धर्म-शास्त्रो का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शाश्वत सुख जैसी कोई वस्तु है पर उसे इसी लोक मौर जीवन में प्राप्त किया जाना चाहिए। हमारे धर्मशास्त्र कहते हैं-'तुम अनुभव करो प्रयवा नहीं, तुम पात्मा हो।' उसका साक्षात्कार करने में जितना बड़ा नाम है, उतनी ही बड़ी हानि उसे प्राप्त न करने मे है। इसलिए वे प्रात्म साक्षात्कार करने के लिए प्रवृत्त होते हैं । यह प्रात्मा है क्या और उसे कैसे प्राप्त किया जाए? यही उनकी समस्या बन जाती है। वे पात्म-ज्ञान का फल तो चाहते हैं, किन्तु उसका मूल्म नहीं चुकाना चाहते । वे साधन चतुष्टय (साधना के चार प्रकार की उपेक्षा करते हैं, जिसके द्वारा ही प्रात्म-ज्ञान प्राप्त होता है। प्राचार्यश्री तुलसी का प्रणुवत-पान्दोलन साधन चतुष्टय को प्राप्ति में बढ़ा सहायक होगा और मारमा
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प्राचार्यधी तुल साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करेगा।
प्रात्म-साक्षात्कार जीवन का मूल लक्ष्य है; जैसा कि श्री शंकराचार्य कहा है और जैसा कि हम भगवान श्री रमण महर्षि के जीवन में देखने है भगवान् श्री रमण ने अपने जीवन में और उसके द्वारा यह बताया है कि मात्र का वास्तविक प्रानन्द देहात्म-भाव का परित्याग करने से ही मिल सकता है यह विचार छूटना चाहिए कि मैं यह देह है । 'मैं देह नहीं हूँ इस का होता है-मैं न स्थल है, न सूक्ष्म है और न प्राकस्मिक हैं। 'म मात्मा हम मर्थ होता है मैं साक्षात् चतन्य हूँ, तुर्गय हूँ, जिसे जागति, स्वप्न मोर मयुष, अनुभव स्पर्श नहीं करते । यह 'साक्षी चतन्य' अथवा 'जीव साक्षी' सदा : साक्षी' के साथ सयुक्त है जो पर, शिव और गुरु है । प्रतः यदि मनुप्प मरन शुद्ध स्वरूप को पहचान ले तो फिर उसके लिए कोई अन्य नहीं रह जाती जिसे वह घोसा दे सके प्रयथा हानि पहुँचा सके। उस दशा में सब ए जाते हैं । इसी दशा का भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार वर्णन किया गुड़ाकेश, में मात्मा हूँ जो हर प्राणी के हृदय में निवास करता है। प्राणियों का मादि, मध्य भोर पन्त हूँ।' प्राचार-सेवन के महारत तास पवरण, मनन, निदिध्यासन के द्वारा प्रहकार-न्य अवस्था प्रमा ३. ब्रह्मास्मि की दगा प्राप्त होती है। महावत के पालन के लिए मानाया परा प्रतिपादित माग्रत प्रथम चरण होगे। ____माचार्यश्री तुलसी ने नैतिक जागति की भूमिका में ठीक हो जा. "मनुष्य कुरा काम करता है । फलस्वरूप उनके मन को मात हात प्राति का निवारण करने के लिए वह धर्म को करण लेता है । ६०. मा गिगिता है। फलस्वरूप उसे कुछ सुष मिलता है, दुरामा शान्ति मिलती है। किन्तु पुन: उसकी प्रगति गलत मागं पकावी है प्रा. पति जान होती है मौर पर धर्मकीरण जाता है।" प्रगल पोर पानिक सम्मान
निलिए है। पर मनुष्य एकदम निगारण है. वाम मोर दुख में आर 33 गस्ता है और गम एवं दुख को समय सगुनकर मरता है। यही कारण है fffer महसनाम में Hिet मुबम् धादिनाम विनाय है। निवांग हमारे मन रोगों का मोरया बदहजारोबही मना है-सोन पाना है।
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यीकृष्ण के प्राश्वासन की पूर्ति निषेध विधि से प्रभावक
मापका पादर्श शान-योग, भक्ति-योग प्रयवा कर्म-योग कुछ भी हो, अपने महम् को मारना होगा, मिटाना होगा । एक बार यह अनुभूति हो जाए कि पापका पहम् मिट गया, केवल चिभास शेष रह गया है, जो अपना जीवन पौर प्रकाश पारमायिक से प्राप्त करता है। पारमाधिक और ईश्वर एक ही हैं, तर माया अस्तित्वहीन प्रहम् के प्रति प्रेम अपने पाप नष्ट हो आएमा । भगवान् श्री रमण महषि के समान सब महात्मा यही कहते हैं । इसलिए हम सब प्रयतों का पालन करें, जिनके बिना न तो भौतिक मोर न प्राध्यात्मिक पोवन की उपलपि हो सकती है। प्रणवत्त की निषेधात्मक प्रतिज्ञाएँ विधायक प्रतिमानों से अधिक प्रभावकारी हैं और वे न केवल धर्म और प्राध्यात्मिक साधना के प्रेमियों के लिए प्रत्युव सभी मानवता के प्रेमियों के लिए पूरी नतिक पारार सहिता बन सकती है।
भगवान को प्रमोरणीमान् महतो महोयान कहा है। धात्मा हृदय के भन्तरतम मे सा जागृत और प्रशासमान रहता है, इसलिए वह मनुष्य के हाथपाद की अपेक्षा अधिक निकट है और यदि भानवता इस बात को सदा ध्यान में तो मानव अपने सह-मानों को धोखा नही दे सकता और हानि नहीं पा साता। पदि वह ऐसा करता है तो स्वम अपनी भात्मा को ही धोखा देगा भपका हानि पहुँचाएगा, जो उसे रखना प्रिय होता है।
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वोसवों सदी के महापुरुप
महामहिम मार प्रथनेशियस जे० एस० विजियन्स एम० ए०, डी० डी० सी० टी०, एम० आर० एस० टी० (इंगलैंड) बम्बई के प्रार्थविशप एवं प्राइमेट भाजा हिन्दू वर्ष
?
संमार में हजारों धार्मिक नेता हो चुके हैं और पैदा होने पर सरें कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होन लोगों के हृदय परिवर्तित किये हैं, संसार में अंग और शान्ति के स्रोत बहाये हैं और लोगों के दिलो को इमी दुनिया में स्वर्गीय मानन्द से सरोबार करने के प्रमूल्य प्रयत्न किये हैं। बीसवीं सदी में हमारी इन ने भी एक ऐसे ही महापुरुष प्राचार्यश्री तुलसी को देखा है ।
यही वह व्यक्ति है जिसके पवित्र जीवन में जैनो भगवान् श्री महावीर को देखते हैं और बौद्ध भगवान् बुद्ध को देखते हैं। हम जो महाप्रभु यीशू घोष्ट के अनुयायी है यीशू ख्रीष्ट की ज्योति भी उनमे देखते है । प्राचार्यश्री तुलसी ने महाप्रभु यीशू खीष्ट के उस कथन को अपने वैरियों से भी प्रेम करो, को इা सुन्दर रूप दिया है कि विरोध को विनोद समझ कर किसी की घोर के मन में
मैल न घाने दो ।
चर्च से बिदाई
पृथ्वी पर कोई ऐसा स्थान नहीं है जो भाचार्यश्री तुलसी को प्यारा हो। हमें वह दिन याद है, जब प्राचार्यप्रवर बम्बई की बेलासिस रोड पर 'आजाद हिन्द चर्च' मे पधारे थे। घपने अनुयायियों के साथ मिल कर उन्होंने भजन सुनाये थे और भाषण दिया था। चर्च मे आशीर्वाद देकर अपने सा धौर साध्वियों को भारत के कोने-कोने में नैतिकता और धर्मप्रसार के लिए बिदा किया था । इस हृदय को देख कर बम्बई में हजारों व्यक्तियों को यह श्राश्चर्य होता था कि जैन साधु ईसाइयो के चर्च में कैसे मा जा रहे हैं। केवन
तो प्राचार्यश्री ही को महिमा यी जो ईसाइयों का गिरजाघर भी हिन्दू
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घोसवों सदी के महापुरुष भाइयों के लिए पवित्र स्थान और धर्म-स्थान बन गया था। जीवन में एक बड़ी क्रान्ति
अणुव्रत-अान्दोलन का प्रसार कर प्राचार्यश्री ने जनता के जीवन में एक पहुत बड़ी क्रान्ति कर दी है। यह हमारा सौभाग्य है कि प्राज भारत के कोनेकोने मे सत्य भोर प्रेम का प्रसार हो रहा है । जनता जनार्दन अपने साधारण जीवन मे ईमानदारी का व्यवहार कर रही है। सरकारी कर्मचारी भी अपने पर्तव्य को ईमानदारी से पूरा करने का उपदेश ले रहे हैं। व्यापारी वर्ग से धोखेबाजी और चोरबाजारी दूर होती जा रही है। केवल भारतीय ही नहीं, दूसरे देश भी प्राचार्यश्री के उच्च विचारों से प्रभावित हो रहे हैं।
यह मेरा सौभाग्य है कि मैं भी प्रणवत-पान्दोलन का एक साधारण सदस्य हूँ और मुझं देश-देश की यात्रा करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ है। जब यूरोप और रूस को कड़कती ठडक मे भी मैंने चाय और कॉफी तक को हाथ नहीं लगाया तो वहां के लोगों को पाश्चर्य होता था कि यह कैसे सम्भव है? किन्तु यह वेवल भाचार्यश्री के उन शन्दों का चमत्कार है जो मापने सन् १९५४ के नवम्बर महीने के प्रारम्भ मे बम्बई मे कहे थे-फादर साहब, पाप सराव तो नहीं पीते हैं ?
पाचार्यश्री के साथ संकों साधु और साध्वी जन-सेवा में अपना जीवन बलिदान कर रहे है। इन तेसपथी जैनी साघुषों जैसा त्याग, तप और सेवा हमारे देश और मानव समाज के लिए बड़े गौरव की बात है। प्राचार्यश्री के शिप्य और ये लोग भी जो मापके सम्पर्क में मा चुके हैं, अपने प्राचार-विचार से मनुष्य जाति को अनमोल सेवा कर रहे हैं।
प्राचायंत्री ने हर जाति के और धर्म के लोगों को ऐसा प्रभावित किया है कि पापके प्रादर्श कभी भुलाये नही पा सकते और वे सदा ही मनुष्य-जाति को जीवन ज्योति दिखाते रहेगे।
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आचार्यश्री तुलसी का एक सूत्र
आचार्य धर्मेन्द्र
पाव
तीन वर्ष पूर्व सन् १९५९ में प्राचार्यश्री तुरसी प्रागग जाते हुए व पमारे। उस समय उनके प्रवचन सुनने का प्रवमर मुझे नो प्राप्त ह" पाचायंधी जिस तेगाय-मम्प्रदाय के प्राचार्य है, उसे उदानव-कात स्वकीय समाज में अनेक विरोधों पौर भदोहा सामना करना पस सम्प्रदाय में जब नई शाषा का प्रमय होता है तो उसके साथ ही वर मारकर का अवसर भी प्राता ही है। पूर्व समाज नये समाज को पूजन साम " पाला और प्रधामिक बताता है और नया समाज पहले समाज को या सड़ी-गली पौर नये जमाने के लिए अनुपयुक्त बताता है। बाद म. दूसरे को अनिवार्य मान कर साथ रहना रीस जाते हैं और विरोध उतना मुखर नही रह जाता, लेकिन मौन देप की गांठ पडी ही रह जाता है माचार्यश्री के जयपुर-मागमन के अवसर पर कही-कहीं उस पुरानी गार, पूजी खुल खुल पड़ती। विरोधी जितना निन्दा-प्रचार करते, उस पर प्रशंसक उनकी जय-जयकार करते । सम्पन्न लोगों को दुरभिसन्धि
इस सब निन्दा-स्तुति में क्तिना पूर्वाग्रह और कितना वस्तु विरोध है। " उत्सुकता से मैं भी एक दिन प्राचार्यश्रो वा प्रवचन सुनने के लिए पण्डाल - गया। पण्डाल मेरे निवासस्थान के पिछवाही बनाया गया था। भाषा का व्याख्यान त्याग की महत्ता और साधुनों के माचार पर हा ९ था: ".. किसी धनिक ने साधु-सेवा के लिए एक चातुर्मास विहार बार जिसे सापों को दिखा दिखा कर वह बता रहा था कि यहां महाराज रहेगे, यहाँ पुस्तके, यहाँ भोजन के पात्र और यहाँ यह, यहाँ यह । साप. देखभाल कर कहा कि एक पाच खानो की अलमारी हमारे पर महायता र
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भाचार्यश्री तुलसी का एक सूत्र लिए भी तो बनवाई होतो, जहाँ कभी-कभी उन्हें भी उतार कर रखा जा सकता।" मावायंधी के कहने का मतलब था कि साधु के लिए परिग्रह का प्रपंच नहीं करना चाहिए, अन्यथा यह उसमें लिप्त होकर उद्देश्य ही भूल
जाएगा।
मैं जिस पण्डाल में बैठा था, उसे श्रद्धालु श्रायकों ने रचि से सजाया था। धायक-समाज के वैभव का प्रदर्शन उसमे अभिप्रेत न रहने पर भी होता अवश्य था। निरन्तर परिसह की उपासना करने वालो का अपने अपरिग्ही साधुनों का प्रदर्शन करना और दाद देना मुझे खामा पाखण्ड लगने लगा। प्राचार्यश्री जितना-जितना अपरिग्रह की मर्यादा का व्याख्यान करते गए, उतना-उतना मुके वह सम्पन्न लोगो की दुरभिसन्धि मालूम होने लगा। हमारा परिग्रह मत देखो, हमारे साधु मों को देखो ! अहो ! प्रभावस्तापसाम ! भगले दिन के लिए भोजन तक सत्य नहीं करते । वस्त्र जो कुछ नितान्त मावश्यक है, वह ही अपने शरीर पर धारण करके चलते हैं। ये उपवाम, यह ब्रह्मचर्य, से सदश्य जीवों को हिंसा से बचाने के लिए बौधे गए मंझोके, यह तपस्या और यह भगवम का जवाब धररावत ! मुझे लगा कि अपने सम्प्रदाय के सेठों को लिप्सा पौर परिग्रह पर पर्दा डालने के लिए साधुपो की यह सारी चेष्टा है. जिसका पुरस्कार अनुयायियों के द्वारा जय-जयकार के रूप में दिया जा रहा है। जब भोर नहीं रहा गया तो मैंने वहीं बैठे-बैठे एक पत्र लिख कर प्राचायश्री को भिजवा दिया, जिसमे ऐसा ही कुछ बुखार उतारा गया था। अभया और हठ का भाव
भाचार्यधी से जब मैं अगले दिन प्रत्यक्ष मिला, तब तक अथवा और हठ का भाव मेरे मन पर से उतरा नहीं था। प्राचार्य श्री अणुव्रत-पान्दोलन के प्रवक कहे जाते हैं, इस पर अनेक इतर जन-सम्प्रदायों को ऐतराज रहा है। "अणुव्रत तो बहुत पहले से चले माते हैं। साधुमों के लिए अहिंसा, ब्रह्मवर्य, अपरिह मादि पच व्रतों का निविशेषतया पालन महानत कहलाता है और इन्हीं व्रतो का अणु (छोटा) किवा गृहस्यधर्मीय सुविधा-सस्करण प्रणव्रत है। फिर पाचार्ययो प्रणुव्रतों के प्रस्तक के ?" इस प्रकार की प्रापत्ति प्रजमर उठाई जाती रही है। प्राचार्यश्री के परिकर वालों को स्याल हुमा कि 'मणुक्त
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भाचार्ययो तुन पादोगन के
प्रांगेर में पारायंत्री को मह मब लिला रिम मुझे तब तसगका भान भी नहीं पा र ममतों और महावों का पूर्व मुगियो ने निकास भी किया हो, लेकिन इसको एन-पास्मोलन का पानायो तुलसी नही दिया है, इसलिए उनके प्रादौनन के प्रपतंकव में मुः विरोध क्यों होता। स्तन. मे विरोध के मूल में प्रातः परिग्रह की पृष्ठ-मा
परिवह विरोधाभास ये उत्पन्न एक तारकालिक प्रतिक्रिया को भी अंशत: कुछ पूर्व धारणाएं थीं, जिनकी सगति में मात्र भी चैन-दर्शन से पुरुष नहीं मिला पाया हूँ।
उदाहरण के लिए मैं इम निष्कर्ष से सहमत रहा है कि माहार का र ये मनु न भेड़-बकरी की तरह शाकाहारी है और न परतेंदुनो का ६ मांसाहारी । बलिक उभयाहारी जन्तुमो म भालू. चूहे या काए । शाकाहार मोर मांसाहार दोनों प्रकार का प्राहार खा-पचा सकता है । मानव प्रकृति के विरुद्ध होने से मादमी के लिए माहार का दावा मूलतः है। दूसरे; पाहार चाहे वानस्पतिक हो प्रश्वा प्राणिज, उसमें जोवर ही है, अन्यथा प्राहार देह मे सात्म्य किंवा तद्रूप नहीं बन सकता। श्री माहार के ऊपर, स्थिति और हिंसा का त्याग, ये दोनों बातें एक साथ नह सकती। माहार-मात्र हिंसामूलक है, बल्कि माहार और हिंसा मामला पर्यायवाची हैं, ऐसी मेरो धारणा रही है।
इसके अतिरिक्त ईश्वर की सत्ता और धर्म को मावश्यकवा माद ।। हो विषयों पर मेरी मान्यताएं जैन विश्वासों से भिन्न थीं। जब बात निकली तो मैंने अपना कैसा भी मतभेद प्राचार्यश्री तलसी से छिपाया नह।
मेरा खयाल था कि प्राचार्यथी इस विषय को तकों से पाट दगा उन्होंने तर्क का रास्ता नहीं अपनाया और इतना ही कहा कि "मतमद - रहें, मनोभेद नहीं होना चाहिए।" मैं तो यह सुनते ही चकरा गया। त तो भव बात ही नहीं रही। चुप बैठ कर इसे हृदयंगम करने का हा
करने लगा। - श्रद्धा बढ़ी
बाद में जितना-जितना में इस पर मनन करता गया, उतनी ही मावाश्या
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प्राचार्यो तुलसी का एक सूत्र तुलसी पर मेरो घदा बढ़ती गई। वास्तव में विचारों के मतभेद से ही तो समाजों और वर्षों में इतना पार्थवय हुमा है । एक ही जाति के दो सदस्य जिस दिन से भिन्न मत अपना लेते हैं, तो मानो उसी दिन से उनका सब कुछ भिन्न होता चला जाता है। भिन्न माचार, भिन्न विचार, मिन्न भ्यवहार, भिन्न संस्कार, सब कुछ भिन्न । यहाँ तक कि सब तरह से अलग दिखना ही परम काम्य बन जाता है । मतभेद हुमा कि मनोभेद उसके पहले हो गया । मनोभेद से पक्ष उत्पन्न होता है और पक्ष पर बल देने के साथ-साथ उत्तरोत्तर माह की कट्टरता बढती लाती है। अन्त मे भाग्रह की अधिकता से एक दिन वह स्थिति आ जाती है, जब भिन्न मतावलम्बी की हर चीज से नफरत और उसके प्रति हमलावराना हख ही प्रपने मत के अस्तित्व की रक्षा का एकमात्र उपाय मालूम देता है।
मुझे जहाँ तक याद माता है, किसी भी विचारक ने इसके पूर्व यह बात इस तरह और इतने प्रभाव से नही कही । मत से स्वतन्त्रता की रक्षा को वासनीयता का हवा मे शोर है । जनतन्त्र के स्वस्थ विकास के लिए भी मतभेद भावश्यक बताया जाता है और व्यक्ति के व्यक्तित्व के निखार के लिए भी मतभेद रखना जरूरी समझा जाता है। बल्कि मतभेद का प्रयोजन न हो, तो भी मतभेद रखना फैशन की कोटि में पाने के कारण जरूरी माना जाता है। परिणाम यह है कि चाहे लोगों के दिल फट कर राई-काई क्यों न हो जायें, लेकिन प्रसूल के नाम पर मतभेद रखने से आप किसी को नहीं रोक सकते ।
यदि मुझे किसी एक चीज का नाम लेने को कहा जाए, जिसने मानवजाति का सबसे ज्यादा खून बहामा है और मानवता को सबसे ज्यादा माटों में घसीटने पर मजबूर किया है तो वह यही मतभेद है। इसी के कारण अलग धर्म, सम्प्रदाय, पथ, समाज प्रादि बने हैं, जिन्होने अपनो नट्टरता के प्रावेश में मतभेद को मामूल और समूल नष्ट कर डालना चाहा है। मतभेदों का निप. टारा जव मौखिक नहीं हो पाया तो तलवार की दलोल से उन्हें सुलझाने को कोशिशें की गई हैं। एक ने अपने मन की सच्चाई साबित करने के लिए कुर्बान होकर अपने मत को प्रमर मान लिया है, तो दूसरे ने अपने मन को श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अपने हाय सून से रंग कर अपने मत की जोत मान ली है। दुनिया का अधिकाश इतिहास इन्हीं मतभेदो पोर इनके सुलझाने के लिए
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प्राचायंधी दुस
किये गए हत्यहीन संपों मा एक सम्मापास्त कयानक है।
पर प्रश्न उठता है बरमान रसना इतना विषारत और विपरिगम्य यो क्या मतभेद रखना माराध कर दिया जा सकता है, मग मास्त्रीय का प्रथममन करके इसे पाप और नरक में ले जाने वाला घोषित कर दिन जाए ? न रहेगे मतभेद न होगी यह गुन खरावी और प्रशान्ति ।
सेकिन रामाधान मणे नहीं होगा । मगर मारमी के सोचने की फोरम स्थिर करने की क्षमता पर समाज का कानन प्रंश लगायेगा, तो कानुन जहिल जायेगी और यदि धर्मपीठ से इस पर प्रतिबन्ध लगाने की माग उठी तो मनुष्य धर्म से टक्कर लेने में भी हिचकेगा नहीं। धर्म ने जदया मानव को सोनने और देखने से मना करने की कोशिश की है, वो उन १ जय का मुंह देखना पस है। अपना स्वतन्त्र मत बनाने और मदद का पर करने की स्वतन्त्रता तो मानव को देनी ही होगी, जो पात्र हैं उनकी भा भार को पात्र नहीं हैं उनको भी।
फिर इसे निविष कैसे किया जाए ? विगत तर्क से तो सबका म: करना सम्भव है नही, और स्त्र-बल से भी एकमत को प्रतिष्टा * हमेशा असफल ही रहे हैं। क्रिया, फिर प्रतिक्रिया-फिर प्रति प्रतिकिरा. मौर फिर जवाबी हमले । मतों और मतभेदो का अन्त इमसे कभी हुआ ऐसी अवस्था मे प्राचार्यश्री तुलसी का सत्र कि 'मतभेद के साथ मनोभद. जाए, मुझे अपूर्व समाधानकारक मालम देता है। विप-बीज को निाव : का इससे मधिक पहिसक, यथार्थवादी मोर प्रभावकारी उपाय मेरी नज" नहीं गुजरा। भारत के युग-द्रष्टा ऋषि
इसके उपरान्त भी में प्राचार्य श्री तलसी से अनेक बार मिला, लेकिन का अपने मतभेदों की चर्चा मैंने नहीं की। भिन्न मुण्ड में भिन्न गति ता है' मेरे अनेक विश्वास हैं, उनके अनेक प्राधार हैं, उनके साथ अनेक ममा सुत्र-पयड है । मभी के होते हैं । लेकिन इन सब भेदों से मनात एक ऐसा मा
हिए, जहां हम परस्पर सहयोग से काम कर सकें। मैं समझा। -1 की जाए तो समान माधारों की कमी नहीं रह सकती।
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मापायी तुलसी का एक सूत्र
७७ प्राचार्यश्री तुलसी एक मम्प्रदाय के धर्मगुरु हैं और विचारक के लिए किसी सम्प्रदाय का गुरु-सद कोई बहुत नफे का सौदा नहीं है । बहुधा तो यह पदवी विचारवान पोर तगाजरी का कारण बन जाती है। लेकिन माचार्यश्री की दृष्टि उनके अपने सम्प्रदाय तक ही निगरित नहीं है। ये सारे भारत के युग-द्रष्टा अपि हैं । जैन-शारान के प्रति मेरी मादर-बुद्धि का उपय उनसे परि. पप के सद हो हुप्रा है, पतएव मैं तो ध्यक्तिमा. उनका पाभारी हूँ।
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नैतिक पुनरुत्थान के नये सन्देशवाहक
श्री गोपालमा सम्पारक, निमुमति (सा) aart
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नैतिक पुनरुत्थान के नये सन्देशवाहक करोड़ों शोषितों और श्रमजीवियों के लिए नई पाशा और मानव जाति के लिए नतिक पुनरुत्थान का नया सन्देश लेकर अवतरित हए हैं।
प्राचार्यश्री तुलसी जैन धर्म के श्वेताम्बर तेरापथ सम्प्रदाय के माध्यात्मिक प्राचार्य हैं । साधारणत: कहा जाता है कि जैन धर्म का सबसे पहले भगवान महावीर ने प्रचार किया, जो भगवान बुद्ध के समकालीन थे। किन्तु अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि जैन धर्म भारत का प्रत्यन्त प्राचीन धर्म है, जिसकी जड़ें पूर्व ऐतिहासिक काल में पहुँची हुई है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व भाचार्य भिक्षु ने जैन धर्म के तेरापथ सम्प्रदाय को स्थापना की। जिसका अर्थ होता है-वह समुदाय जो तेरे (भगवान् के) पथ का मनमरण करता है। प्राचार्य श्री तुलसी इस सम्प्रदाय के नवम गुरु प्रपया माध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक हैं। वल ग्यारह वर्ष की अल्पायु में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की मोर फिर ग्यारह वर्ष की प्राध्यात्मिक साधना के पश्चात् वे उस सम्प्रदाय के पूजनीय गुरुपा पर पासीन हए । प्राचार्यश्री तुलसी का हृदय जनसाधारण के कष्टो को देख कर इवित हो गया। उनके प्रति अमीम प्रेम से प्रेरित होकर उन्होने पर व्रत आन्दोलन का मूत्रपात किया। उसका उद्देश्य उच्च नतिक मानदण्ड को प्रोत्साहन देना और व्यक्ति को शुद्ध करना ही नहीं है, प्रत्युत्त जीवन के प्रत्येक पहलू में प्रवेश कर समाज की पुनर्रचना करना है। प्रणवत जीवन का एक प्रकार और समाज की एक कल्पना है। भरवती बनने का अर्थ इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि मनुष्य भला और सच्चा मनुष्य बने । नतिक शास्त्र का प्राविष्कार
प्रत्येक प्रान्दोलन का अपना पादशं होता है और अणुव्रत-आन्दोलन का भी एक प्राइस है। वह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता है, जिसमें स्त्री और पुरुष अपने चरित्र का सोच-समझ कर एरिथम पूर्वक निर्माण करते हैं और अपने को मानव जाति की सेवा में लगाते हैं । मरणुव्रत-पान्दोलन पुरुषों मौर स्त्रियों को कुछ विशेष अभ्यास करने की प्रेरणा देता है, जिनसे लक्ष्य को प्राप्ति होती है। हमारे साधारण जीवन में भी हम को यह विचार करना पड़ता है कि हम को क्या काम करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। फिर भी हम सही मार्ग पर नहीं चल पाते। हम क्यो मसफल होते हैं और किस प्रकार
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नैतिक पुनरुत्थान के नये सन्देशवाहक करोड़ों शोपितों और श्रमजीवियों के लिए नई पाशा और मानव जाति के लिए नैतिक पुनरयान का नया सन्देश लेकर प्रवतरित हए है।
प्राचार्यश्री तुलसी जैन धर्म के श्वेताम्बर तेरापय सम्प्रदाय के प्राध्यात्मिक प्राचार्य हैं । साधारणत. कहा जाता है कि जैन धर्म का सबसे पहले भगवान महावीर ने प्रचार किया, जो भगवान बुद्ध के समकालीन थे। किन्तु भव यह स्वीकार कर लिया गया है कि जैन धर्म भारत का पत्यन्त प्राचीन धर्म है, विसकी जड़ें पूर्व ऐतिहासिक काल में पहुँची हुई हैं । लगभग दो सौ वर्ष पूर्व पाचार्य भिक्षु ने जैन धर्म के तेरापथ सम्प्रदाय की स्थापना की; जिसका मर्थ होता है-यह समुदाय जो तेरे (भगवान् के पथ का मनुमरण करता है। प्राचार्यश्री तुलमी इस सम्प्रदाय के नवम गुरु प्रथवा माध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक हैं। वस ग्यारह वर्ष को प्रल्स प्रायु में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और फिर ग्यारह वर्ष की प्राध्यात्मिक साधना के पश्चात् वे उस सम्प्रदाय के पूजनीय गुरूपा पर पासोन हुए। प्राचार्यश्री तुलसी का हृदयं जनसाधारण के कष्टो को देख कर इवित हो गया। उनके प्रति मसीम प्रेम से प्रेरित होकर वन्होने पर व्रत मान्दोलन का सूत्रपात किया । उसका उद्देष्य उन्ध नतिक मानदण को प्रोत्साहन देना और व्यक्ति को शुद्ध करना ही नहीं है. प्रत्युत जीवन के प्रत्येक पहलू में प्रवेश कर समाज को पुनरंचना करना है। प्रणवत ओवन का एक प्रकार पोर समार को एक पल्पना है। परशुवती बनने का प्रपं इसके प्रतिसित और कुछ नहीं है कि मनुष्य भला और सच्चा मनुप्प रने । नतिकशास्त्र का माविष्कार
प्रत्येक प्रान्दोलन का प्रपना माद होता है और प्रयुक्त-पान्दोलन का भी एक ग्राम्य है । वह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता है, जिसमें स्वी पौर पुष्प प्ररने पत्रिका मोर-पमझ कर परियम पूर्वक निर्माण करते हैं और पपने को मानव जाति की सेवा में लगाते हैं। परबत-मायोवन पुरी और स्थिरों को कुछ विशेष सम्माम करने को प्रेरणा देता है, जिनसे मध्य की प्राप्ति होती है। हमारे साधारण जीवन में भी हम को यह विचार करना पड़ता
हिम को शाम करना पाहिए और श नहीं करना चाहिए। फिर भी हम सही मार्ग पर नहीं पत पाते। हम सो पसफर होते हैं और किस प्रकार
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पानी
ही मार्ग पर पनने
हैन है।
भावानी ने उननाना है और विभिन्न मारिनों में
प्रायोजन के विषय में
उनको
वैज्ञानिक ढंग से भाषा की है।
लोक एक ऐमी जति द्वारा समाज का ऐसा संगठन किया जाता है कि मनुष्य उस गुयो र म । किबहुन लोकतन्त्रो सामाजिक जीवन को पोर देते हैं तो घन-सत्ता और घोषण के दर्शन होने है। राज्य नामक पोरातों में विभक्त दिलाई देठा है । मोक्त को उज्वल बना भयानक वास्तविकता में पर बहुत सष्ट रिपाई देता है। मानव प्रेम और प्रगाधनिष्ठा से प्रेरित होकर बारह वर्ष पूर्व प्राचार्यश्री तुलसी ने मत के मंत्रिक शास्त्र का विकार किया चोर उसको व्यावहारिक रूप दिया। धनु शब्द निसदेह जैन पात्रों से लिया गया है किन्तु प्रगुत-प्रान्दोलन में साम्प्रदायिकता का लवलेश भी नहीं है ।
इन पान्दोलन का एक प्रमुख स्वरूप यह है कि वह किमी विशेष धर्म का घान्दोलन नहीं है । कोई भी स्त्री-पुरुष इन प्रान्दोलन में सम्मिलित हो सकता है धीर इसके लिए उसे अपने धार्मिक सिद्धान्तों में तनिक भी इधर-उधर होने को प्रावश्यकता नहीं होती । अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णुता इम प्रान्दोलन का मूल मन्त्र है । वह न केवल प्रमाम्प्रदायिक है, प्रत्युत सर्वव्यापी मान्दोलन है।
भरत जैसा कि उसके नाम से प्रकट है. अत्यन्त सरल वस्तु है। अणु का प्रथं होता है --- किसी भी वस्तु का छोटे-से-छोटा अंग । मत प्रणुव्रत ऐसी प्रतिना हुई, जिसका प्रारम्भ छोटे-से-छोटा होता है । मनुष्य इस लक्ष्य की ओर अपनी यात्रा सबसे नीचो सोढ़ो से प्रारम्भ कर सकता है। कोई भी व्यक्ति एक दिन में, अथवा एक महीने में वांछित परिणाम प्राप्त नहीं कर सकता । उसको धीरे-धीरे किन्तु गहरी निष्ठा के साथ प्रयत्न करना चाहिए धौर धनं:ः प्रपने कार्य क्षेत्र का विस्तार करना चाहिए। मनुष्य यदि व्यवसाय में किसी उद्योग मे या मौर किसी धन्धे में लगा हुआ हो तो श्रणुत्रत- मान्दोलन उसे उच्च नैतिक मानदण्ड पर चलने की प्रतिज्ञा लेने की प्रेरणा देता है । इस प्रतिज्ञा का माचरण बहुत छोटी बात से प्रारम्भ होता है और धीरे-धीरे उसमें
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नतिक पुनरुत्थान के नये सन्देशवाहक जीवन को सभी प्रवृत्तियों का समावेदा हो जाता है । अपात मनुष्यों को बुद्धिसगत जीवन की सिद्धि के लिए प्रात्म-निर्भर बनने में सहायता देता है। उसके फलस्वरूप महिंसा, मन्ति, सद्भावना और सहमति को स्थापना हो सकेगी। नैतिक क्रान्ति का सन्देश
भारत चौदह वर्ष पूर्व विदेशी शासन के जए से स्वतन्त्र हुमा। विशाल पंचवर्षीय योजनामो के द्वारा भी हम प्राधिक और सामाजिक प्रान्ति नहीं कर पाये । जब तक हम ऐमो नई समाज-व्यवस्था को स्थापना नहीं करेंगे, सिमें निधन से निधन व्यक्ति भी सुखी जीवन विता सकेगा, तब तक हमागस्वराज्य इस विशाल देश के करोगे व्यक्तियो का स्वराज्य नहीं हो सकेगा। पन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारे सिर पर सर्वमहारवारीपणुयुद्धरा भयानक खतरा मरा रहा है। इस पारराविक युग मे जबकि शस्त्रो की प्रतियोगिता चल रही है. सर्वनाश प्रायः निश्चित दिखाई देता है। हमारे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में समस्याएं अधिकाधिक जटिल होती जा रही है और ऐसा प्रतीत होता है कि लोकमत मम्बन्धित सरकारों को प्रभावित नही कर पा रहा है। इस सफ्ट में मारायंत्री तुलमी का पणुव्रत-पान्दोलन एक नई सामाजिक, प्राधिक, राजनीतिक प्रौर नतिक क्रान्ति वा सन्देश देकर हमसो मागं दिखा रहा है। यह न तो दया रापार्यक्रम है पोर न हो दान-पुष्प का। यह तो माम मुद्धि का कार्यकम है। इममें केवल पक्ति को हो प्रात्म-रक्षा नहीं है. प्रस्तुत ससार के सभी राष्ट्रों को रा निहित है।बर कि विनाशा खतरा हमारे सम्मुख है, पण भान्दोलन हमे ऐसो राह रिसा रहा है, जिस पर चल कर मानव-जाति वा पा सस्तो है।
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तेजोमय पारदर्शी व्यक्तित्व
श्री केदारनाथ चटर्जी
सम्पारस, मारनं म्यू, कलकत्ता प्रथम सम्पर्क का सुयोग
बीस वर्ष पूर्व सन् १९४१ के पतझड की बात है। एक मित्र ने मुझे सुमाया कि मैं अपनी पूजा की छुट्टियां बीकानेर राज्य में उनके घर पर रिताऊ। इससे ' कुछ पहले मैं प्रस्मस्प था मौर मुझे कहा गया कि बीकानेर को उत्तम जलवायु
से मेरा स्वास्थ्य सुधर जाएगा। कुछ मित्रों ने यह भी सुझापा कि बिटिश भारत को सेनापों के लिए देश के उस भाग में रंगारों को भरतो का जो मान्दोलन चल रहा है, उसके बारे में मैं कुछ तथ्य सग्रह कर सकंगा । किन्तु यह तो दूसरी कहानी है। मैंने अपने मित्र का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और कुछ समय पटना में ठहरने पौर राजगह नासन्दा तथा पावापुरी की यात्रा करने के बार में बतानेर गज्य के भादरा नामक कस्बे में पहुँच गया।
बीकानेर की यात्रा एक से अधिक भर्य में लाभदायक सिहई निस्संदेह सामे मुखर मनुभव यह हुमा कि जैन श्वेताम्बर तेरापय-सम्प्रदाय के प्रधान • पाचार्यश्री तुलसी से संपोगवश भेंट करने का अवसर मिल गया। कुछ मित्र भादग पाए और उन्होने कहा कि बीकानेर के मध्यवर्ती कर राजसदेसर में कुछ ही दिनों में दीक्षा समारोह होने वाला है। उसमें सम्मिलित होने के लिए
पा पाने का कष्ट करें। कुछ नये क्षार्थी तेरापय साधु-समान में प्रविष्ट होने बारे में और मावार्ययो तुलसी उसको क्षा देने को ।।
मेरे माविषेय ने मुझसे पह निमका स्वीकार करने वा अनुरोध किया, पारण, ऐसा प्रसर बनिन हो पिलता है और मुझे जैन धर्म के राम-प्रधान पहला गहराई से अध्ययन करने का मौकाम आएगा। इसी सम्भावना को ध्यान में सफर मैं पनपाधिय के भतीजे पोर एक मर मित्राय
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तेजोमय पारदर्शी व्यक्तित्व राप्रलदेसर के लिए रवाना हुपा।
यह विसी दर्शनीय स्थान का यात्रा-वर्णन नहीं है और न ही यह साधारण पाठक के मन-बहलाव के लिए लिखा जा रहा है। इसलिए दीक्षा समारोह के अवसर पर मैने जो कुछ देखा-सना, उसका प्रलकारिक वर्णन नहीं करूंगा और न ही उस समारोह का विस्तत विवरण प्रस्तुत करूंगा। मैंने दीक्षा की प्रतिज्ञा लेने के एक दिन पहले दीक्षार्थियों को भड़कीली वेश-भूषा में देखा। उनके चेहरों पर प्रसन्नता खेल रही थी। उनमें से अधिकाश युवा थे और उनमे स्त्री और पुरुष दोनों ही थे । मुझे यह विशेष रूप से जानने को मिला कि उन्होंने अपनी वास्तविक इच्छा से साधु पोर साध्वी बनने का निश्चय किया है । वे ऐसे साब-समाज में प्रविष्ट होगे, जिसमे सासारिक पदार्यों का पूर्णतया त्याग और मात्म-सयम करना पहता है । मुझे यह भी जात हुअा कि न केवन दीक्षार्थी के सकला को दोघं समय तक परीक्षा ली जाती है, बल्कि उसके माता-पिता व संरक्षकों की लिखित प्रनमति भी आवश्यक समझी जाती है। इसके बाद मैंने व्यक्तिगत रूप से इस बात की जांच की है और इसकी पुष्टि हुई है। जहां तक इस साधु-समाज का सम्बन्ध है, मुझे उनकी सत्यता पर पूरा विश्वास हो गया है।
मेरे सामने सीधा ज्वलन्त प्रश्न यह था कि वह कौनसी शक्ति है, जो इस कठोर और गम्भीर दीक्षा-समारोह में पूज्य प्राचार्य श्री के कल्याणकारी नेत्रों के सम्मुख उपस्थित होने वाले दोक्षार्थियों को इस संसार और उसके विविध पाकर्षणों, सुखों और इच्छामों का त्याग करने के लिए प्रेरित करती है ? अपनी पृष्ठ-भूमि
इस विषय में अधिक लिखने से पूर्व में इस संसार और मनुष्य-जीवन के बारे में अपना दृष्टि-बिन्दु भी उपस्थित करना चाहूँगा। मेरे पूर्वजों की पृष्ठभूमि उन विद्वान् ब्राह्मणों की है जो अपनी प्रसि खुलो रख कर जीवन बिताते घे भोर उनके मन में निरन्तर यह जिज्ञासा रहती पी-तत् किम् ? मेरी तात्कालिक पृष्ठभूमि ब्रह्म समाज की पी। यह हिन्दुओं का एक सम्प्रदाय है जो उपनिषदो की जानमार्गी च्यास्या पर प्राधारित है। मुझे विज्ञान को शिक्षा मिली है और मैंने लमन मे स्त्रिी और हिप्लोमा प्राप्त किया है। बाद में मेरे
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पाराधी पक्ष Trai Tamhits एक 10 Hit RELIEARTUमत रहीम हीको भाया है। मेरे fulfilमेदार FITarai Putरोही और Fafalnefitो alोग भी है।
मरामि एRixr को पी.कोमीकमकोयंदमयमा पानश्री मगीमा माया..मी को मार न मानन्ध में मुझ को मिनी गन 1.1 को पाप में प्रथम महा. पुरको निरगे या मापौर मामा मानधार मानर-दुरतामा एक मामें काशीना था। मैं यह मर मिलिए विपदोहारिया मा मेरो मामा गहन पार्मिक माह में उसने नहीं पा
समरिन धिारी। यह एंगी सोनमी मनि पो, रिमन इन दोषियों को वठोर सपम और समू फागका चयन मनाने को प्रेरित किया? मैंने एसिप उनमें से कुपोभरीमीश-मामे जीवन का उपभोग करते हुए देखा था। दीक्षा. समारोह में में इतना रिटाहपा पारदौसाथियों को साफ-साफ देन साना पा। उनमें दो या तीन ला पोर एक लरकी यो पार चे यौवन की देहली मे पाव रसने जा रहे थे । एक दिन पहले मैंने को कुछ देखा, उसके बाद यह तो प्रश्न हो नहीं उठता कि उन्होंने प्रभाव से प्रेरित होकर यह निर्णय किया होगा । अवश्य ही पामिक वातावरण के प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकतान्तुि प्रायेक उदाहरण में कम यही एकमात्र प्रेरक सरण हो सकता है ? यदि इस यम को मानने वाले मेरी जान-पहिचान के कुछ लोगो की व्यावसायिक नतिरता मोर सामान्य जीवन-पति पर विचार पिया जाए तो यही कहना होगा कि यही एकमात्र कारण नहीं है। मुझे यह खेरपूर्वक लिखना पड़ रहा है. किन्तु उम समय मेरा यही तथा मोर स्वय पूज्य भाचार्यथी ने अपने मनुयायियों के बारे में, प्रणवत मान्दोलन के सिलसिले में, मपनी पर-पापा के दौरान मे कलकत्ता में जो कुछ कहा था, उस के माधार पर यह लिखने का साहस कर रहा है।
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तेजोमय पारदर्शी व्यक्तित्व
मरने प्रश्न का जो उत्तर मिला, उमे मैं सोचे और सटप में यहाँ लिख दूं। इस पार्थिव संसार में, साधारण मनुष्यो के लिए मानव प्राणियो पर देवी प्रभाव किस प्रकार काम करता है, यह मालम करना प्रासान नहीं होता। जहाँ तक सामान्य जन का सम्बन्ध है, तीव्रता और प्रकार का प्रसार प्रात्मा के पान्तरिक विकास पर निर्भर करता है जो मशाल-बाहक का काम करता है। मशाल की ज्योति मशालवाहक की प्रान्तरिक शक्ति के परिमाण पर मन्द या तीव्र होती है । जरूरतमन्दी और पीडितों में श्री रामकृष्ण के उपदेशो का प्रचार करने के लिए असीसी के सत फासिस जैसी सममित प्रात्मा की मावश्यवता थी। इसी प्रकार भाचार्यश्री भिक्षु ने तेरापथ की स्थापना की। इसलिए मुझे अपने प्रश्न का उत्तर प्राचापंथी तुनपी के व्यक्तित्व में खोजना पडा ।
दीक्षा-समारोह के पहले मैं उनसे मिल चुका था। उन्होंने सुना था कि बगाल के एक पत्रकार पाये हैं। उन्होने दीक्षाथियों के चुनाव को विधि और दीक्षा के पहले की सारी क्रियाएं मुझे समझाने की इच्छा प्रकट की। इसका यह कारण था कि उनके साधु समाज के उद्देश्यो पौर प्रवृत्तियो के बारे में कुछ अपवाद फैलाया गया था। उन्हें यह जानकर बडी प्रसन्नता हुई कि मैं हिन्दी अच्छी तरह बोल भोर समझ सकता हूँ और उन्होने सारी विधि मुझं विस्तार से समझा दी । भक्त लोग दर्शन करने और पूज्य प्राचार्यश्री के प्राशार्वाद प्राप्त करने के लिए प्राते रहे और इमसे बीच-बीच में बाधा पडती रही : वे भक्तो को भागी दि देते जाते पौर शान्तिपूर्वक दीक्षा की विधि विस्तार से समझाते रहे।
अन्त मे उन्होंने हमने हुए मुझे कोई प्रश्न पूछने के लिए सकेत किया । मेरे मस्तिष्क में अनेक प्रश्न थे, किन्तु उनमें से दो मुख्य पोर नाजुक थे; कारण उनका सम्बन्ध उनके धर्म से था। काफी सोच के बाद मैंने कहा कि यदि मेरे प्रश्न प्रापत्तिजनक प्रतीत हों तो वे मुझे क्षमा कर दें। मैंने कहा कि मैं दो प्रश्न पूछना चाहता हूँ और मुझे भय है कि उन पर मापको पुरा लग मुकता है। इस पर उन्होंने कहा कि यदि प्रश्न ईमानदारी से पूछोगे वो बुरा लगने को कोई बात नहीं है । तब मैंने प्रश्न पूछे। दो प्रश्न.
पहला प्रश्न जीवन के प्रकार मौर मेरी विनीत मान्यता के अनुसार पाप
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माचार्यश्री तुलसी और मोक्ष के बारे में था। जिस धर्म में मेरा पालन-पोषण हुमा पा, उसमें गृहस्य माथम को मूलतः पापमय नहीं समझा जाता, जबकि जैन धर्म के सिद्धान्तो के अनुसार ससार के सम्पूर्ण त्याग द्वारा ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। अत: यदि मैं अपने धर्म पर श्रद्धा रख कर चल तो क्या मेरे जसे प्राणी को मोक्ष मिल ही नहीं सकता?
दूसरा प्रश्न था कि दुनिया किस तरह चल रही है ? उस समय द्वितीय महायुद्ध अपने पूरे वेग, रक्तपात और विनाश के साथ चल रहा था। मैंने पूछा कि जब दुनिया में सत्ता और अधिकार को लिप्सा का बोलबाला है शक्तिशाली वही है जो सूक्ष्म नैतिक विचारों को कोई परवाह नहीं करता और उनको कमजोरो और प्रज्ञानियो का भ्रम-मात्र समझते हैं. क्या अहिंसा की विजय हा सकती है ? उनके निकट नतिकता और धर्म-सापेक्ष सन्द है। विज्ञान में दक्ष और युद्ध करने में समर्थ लोगों के लिए जो उचित है, यह कमजोरों और भकु. पल लोगों के लिए उचित नहीं है। अपने कथन के प्रमाणस्वरूप के इतिहास की साक्षी प्रस्तुत करते हैं। __ मेरे साथ एक परिचित सज्जन थे, जो तेरापंथ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उन्होने कहा कि मेरा दूसरा प्रश्न प्राचार्यथी की समझ में नहीं पाया। इससे मेरे मन में शंका पैदा हो और मैंने अपने मित्र की मोर एव फिर प्राचार्यश्री की ओर देखा। प्राचार्यश्री जब मैं प्रश्न पूछ रहा था, तो चुप थे पोर मेरे प्रश्नों का विचार करते प्रतीत हुए। किन मैंने देखा कि उनके शान्त नेत्रों में प्रवास को रिण चमक उठी और उन्होंने कहा कि इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए शान्त वातावरण को प्रावश्यक्ता होगी, इमनिए मच्छा होगा कि भाप सायकाल सूर्यास्त के बार जब मायेंगे, मैं प्रतिक्रमण व प्रवचन समाप्त कर पगा और तव एकान्त में वार्तालाप मन्छो तरह हो सकेगा।
मुझे पता था कि मुझं विशेष प्रकार दिया जा रहा है। क्योकि गर्यास्त के बाद भाचारधी से उनके निकट शिष्यों के प्रतिरिक्त रहत कम लोग मिस पाते हैं । मैंने यह मभाव सहर्ष स्वीकार कर लिया। यमनगरमों से विशेष चर्चा
मेरे न घिसेपिसाए और छामान्य से, कारण रितीय महापद के
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तेजोमय पारदर्शी व्यक्तित्व गार के वर्षों में दुनिया बहुत अधिक बदल गई है। किन्तु जिस समय मैंने ये रन थे ये, उस समय उनका विभिन्न जातियों, शामिक सम्प्रदायो और जीवनदर्शनों के बीच विद्यमान मत दो की दृष्टि से नुछ भोर ही महत्व था। उस समय मनुष्य भोर मनुष्य के मध्य सहिएता के प्रभाव के कारण से मतभेद इतने तीय और नस्लपनीय थे कि विचारों मास्वतन्त्र पादान-प्रदान न केवल मसम्भव; बल्कि पर्य हो गया था। इस प्रकार के मादान-प्रदान के फलस्वरूप प्रतिदिन मुस्थिर रहने वाले तनाव में वृद्धि हो हो सकती थी।
मैं पहला प्रश्न यो हेर-फेर के साथ मिन-भिल पमा के भनेक विद्यान धर्म गुरुपों घे पूछ पुगा है। उनमे एक रोमन कंपोनिक सम्प्रदाय के मुक्ति-पपी पारी, एक मुस्लिम मौलाना मोर एक हिन्दू सन्यासी पामिल थे। मुझे जो उनसे उत्तर मिले, वे या तो प्रत्यन्त दयनीय या निश्चित रूप से उरतापूर्ण थे। उनको समाधानकारक तो कभी नहीं कहा जा सकता।
दूसरे प्रश्न सम्बन्ध में दितीय महायर को मौत और विनाशके १५ पर तेजी से पागे बढ़ रहा था, पहिसा की विजय को समस्त पापो को निर्मल करता हपा प्रतीत होता पासा कि विधि पीननाप ने अपनी एक निराशाजनक पविता मे मी पापा की पुष्टि करते हुए कहा भी या-- करुणापन परणो लेकरो कम म.प। मध्य हो शान्ति दूसरे जसक महारमा पापो स्वम अपने पनुयायियों के विरोप और धामीम उदमारों के गावजूर भी पानी पदमा को माया र पिन भाव में स्टे हुए थे। मह स्पिति तोपस भारत में भी। पेष निया में नगर कानून का बोनसा पा र पदिसा का नाम में मात्र पर हलो मोर विरारपूर्वी मुनने को मिनती पो।
परभूमि में मन पग्ने हो मान ए और म विनामा और मायामा मिधित मासे उनके आगेको प्रवक्षा पापा, पोरसर से भासद्वारा लिने गरेको भारतीय मान प्रकार किसान समझे माने, मन ही उन्हें पायम कोरिनीतिको प्रार मागे न हो। में अपने पति सारोपन से. यो सपनायी थे, ऐसा होसमा
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cागर पर ही गिरा ।
प्रपम रासायी ने कहा frERो प. मान्यता दायका और नो पापमयाका बार में दिना या होन भापात्रा प्रांग रमाबर उपमं के किरहे।
दूसरे प्रान पार IN fult और सम्मा पा। उनमकहना था कि हिंगा मोर मोहनिम्मामूमन बुरामा.जिनमे मानव जाति पीडित है मोरपे युटभरपा उप पोरया प्रतीक है। इन दोनों नाम बुराइयों पर विसर प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग पहिसा हो है पौर नया को यह सत्य एक दिन सवार करना ही होगा । मनध्य सबने बहो बराइयो पर विजय प्राप्त किये बिना को महत्तर सिद्धि प्राप्त कर सकता है?
मन्त में प्राचापंधी मेरी मोर मुसये और पूछा कि क्या मेरा समाधान हो गया। मैंने उत्तर दिया कि मुझे उतर अत्यन्त सहायक प्रतीत हुए हैं और मैंने प्रणाम कर उनसे विदा सी। उसके बाद
इस घटना के वर्षों बाद, मैंने कलकत्ता में एक विशाल जन-समूह से भरे हए पण्डाल में प्राचार्यश्री को प्रणुवत-प्रान्दोलन पर प्रवचन करते हुए मुना। उसके बाद उन्होने थोड़े समय के लिए मुझसे व्यक्तिगत वार्तालाप के लिए - कहा। उन्होंने देश के भीतर नैतिक मूल्यो के हास पर अपनी चिन्ता व्यक्त
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तेजोमय पारदर्शी व्यक्तित्व की। उन्होंने कहा कि उन्हें भ्रष्टाचार और नैतिक पतन की शक्तियों के विरुद्ध पान्दोलन करने को अन्तरनम से प्रेरणा हो रही है. विशेषकर जब कि स्वर्ण उनके अपने सम्प्रदाय के लोग भी तेजी से पतन की भोर जा रहे हैं। ___ मैंने पूछा कि अपनी सफलता के बारे में उनका क्या ख्याल है, उनके मुख पर वही मुस्कराहट खेल गई, हालाकि उनके नेत्रों मे उदासी की रेखा खिची हुई दिखाई दी। उ होने कहा, जब वह नई दिल्ली में पडित जवाहरलाल नेहरू से मिले थे तो उन्होने परितजी से पूछा था कि घणवत-मान्दोलन की सफलता के बारे में उनका क्या स्याल है। पहिरजी ने वहा था कि वह दिन-प्रतिदिन दुनिया के सामने अहिमा का प्रचार करते रहते हैं, पिन्त उनकी बात कोन सुनता है ? पडितजी ने कहा कि हम को अपने ध्येय पर प्रटल रहना है और उसका प्रचार करते जाना है। प्राचार्यश्री ने कहा कि शान्ति पार पवित्रता के ध्येय पर उनकी भी ऐसी ही श्रद्धा और निष्ठा है । तेजोमय महापुरुषों को अगली पंक्ति में
मुझे मालमपका दीप वश अपने जीवन के ७० वर्षों में देले बहुसंख्यक लोगो से मिलने का काम पहा जो प्रसिद्ध और महान व्यक्ति को ख्याति अजित कर चुके थे । खेद है कि उनमें से बहुत कम लोगो के मुख पर मैंने सत्य और पवित्रता की उम्वल ज्योति प्रपने पूरे तेज के साथ चमकते हुए देखो जैमी कि एक शह प्रावदार होरे मे चमरती दिखाई देती है। मैं पारी पौर तेजोमय महापुरुषों को अगलो पक्ति में प्राचार्यश्री तुलसी का स्थान देखता हूँ।
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तो क्यों?
श्री अक्षयकुमार जैन सम्पादक, नवभारत टाइम्स, रिल्लो
बड़े-बड़े प्राकपंक नेत्र, उन्नत ललाट, श्वेत चादर से लिपटे एक स्वस्थ मोर पवित्र मनि के रूप में जिस साधु के दर्शन दिल्ली में ही दस-बारह वर्ष पहले मुझे हुए, उन्हें भूलना सहज नहीं है। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा तेज मोर प्राचीन साधुता है। भारत में साधु-संन्यासी सदा से समादत रहे हैं। बिना इस भेदभाव के कि कौन साधु किस धर्म अथवा सम्प्रदाय का है। हमारे देश में त्यागियों के प्रति एक विशेष थला रही है। ऐसे बहुत कम भारतीय होगे जो इस भाव से बचे हुए हों।
अडानन्द बाजार में प्राचार्यश्री तुलसी के प्रथम दर्शन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हमा। उस समय मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि उप्र मे बहत अधिक बड़े न होकर भी प्राचार्य पद प्राप्त करने वाले तुलसीगणो जहाँ जा रहे हैं, वहाँ पर एक विशेप जागृति उत्पन्न होती है तो क्यो ?
भक्तों की बढ़ी भारी भीड़ दो। फिर भी मुझे प्राचार्यश्री के पास जाकर कुछ मिनट बाउचीत करने का सुअवसर मिला। जो गना था कि मावार्य तुलसी मन्य साधुनों से कुछ भिन्न हैं. यह बात सच दिखाई दी। तेरापप सम्प्रदाय के छोटे-बड़े सभी लोग उनके भक्त है. उनसे बंधे है, किन्तु मेरी धारणा है कि प्राचार्य तुलसी सम्प्रदाय से ऊपर हैं । सम्चे साधु कोताह वे सिंगो पमं विप से नहीं है। उनका प्रणुवन-पान्योलन पायद इसीलिए तेरापय अपवा जन समाज में शामित न रहार भारतीय समाज पढेच रहा है। __गत कुछ वर्षों में प्राचारधी सुमसी के विचार और उनका प्राचार्वाद प्राप्त समानो यान का मामोमन धीरे-धीरे राष्ट्रपति भवन से लेकर छोटे-छोटे गायों वा यस्ता पा रहा है।
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तो पयों?
६१ अभी कुछ समय पहले जर वे पूर्व भारत के दौरे से दिल्ली लौटे थे, तब दिल्ली में सभी वर्गों को मोर से एक अभिनन्दन समारोह हुमाया। तब मैं सोच रहा था कि अपने मापको मास्तिक समझते हुए भी धर्म निरपेक्ष देश में मुझे अपने ही समाज के एक साधू के अभिनन्दन में मच पर सम्मिलित होना चाहिए या अधिक से अधिक मैं श्रोतामों में बैठने का अधिकारी है। किन्तु तभी मेरे मन को समाधान प्राप्त हमा कि साधु किसी समाज विशेप के नहीं होते। विशेष कर प्राचार्य लसी बाह्यरूप से भले ही तेरापथ के साधु लगते हों, पर उनके उपदेश और उनकी प्रेरणा से चलाये जा रहे प्रान्दोलन मे सम्प्रदाय की गन्ध नहीं है । इमलिए मैं अभिनन्दन के समय वक्तामों में शामिल हो गया।
प्राचार्ययो भारतीय साधुनों की भांति यात्रा पैदल ही करते हैं। इसलिए छोटे-छोटे गांवों तक वे जाते हैं। उन गांवों में नयी चेतना शुरू हो जाती है। यदि इस स्थिति का लाभ बाद मे कार्यकर्ता लोग उटाएं तो बहुत बड़ा नाम हो सकता है।
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प्रणुव्रत आचार्यश्री तुलसी और विश्व शान्ति
श्री अनन्त मिश्र सम्पादक, परमार्ग, कलकत्ता
नागासाकी के खण्डहरों से प्रश्न
विश्व के क्षितिज पर इस समय युद्ध और विनाश के बादल मण्डरा रहे हैं। अन्तरिक्षयान और प्राविक विस्फोटों की गड़गडाहट से सम्पूर्ण संसार हिन उठा है । हिमा, द्वेप पर घुमा की भट्टी सर्वत्र मुलग रही है। संसार के विपारधील पोर शान्तिप्रिय व्यक्ति भाविक युद्धों की कल्पना मात्र से प्रतरित है। ब्रिटेन के विख्यात दार्शनिक बटुण्ड रसेल प्राणविक परीक्षणविस्फोटों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए ६ वर्ष की आयु मे सत्याग्रह कर रहे है । प्रशान्त महासागर, सहारा का रेगिस्तान, साइबेरिया का मैदान धौर अमेरिका का दक्षिणी तट ; भयंकर मणुत्रमों के विस्फोटों से अभिजित हो रहे हैं । सोवियत रूस ने ५० से १०० मेगाटन के अणुवमो के विस्फोट की घोषणा की है तो प्रमेरिका ५०० मेगाटन के बमों के विस्फोट के लिए प्रस्तुत है | सोवियत रूस और अमेरिका द्वारा निर्मित यान सेक्डो मील ऊंचे प्रन्तरिक्ष के पर्दे को फाडते हुए चन्द्रलोक तक पहुँचने की तैयारी कर रहे हैं। छोटे-छोटे देशों की स्वतन्त्रता बढे राष्ट्रों की कृश पर प्रार्थित है। ऐसे सकट के समय स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि संसार मे वह कौन सी ऐसी शक्ति है जो प्रणुत्रमो के प्रहार से विश्व को बचा सकती है। जिन लोगों ने द्वितीय युद्ध के उत्तरार्द्ध में जापान के नागासाकी और हिरोशिमा जैसे शहरों पर प्रणवमों वा प्रहार होते देखा है, वे उन नगरों के खण्डरों से यह पूछ सकते हैं कि मनुष्य कितना क्रूर और पैशाचिक होता है ।
निस्सन्देह मानव की क्रूरता और पशाचिरता के दामन की क्षमता एकमात्र हसा मे है । सत्य मौर महिसा मे जो दावित निहित है, वह प्रणु और उन
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प्रणुदत, प्राचार्यश्री तुलसी पौर विश्व-शान्ति बमों में कहाँ ! भारतवर्ष के लोग सत्य और अहिंसा की ममोघ शक्ति से परिचित है; क्योकि इसी देश में तथागत बुद्ध और श्रमण महावीर जैसे पहिंसा बत्ती हुए हैं । बुद्ध और महावीर ने जिस सत्य व अहिंसा का उपदेश दिया, उसी का प्रचार महात्मा गाधी ने किया। ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए गाधीजी ने अहिसा का ही प्रयोग किया था। सत्य और अहिंसा के सहारे गाधीजी ने सदियों से परतन्त्र देश को राजनैतिक स्वतन्त्रता भौर चेतना का पथ-प्रदर्शित किया। प्रत भारत वर्ष के लोग महिमा की प्रमोध पाक्ति से परिचित हैं । सत्य, महिमा, दया और मंत्री के सहारे जो लड़ाई जीती जा सकती है, वह प्रणुबमों के सहारे नही जीती जा सकती।
वर्तमान युग मे सत्य, अहिंसा, दया और मंत्री के सन्देश को यदि किसी ने अधिक समझने का यल किया है तो निःसंकोच प्रणवत प्रान्दोलन के प्रवर्तक के नाम का उल्लेख किया जा सकता है। प्रणबम के मुकाबले प्रापंथी तुलसी का अणुव्रत अधिक शक्तिशाती माना जा सकता है। अणुव्रत से केवल बड़ी-बड़ी लहाइपा ही नहीं बीती जा सकती, बल्कि हृदय की दुर्भावनामों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। युद्ध के कारण का उन्मूलक
जन-सम्प्रदाय के प्राचार्यश्री तुलसी का भणुव्रत-प्रान्दोलन नैतिक प्रभ्युत्थान के लिए किया गया बहुत बड़ा पभियान है। मनुष्य के चरित्र के विकास के लिए इस माम्दोलन का बहुत बहा महस है। चोरबाजारी, भ्रष्टाचार, हिंसा, टेप, पूणा मोर पनतिरता के विरुद्ध प्राचार्यथो तुलसी ने जो पान्दोलन प्रारम्भ किया है. वह मब सम्पूर्ण देश में व्याप्त है। पण व्रत का अभिप्राम है उन छोटे. छोटे बतों का धारण करना, जिनसे मनुष्य का परित्र उन्नत होता है। सरकारी कर्मचारी, किसान, व्यापारी, उद्योगपति, पाराधी और मनीति के पोषक लोगों ने भी सणवत को धारण कर पपने जीवन को स्वच्छ बनाने का पत्न पिया है । कठोर काराण्ड भोगने के बाद भी जिन पपराधियों के परित्र में सुधार नहीं हुया, चे पणती बनने के बाद सच्चरित मोर नीतिवान हुए। इस प्रकार पणवत मानव-हाय को उन बुराइयों का उन्मूलन करता है जो पुट का कारण बनती है। प्राचार्यथी सुलसी का मंत्री-दिवस शान्ति भोर सदभावना
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माचार्यश्री तुलसी का सन्देश देता है।
अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति प्राइजन होवर और सोवियत प्रधानमन्त्री थी निकिता स्थचव के मिलन के अवसर पर प्राचार्यश्री तुलसी ने शान्ति मोर मैत्री का जो सन्देश दिया था, उसे विस्मन नहीं किया जा सकता। अन्तर्राष्ट्रीय वनाव मौर सघर्ष को रोकने की दिशा मे मणुव्रत-भान्दोलन के प्रवक आचार्यश्री सुलसी को उल्लेखनीय सफलता मिली है। उन्होने विभिन्न धौ और विश्वासो के मध्य समन्वय स्थापित कराने का प्रयास किया है। यही भाचार्यश्री तुलसी के अणुव्रत-आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता है । विश्व शान्ति के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान
अन्तर्राष्ट्रीय विचारकों के मत में प्राचार्यश्री तुलसी ने पणुयत के माध्यम से विश्व-शान्ति और सद्भावना के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान किया है। हिंसा को दहातो हुई ज्वाला पर वे पहिमा का शोतल उस छिड़क रहे हैं। पाचार्यश्री तुलसी का अणुव्रत-भान्दोलन मब वेवल भारत तक ही सीमित नहीं है, गलिक उसका प्रसार विदेशों में भी हो गया है। हिमालय से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत का पैदल भ्रमण करके प्राचार्यश्री तुलसी ने प्रणवत का जो सन्देश दिया है, उससे राष्ट्र के चारित्रिक उत्थान में मूल्यवान सहयोग मिला है। अगर समार के सभी भागों में लोग प्रणुदतों को पहण करें तो युटको सम्भावना बहुत मंगों तक समाप्त हो जाएगी। विश्व.पुर को रोकने के लिए पाचार्यश्री तुलसी का प्रणवत एक प्रमोष पस्त्र है। यूरोप में पलने बारे 'नतिक पुनस्थान मान्दोसन' की तुलना में प्रणुन पारदोलन का महत्व पधित है । मगर संसार के विशिष्ट राजनीतिज्ञ प्रणवतों के प्रति अपनी भाषा प्रार करें तो पुर का निवारण करना मासान हो माता है। कनेी, भकमिसन, दगाल
कोष से राजनीतिम जिस दिन प्रणात पहण कर मेंगे, उमो दिन पुरीसम्माता धमाप्त हो जायेगी।
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चरैवेति चरैवेति को साकार प्रतिमा
श्री आनन्द दिद्यालंकार सहसम्पावक, नवभारत टाइम्स, दिल्ली
'चरैवेति' का भादि और सम्भवतः अन्तिम प्रयोग ऐन रेय ब्राह्मण के शुन: शेप उपाख्यान में हुमा है। उसमे रुद्र के मुख से राजपुत्र रोहित को यह उपदेश दिलाया गया है कि पप सूप श्रमाण यो न तन्द्रपते परन् । चरवेति चरवेति इसका अर्थ है-'हे रोहत ! तू सूर्य के श्रम को देख । वह चलते हुए कभी पालस्य नहीं करता। इसलिए तू चलता ही रह, चलता ही रह ।' यहां चलता ही रहेका निगढार्य है कि 'तू जीवन में निरन्तर श्रम करता है। इन्द्र ने इस प्रकरण में सूर्य का बो उदाहरण प्रस्तुन किया है, उससे सुन्दर और सत्य अन्य कोई उदाहरण नही हो सकता। इस समस्त ब्रह्माण्ड में सूय ही सम्भवत: एक ऐसा भासमान एव विश्व-कल्याणकर पिण्ड है, जिसने सृष्टि के पारम्भ से अपनी जिस प्रादि-प्रनन्त यात्रा का प्रारम्भ किया है, वह प्राज भी निरन्तर जारी है। इस ब्रह्माण्ड मे गतिमान पिण्ड और भी हैं, परन्तु जो गति पृथ्वी पर जीवन की जनक तथा प्राणिमात्र की सड़क है, उसका स्रोत सूर्य ही है। वह सूर्य कभी नहीं थकता। अपने अन्तहीन पथ पर पनालस-भाव से वह निरन्तर गतिमान है। श्रम का एक अतुलनीय प्रतीक है वह ! 'चरैवेति' अपने सम्पूर्ण रूप में उसी मे साकार हुआ है। जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि __ सर्प के लिए को सत्य है, वह इस युग में इस पृथ्वी पर प्राचार्यश्री तुलसी के लिए भी साय है । जोधपुर-स्थित साइन नगर के एक सामान्य परिवार में जन्म-प्राप्त यह पुरुष शारीरिक दृष्टि से भले ही मूर्य की तरह विमाल एवं भातभान न हो, परन्तु उस जो असमन चौर प्रखर बुद्धि है, उसकी तमना सूम से सहज ही की जा सकती है। उसके मानसिक ज्योति-पिण्ड ने अपने
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tula mi # पर और Rutationी समोराम श्रम से बह निकर feart
ART नही पाममात करने, 611-13than नोकरेगी। जोन में कितनी गो
k anant मार्ग है ग मान-गमा लिर, feart wite और पाEि पारा भी इसमें ही निहित है-- मारापामार पति
भारको श्रम ऐना हो पानाको नमोन निषि हैं। इनमें से एक मागासी रन गाय । मार की महिमा समार में तिनी हो दोपहीहोर भाग्य Talaबंध पर मानना ही प्रखण्ड Mum, पाम धमकीजो गरिमा है, रमको सुनना उमसे नहीं की जा की मातोपरोधीनी मोरथम भाग्य निर्माता महसनका
पिससे परतो घरपायाममा होती है और मनुज महिमा को प्राप्त । समार में जो कुछ मुख समृशिष्टिगोचर है. इसके पीछे यदि कोई fe है तोवह मम ही है। नितान्त वन्य जीवन से उन्नति और विरास
शिखर पर मानव पाजसड़ा है. वह श्रम की महिमा का स्वयं-भापी
जिस घम में इतनी शक्ति हो और जो मूर्य की तरह उस शक्ति का सागर हो, उससे अधिक 'चरैवेति' को साकार प्रतिमा पन्य कौन हो सकता है? पाचायंधी तुलसी ने अपने अब तक के जीवन से यह सिद्ध कर दिया है कियम ही जीवन का सार है पौर श्रम में ही मानव को मुक्ति निहित है।
माचार्ययो तुलसी ने अपने बाल्यकाल से रो प्रयक यम किया है, उसके दो रूप हैं-- ज्ञान प्राप्ति मौर जनकल्याण । बालक तुलसी बब दस वर्ष के भी नहीं थे, तभी से शानार्जन की दुर्दमनीय अभिलाषा उनमें विद्यमान थी। अपने बाल्यकाल के संस्मरणो मे एक स्थल पर उन्होंने लिखा है-'मम्ययन में मेरी सदा से बड़ी चि रही, किसी भी पाठको कण्ठस्थ कर लेने की मेरी मादत पी: धर्म-सम्बन्धी अनेक पाठ मैंने बचपन में ही कण्टाय कर लिये थे।' अध्ययन के प्रति उनकी तीन लालसा मौर श्रम का ही परिणाम था कि ग्यारह वर्ष की अल्प वय मदापय मे दीक्षित होने के बाद दो वर्ष की अवधि में ही इसने
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चरैवेति परवेति को साकार प्रतिमा
६७ पारगत हो गए कि उन्होने अन्य न साधुषों का प्रध्यापन प्रारम्भ कर दिया । उनकी यह शान-यात्रा वन अपने लिए नहीं, अपितु दूमरो के लिए भी थी। निरन्तर श्रम के परिणामस्वरूप वे स्वयं तो मस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित होहो गए, मपित उन्होंने एक ऐमी शिष्य-परम्परा की स्थापना भी की, जिन्होंने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसाधारग उन्नति को है। उनमें से मनेक प्रसिद्ध दार्शनिक, स्यातनामा लेखक, श्रेष्ठ कवि तथा सस्कृत पोर प्राकृत के प्रकाण्ड उभट विद्वान् है।
प्राचार्यश्री की स्मृति शक्ति तो प्रद्भुत एवं सहजयादी है ही, परन्तु उनकी जिल्हा पर साक्षात् सरस्वती के रूप मे जो बीस हजार श्लोक विद्यमान है, वे उठते-बैठने निरन्तर उनके धम-साध्य पारायण का ही परिणाम है । उनमें वो कवित्व मोर कुशल वक्तृत्व प्रकट हुपा है, उसके पीछे श्रम की कितनी शक्ति छिपी है, इसका अनुमान सहन हो नहीं लगाया जा सकता । ब्रह्मा महतं से लेकर रात्रि के दस बजे तक का उनका समस्त समय मानार्जन और ज्ञान-दान मे ही बोदता है। भगवान् महावोर के 'एक क्षण को भी मथं न गंवापो' के माद को बाहोने साक्षात् अपने जीवन में उतारा है। स्वयं की चिन्ता न कर सदा दूसरों की चिन्ता की है। वे प्राय महा रते हैं कि 'दूमरों को समय देना अपने को समय देने के समान है। मैं अपने को दूमरों से भिन्न नहीं मानता।' घिस पुपरी समय और पम के प्रति यह भावना हो पर जो स्वय ज्ञान का गोमुख होकर जान से वाहवो महा रहा हो; उससे अधिक 'परवति' को सायंक करने वाला कौन है ? उपदेप्टा इन्द्र को कभी स्वप्न भी नहीं हपागा कि किसी काल में एक ऐमा महापुष इस पृथ्वी पर जन्म लेगा जो उसका मूर्तिमन्त उपवेग होगा। सर्वतः प्रपणो सम्प्रदाय
मापारंपी गुलसी के तेरापया पाचायव महा करने से पूर्व, अधिकार साध्वियो बहा पषिक शिक्षित नहीं पी। यह भाचार्य धो गुनसो हो पे, निम्होने उसके मदर जान रोप जगाया । यि समय होने साथियों का रिसारम्भ किया पाठोबत तरह जिमाएं ी; परन भाज उनको गम्मा दोमो से अधिक पौर विभिन्न विषयों का अध्ययन कर रही है। खना
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पाबा गुरमी titit fit भी गान गारपरम को उन्होंने Titf
--गम में जमीने गाय, म्याकरण, . को, fruirm fun attr मा मिनापामो के शान की irrr को गोrmirar कोशीमो में धर्म-प्रया में RIT को। गा मानो कि मानक स्तर को उन्नत करने के vitrinaनविना राम दानिक वाद-विवादों को
को मारह निगल जानाम प्रौर जान-दान की पति प्रतिशे में समान इमाम का ही यह पन है कि गाय पाभारत Mir usrit सम्प्रदायों में है।
IIT में पापाय नमो ने ओ महान कार्य किया है, उसका एक महरसा और भीरमौर पर है-नमंन्यों --प्राममां पर उनका मनुमपान । प्रागन भगवान महावीर कपोका मग्रह हैं। वे मान के भधार हैपर भगवान महावीर के निवारण के उत्तरकालीन पच्चीम सौ वर्ष के समराह ने इन भागमी में अनेक स्थानों पर दुशंध्यता उत्पन्न कर दी है। मापायंत्री तलगो के पय-प्राशन में अब इन भागमो का हिन्दी-अनुवाद तथा कोष तयार किया जा रहा है। निम दिन यह कार्य पूर्णतः सम्पन्न हो जाएगा, उस दिन संसार यह जान सकेगा कि तप पूत इस व्यक्ति मे श्रम के प्रति केसी अटूट भक्ति है ! यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि अपनी ज्ञान साधना से प्राचार्यश्री तुलसी ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे श्रम के ही दूसरे रूप है।
प्राचार्यश्री तुलसी की दिनचर्या भी विराम श्रम का एक उदाहरण है। वे ब्रह्म मुहत्तं में ही शम्या छोड़ देते हैं। एक-दो घण्टे तक मात्म-चिन्तन और स्वाध्याय के अनन्तर प्रतिक्रमण-मब नियमो और प्रतिज्ञामो का पारायण करते है । हलासन, सर्वांगासन, पद्मासन उनका प्रिय एवं नियमित व्यायाम है। इसके पश्चात एक घण्टे से अधिक का समय वे जनता को उपदेश तथा उनकी जिज्ञासाम्रो यो शान्त करने में व्यतीत करते है। भोजनानन्तर विधाम-पाल में हल्का-फुल्का साहित्य पढ़ते हैं। उसके बाद दो हाई टे तक का उनका समय साधुमो और साध्वियों के प्रध्यापन में बीतता है। विभिन्न विषयो पर विभिन्न लोगो से वार्ता के बाद पे दो पल्टे तक मौन धारण करते हैं और इस
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चरैवेति चरैवेति यो माकार प्रतिमा काल में वे पुस्तकले सन और अध्ययन करते हैं। सूर्यास्त से पूर्व हो रात्रि का भोजन ग्रहण करने के अनन्तर प्रतिक्रमण और प्रार्थना का कार्यक्रम रहता है । एक घण्टे तक पुन' स्वाध्याय अथवा ज्ञान-गोष्ठी के बाद प्राचार्यश्री शय्या पर कर लेते हैं। उनका यह कार्यक्रम परी की सुई की तरह चलता है और उसमे पभी पायात नहीं होता। जब तक किसी व्यक्ति में शम मौर वह भी परार्थ के लिए श्रम करने की हार्दिक भावना न हो, तब तक उक्त प्रकार का यन्त्रबन् जीरन असम्भव है।
प्राचार्यधी के धर्म का दूसरा रूप है-जन-वस्याग । वैसे तो जो ज्ञानार्जन पौर जान-दान वे करते हैं, वह सब ही जन कल्याण के उद्देश्य से है; किन्तु मानव को अपने हिरण्यमय पार में बांधने वाले पापो से मुक्ति के लिए उन्होंने जो देशव्यापी यात्रारती हैं और अपने सिप्पो से कराई हैं, उनका जन-कल्याण के क्षेत्र में एक विशिष्ट महत्व है। इन पात्रापों से प्रात्र से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान् बुर के शिप्यों द्वारा की गई व यात्राएँ स्मरण हो पाती है, जो उन्होंने मानवमार कल्याण के लिए की थी। जिस प्रकार भगवान् बन ने गयाबारम्भ से पूर्व भरने माठ पियों को पक्सोल का सन्देश प्रसारित करने का माहेश दिया था. ठीक उसी प्रकार पाचार्यश्री तुलसीने मात्र में बारह वर्ष प्र प्ररने छ गो पाम सियो को सम्बोधित करते हुए कहा पा.--"माधुप्रो पौर सास्त्रियो ! तुम्हारे जीवन प्रारम-मुक्ति मोर जन-वल्याण के लिए मस्ति है । समोर पोर मुगर स्थित गांधों, कस्तो पौर शहरों को दिल नामो । जनता मेनतिक पनपान का सन्देश पपापो।" मेरापय का जो प्यावहारिक म्प है, उनके तीन पग है-(१) परिध एवं साधतापूर्ण पारण. (२) भ्रष्टाचार से मुक्त व्यवहार और {३) सत्य में निया एव हिमक प्राप्ति। प्राचार्यश्री तुलना ने अपने शिष्यों को जो मादेश दिया था, उममा राप के इसी काना -नान के जीवन में प्रयद्वारणा भी। भगवत पर प्रपतन
यांसम भारतीय समाज को जो दया है. यह निमोगेसिनही है। प्राचीन मानिसान निवाच मोहिम निरा है। मंस होने के स्थान पर मलमपा वहिमम हो गया है। बिसायिवा सपन पर
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प्राचार्यश्री तुलस मारूढ़ हो गई है और सर्वत्र भोग और भ्रष्टाचार का ही वातावरण दृष्टिगोचर होता है । यह स्पिति किसी भी समाज के लिए बड़ी दयनीय है। इस दुरवस्था से मुक्ति के लिये ही प्राचार्यश्री में जनता में अणुवत चक्र प्रवर्तन का निश्चय किया । यह अणुवत ही वस्तुतः तेरापथ का व्यावहारिक रूप है । इस 'प्रणयत शब्द में अणु का अर्थ है-सबसे छोटा और व्रत का अर्थ है-वचन-दा सपाल्प । जब व्यक्ति इस व्रत को ग्रहण करेगा तो उससे यही अभिप्रेत होगा कि उसने अन्तिम मजिल पर पहुँचने के लिए पहली सीढी पर पैर रख दिया है। इस अणुव्रत के विभिन्न रूप हो सकते हैं और ये सब रूप पूर्णता के हो प्रारम्भक बिन्दु हैं । प्राचार्यश्री तुलसी ने इसी अणुव्रत को देश के मुदूर भागों तक पहुंचाने के लिए अपने शिष्यो को माज से बारह वर्ष पूर्व प्रादेश दिया था। तब से लेकर मब तक ये शिष्य शिमला से मद्रास तथा बगाल से कन्छ तक संकड़ों गांवों और दाहरों मे पंदल पहुँचकर मणुव्रत की दुन्दु भी बजा चुके हैं। इस अवधि मे प्राचार्यश्री ने भी अणुव्रत के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जो प्रत्यन्त प्रायासकर एवं दीर्घ यात्राएं की हैं, वे उनके सूर्य की तरह विराम प्रम की शानदार एवं अविस्मरणीय प्रतीक है । राजस्थान के धापर गांव से उन्होने अपनी अणुव्रत-यात्रा का प्रारम्भ किया। उसके बाद वे जयपुर माये पौर वहाँ से राजधानी दिल्ली। दिल्ली से उन्होने पदल-ही पैदरा पजाब में भिवानी. होमी, सगरूर, लुधियाना, रोपड़ पौर पम्बाला की यात्रा की। इसके बाद राजस्थान होते हुए दे चम्बई, पना मोर हैदराबाद के समीप तक गए। वहां से लौटकर उन्होने मध्यभारत के विभिन्न स्थानों तथा राजस्थान की पन । यात्रा की। इसी प्रकार उन्होने उत्तरप्रदेश, बिहार मौर गास के लम्बै यात्रा पच सय किये। भारत के प्राध्यात्मिक स्रोत
भावार्ययो तुलसी को ये यात्राएं चरित्र-निर्माण के क्षेत्र में अपना मभूतपूर्व स्यान रखती हैं। उनकी सुलना अनतिकता के रिम निरन्तर जारी धर्मयों से की जा सकती है। अपने शिष्यों समेत स्वयं यह महान एवं पविराम थम करके प्राचार्यश्री तुमसी ने समस्त देश में शान्ति एवं कल्याण का एक ऐगा पवन प्रवाहित किया है, जिसमी पोतरता जनमानस को कर रही है मौर
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चरैवेति चरैवेति को साकार प्रतिमा
जो अपने में सागरं सागरोपम. की तरह अनुपम है। जो प्राध्यात्मिक सन्तोष और प्रात्मविश्वास की भावना इन यात्रानों के परिणामस्वरूप जनता को प्राप्त हुई, उसने समाज को चरित्र के चारु, किन्तु कठिन पथ पर चलने के लिए नवीन प्रेरणा प्रदान की है। अब तक लगभग एक करोड़ व्यक्ति अणुव्रत ग्रान्दोलन के सम्पर्क में पा चुके हैं और एक लाख से अधिक व्यक्तियो ने उससे प्रभावित होकर बुरी भादतों का परित्याग कर दिया है । प्राचार्यश्री तुलसी सूर्य की तरह हो न केवल दिव्याग हैं, अपितु सूर्य की तरह ही उनकी समस्त दिनचर्या है । वे भारत के माध्यात्मिक स्रोत हैं। उन्होने अपने चैतन्य काल से अब तक जो कार्य किया है, उस सब पर उनके श्रान्तिहीन श्रम की छाप विद्यमान है। वह जनता जनार्दन का एक ऐसा इतिहास है जिसकी तुलना धर्म-सस्थानो के इतिहास से की जा सकती है । इस सकाम संसार में वह निष्काम दीप की तरह जल रहा है । जीवन का एक पल भी ऐसा नहीं है, जिसमे उन्होंने अपनी ज्योति का दान दूसरों को न दिया हो। वह 'चरैवेति' की तरह एक ऐमी साक्षात् प्रतिमा है जिसके सम्मुख सिर सहज ही थदा से नत हो जाता है ।
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प्रथम दर्शन और उसके बाद
श्री सत्यदेव विद्यालंकार ये प्रथम दर्शन में कभी भूम नहीं सकता। गरस्थान के कछ स्थानों का दौरा करने के बाद मैं जयपुर पगा। उन दिनों जयपुर के न गमाज में कुछ गामाजिक संघर्ष चम रहा था। जयपुर रचने पर उसके सारे ने कुछ जार. कारी प्राप्त करने की इच्छा स्वाभाविक धी। जैन समाज के साथ मेरा बहरा पुराना सम्बन्ध था । अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासभा के प्रपानमत्री लाला प्रसादीलालजी पाटनी, कई वर्ष हुए, 'जन-दण्डनम्' नामक पुस्तक लेकर मेरे पास प्राये । पुस्तक में जैन समाज पर कुछ गहित प्राक्षेप क्येि गए थे। उनके कारण वे उसको सरकार द्वारा जब्त करवाना चाहते थे। मेरे प्रयल में उनका वह कार्य हो गया। इस साधारण-सी घटना के कारण मेरा अखिल भारतीय दिगम्बर महासभा के माध्यम से जन समाज के साथ सम्बन्ध स्थापित हरा और पाटनीजी के अनुग्रह से वह निरन्तर बढ़ता ही चला गया। इसी कारण उस सघर्ष के बारे में मेरे हृदय में जिज्ञासा पंदा हुई।
मैंने एक मित्र से उसका कारण पूछा ; वे कुछ उदासीन भाव से वोस कि प्रापको इसमें क्या दिलचस्पी है । मैंने बिनोद में उत्तर दिया कि पत्रकार के लिए हर विषय मे रचि रखनी यावश्यक है। इस पर भी उन्होंने मुझे टालना हो चाहा । कुछ आग्रह करने पर उन्होने कहा कि जैन समाज के विभिन्न तम्त्रदायो मे बहुत पुराना सघर्ष चला माता है । दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों मे तो फौजदारी तथा मुकदमेबाजी तक का लम्बा सिलासला कई वर्षों तक जारी रहा । इसी प्रकार इन सम्प्रदायों का स्थानकवासियो तथा तेरापथियों के साथ पोर उनका आपस में भी मेल नहीं बैटता । यहाँ तेरापंथ-सम्प्रदाय के प्राचार्यश्री तुलसी का चातुमास चल रहा है और उनके प्रवचनों के प्रभाव के कारण दूसरे सम्प्रदायों के लोग उनके प्रति ईप्या करने लगे हैं। उनका प्रापस वा पुराना वर नये सिरे से जाग उठा है।
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प्रथम दर्शन और उसके बाद
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मेरी दिलचस्सी के कारण उन्होंने स्वय ही यह प्रस्ताव किया किया कि या पाप भाषात्रों के दर्शन करने के लिए मैंने कहा कि मुके इसमें क्या पाति हो सकती है ! एक माचार्य महानुष्य के दर्शनों से कुछ साभ ही मिलेगा। उन्होंने कुछ समय बाद मुझ सूचना दी कि दोपहर को दो बजे बाद वा समय रोक रहेगा ।
प्रथम दर्शन
मगभग बड़ाई बजे में उनके साथ उम पाल ने गया जिसमे प्राचार्यश्री के प्रबंधन हुआ करते थे। मैंने मित्र मानव-सा बना हुआ उपस्थितोगों को पत्र में एक काने में जा बैठा। यदि में मूलता नहीं, वो पूज्य माचाभी उन समय उच्च स्वायालय के व्यापी श्री क्षेत्रम सवारी के साथ बातचीत करने मे ममग्न थे। प्राचार्यश्री को निर्मन स्वच्छ और पवित्र तंग-भूषा तथा उनके पड़ा । में बुरबार २०-२५ मिनट बंद कर बता पाया। मैंन कोई बातचीत उग्र समय नहीं की और न करने की मुझे इच्छा ही हुई । कारण केवल यह था कि ने उनकी बातो मन पंदा नहीं करना चाहता था। जैसे
वृद्धी
ही उठ कर में चला, लगा जैसे कि उन मोटा
बना है।
माधवी दृष्टि मुझ पर पड़ी और मुझे ऐ भागों ने मुझे घेर लिया हो। फिर भी चुपचाप मे पहले दर्शन जिना वित्र मे सामने साज भी हो
जयपुर से प्रयास करने के बादधी का दिल दोलन कर पान किया जा चूका था।
पाथी अपने मन के साथ राहदानी
पर्चा की। नई दि
गया ।
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पधारे थे। बासा के धारको
हुए
राजधानी की दुरानो नो
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प्रो हो पाई कि
र
wife ferir qui è per drrat 654073 € (et spelar
को पोर में
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पावाश्री तुमी से परहो की दोमी शत्रवानी में प्रसारित हो। मनमुन भ्रष्टाचार, चोरपामारी, मुहायोरी.मितावर तपा पतिकता वातावरण को पवित्र करने लिए प्राचार्यश्री के पyan-पादोलन का मैतिक मच दूध को दूध पौर पानी को पानी कर देने वाला हो पा। तोन घोषणाएं
नयारागार में पापंग करने के बाद जो पहला प्रवचन हुमा, उसके कारण मेरे लिए प्राचार्यश्री मा राप्रपानी की ऐतिहासिक नगरी में शुभागमन एक मनोयो ऐतिहामिक घटना थी । वह प्रवचन मेरे कानों में माही बना रहता है और उसके कुछ दाद कितनी हो वार उधत करने के कारण मेरे लिए शास्त्रीय वचन के समान महत्त्वपूर्ण बन गये हैं। प्राचार्यश्री पी पहती धोपए। यह पो कि यह तेरापंथ किसी व्यक्ति विदोष का नहीं है । यह प्रभु का पय है। इसीलिए इसके प्रवत्तंक प्राचार्यश्री भिनत्री ने यह कहा कि यह मेरा नहीं, प्रभु ! तेरा पंप है । इस घोषणा द्वारा प्राचार्यश्री ने यह व्यस्त किया कि वे किसी भी सकोणं साम्प्रदायिक भावना से प्रेरित न होकर, राष्ट्र-कल्याण तया मानव-हित की भावना से प्रेरित होकर राजधानी माये हैं ।।
दूसरी घोषणा प्राचार्यश्री को यह थी कि मैं मणुव्रत-पान्दोलन द्वारा उन राष्ट्रीय नेतामों के उस प्रान्दोलन को बलशाली तथा प्रभावशाली बनाना चाहता है, जो राष्ट्रीय जीवन को ऊंचा उठा कर उसमें पवित्रता का संचार करने में लगे हैं। ___ इसी प्रकार तीमरी घोषणा प्राचार्यधी ने यह की थी कि मैं मरने समस्त साघु-सव तथा साध्वी-संघ को राष्ट्र के नैतिक उत्थान के इस महान कार्य में लगा देना चाहता है।
इन घोपणानों का सष्ट अभिप्राय यह था कि जिस नैतिक नव-निर्माण के महान् प्रान्दोलन का सूत्रपात राजस्थान के सरदारशहर में किया गया था, उसको राष्ट्रव्यापी बना देने का शुभ सकल्प करके प्राचार्यश्री राजधानी पधारे थे। स्थानीय समाचारपत्रों में इसी कारण पाचायंधी के शुभागमन का हार्दिक स्वागत एवं भभिनन्दन किया गया। मैं उन दिनों में दैनिक 'प्रमर-भारत' का सम्पादन करता था । इन घोषणामो से प्रभावित होकर मैंने 'अमर भारत' को
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अणुव्रत आन्दोलन का प्रमुख पत्र बना दिया और उसके लिए भारी से भारी लोकापवाद को सहन करते हुए मैं अपने इस व्रत पर अडिग रहा ।
उपेक्षा, उपहास और विशेष
श्रेयाप्ति बहुविघ्नानि को कहावत प्राचार्यथी के इस शुभागमन और महान् नैतिक प्राग्दोलन पर भी चरितार्थ हुई । आन्दोलन को उपेक्षा, उपहास, भ्रम और विरोध का प्रारम्भ मे सामना करना ही पडता है। फिर उसके लिए सफलता की भाँको दीख पडती है । अणुव्रत प्रान्दोलन को उपेक्षा, उपहास का इतना सामना नहीं करना पडा, जितना कि विरोध का | इस विरोधपूर्ण वातावरण में ही अणुव्रत पान्दोलन के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन दिल्ली में टाउन हाल के सामने किया गया । न केवल राजधानी में, अपितु समस्त देश के कोने-कोने में उसकी प्रतिध्वनि गूंज उठी । कुछ प्रतिक्रिया विदेशों में भी हुई। हमारे देश का कदाचित् ही कोई ऐसा नगर बचा होगा, जिसके प्रमुख समाचारपत्रों मे श्रणुव्रत प्रान्दोलन और सम्मेलन को चर्चा प्रमुख रूप से नहीं की गई और उस पर मुख्य लेख नहीं लिखे गये । बम्बई, कलकत्ता, मद्रास तथा अन्य नगरों के समाचारपत्रों ने बड़ी-बडी भाशाश्री से आन्दोलन एव सम्मेलन का स्वागत किया। बात यह थी कि अनैतिकता और भ्रष्टाचार दूसरे महायुद्ध की देन है और इन बुराइयों से सारे ही विश्व का मानव समाज पीड़ित है। द इनसे मुक्ति पाने के लिए बेचैन है । इससे भी कहीं अधिक विभीषिका विश्व के मानव के सिर पर तीसरे सम्भावित महायुद्ध की काली घटाओं के रूप में मंडरा रही है । तब ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कि माचार्यश्री ने मरणुव्रत- प्रोन्दोलन द्वारा मानव को इस पीड़ा व बेचैनी को हो प्रगट किया हो और उसको दूर करने के लिए एक सुनिश्चित अभियान शुरू किया हो, इसीलिए उसका जो विश्वव्यापी स्वागत हुप्रा, वह सबंधा स्वाभाविक था ।
सबसे बड़ा प्राक्षेप
इस विश्वव्यापी स्वागत के बावजूद राजधानी के अनेक क्षेत्रों में अणुव्रतमान्दोलन को देह एवं प्राशका से देखा जाता रहा और उसको अविश्वास
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मानाचंधी नुरमी रामा विरोध कोनी riti Tarना पसियों पोर माची का गबम बरा पापा पागधीएक य.नियंग कमाना हैं और पहा मी गाविना, अनुरा तथा प्रगति मे घोर मीन है। भारमीन का मनपा 34 गाय को प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए किया गया है पौर उमाप्रदाय के अनुपाची पाने प्राचार को पुत्रवाने के लिए उगला हुए ६। यह भी गहा जाना पाकिम मन्त्रदाय की मागे पवम्या पधिनाय स्वार पर धापारित है। उसके पना उनके मवंतत्र स्वतन्त्र पधिनायक हैं। वर्तमान प्रवा-युग में प्रधिनायकवाद पर माधिन प्रान्दोलन बड़ा मनग्नाम है।सी प्रकार के तरह-तरह के मारांप व प्रासादोलन पर किये जाते थे। नेरारथी सम्प्रदाय की मारतामों व मर्यादामा कसम्बन्ध में गरुविन यसको साम्प्रदापिक दृष्टिकोण से विचार व विरोध करने वाले इसी पक्षरावपूर्ण चश्मे से अणुव्रत-प्रान्दोलन को देखते थे मोर उम पर मनमाने प्रारोग व प्रार्पा करने में तनिक भी सकोच न करते थे। तरह-तरह के हस्तपत्रक छाप कर वाट गए पोर दीवारों पर बड़े-बडे पोस्टर भी छाप कर चिपकाये गए। विरोध करने यालों ने भरसक विरोध किया पोर आन्दोलन को हानि पहुंचाने में कुछ भी कसर उठा न रखी।
इस बवण्डर का जो प्रभाव पड़ा, उसको प्रकट करने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होना चाहिए। कुछ साथियो का यह बितार हुमा कि अस्तअान्दोलन का परिचय राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद को देकर उनकी सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए । उनका यह अनुमान था नि राष्ट्र पविजी नैतिक नव-निर्माण के महत्त्व को अनुभव करने वाले महानुभाव है। उनको यदि इस नैतिक मान्दोलन का परिचय दिया गया तो भवम्य हो उनकी सहानुभूति प्राप्त की जा सकेगी। श्रीमान् सेठ मोहनलालजी कठोनिया के साथ में राष्ट्रपति भवन गया और उनके निजी सचिव से चर्चा वार्ता हुई, नो उसने स्पद कह दिया किया कि यह मान्दोलन विशुद्ध रूप से सामपदाधिक है और ऐसे किसी साम्प्रदायिक मान्दोलन के लिए राष्ट्रपति की सहानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती। मैंने अनुरोध किया कि राष्ट्रपतिजी से एक बार मिलने का अवसर तो भाप दें, परन्तु वे उसके लिए भी सहमत न हुए । यह एक ही उदा. हष्ण पर्याप्त होना चाहिए; यह दिखाने के लिए कि माचार्यश्री की राजधानी में
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प्रथम दर्शन और उसके बाद कैसे विरोध, भ्रम, उदासीनता तथा प्रतिकूल परिस्थितियो मे अणुव्रत-पान्दोलन की नाव को सेना पड़ा। इसके विपरीत जिस पर्य, सयम, माहस, उत्साह विश्वास तथा निष्टा से काम लिया गया, उसका परिचय इतने से ही मिल जान चाहिए कि विरोधी पान्दोलन के उत्तर में एक भी हस्त-पत्रिका प्रकाशित नई की गई। एक भी चपतम समाचारपत्रो को नहीं दिया गया और किसी कार्यकर्ता ने अपने किसी भी व्याख्यान म उसका उल्लेख तक नहीं किया-प्रति वाद करना तो बहुत दूर की बात थी। जबकि प्राचायंधी के प्रभाव, निरीक्ष भोर नियात्रा में इम अपूर्व घर्ष और अपार सयम से कार्यकर्ता प्रान्दोलन प्रति अपने वर्तव्य-पालन मे सलान धे, तब यह नो अपेक्षा ही नहीं की जा सकर पो कि पूज्यश्री के प्रवचनों में कभी कोई ऐसी चर्चा की जाती । प्रणवत-सम लन के पधिवेशन में भी कुछ विघ्न डालने का प्रयत्न किया गया, परन्तु सम्पू मधियेशन मे विरोधियों की चर्चा तक नहीं की गई और प्रतिरोप अथवा प्र न्तोष का एक माद भी नहीं कहा गया। मान्दोलन अपने निश्चित मार्म । मक्याहत गति से निरस्तर मागे बड़ा मया । पधिकाधिक सफलता
प्राचायंधी के उस प्रथम दिल्ली-प्रवार में राजधानी के कोने-कोने से म पह-मायोजन का सन्देश पूज्यश्री के प्रवचनो द्वारा पहुंचाया गया और मिर से प्रस्थान करने से पूर्व ही उसके प्रभाव के अनुकूल मासार भी चारों पोखने लग गए थे। राजधानी के पतिरिक्त भासपास के नगरों में पान्दो
देश पर भी अधिक तेजी से फैला । यह प्रकट हो गया कि तपस्या बामना निरपंक नहीं जा पाती। विश्वास, निष्ठा और अक्षा अपना दिलाये बिना नहीं रह सकते। रचनात्मक और नव-निर्मातरम प्रवृनियो मम्फर पनाने के लिए विना भी प्रसन्न क्यों न किया जाए, दे प्रसफल नह मनीपत-पदोलनमा १.१२ वर्ष का इतिहास दम तम्प का साक्षी है कोई भी मोहत्यामारीपन का प्रति प्रयया पानोरन मसानही माता । राजगी को हो दृष्टिगे शिवार या जाए तो पाचालंधी पीर मित्रापरतो कोसा दी और मरो को पोशातीय और वो को पता पौरो शिवित न, पारपंपोर प्रभावशानी रही है। र,
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प्राचार्यश्री तुलसी
पति भवन मन्त्रियों की कोठियों, प्रशासकीय कार्यालयों और व्यापारिक तथा प्रौद्योगिक संस्थानों एवं शहर के गली-कूचो व मुहल्लों में मणुव्रत मान्दोलन की गूंज ने एक सरीखा प्रभाव पैदा किया | उसको साम्प्रदायिक बता कर प्रथवा किसी भी अन्य कारण से उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकी और उसके प्रभाव को दबाया नही जा सका । पिछले बारह वर्षों में पूज्य आचार्यश्री ने दक्षिण के सिवाय प्रायः सारे ही भारत का पाद-विहार किया है मोर उसका एकमात्र लक्ष्य नगर-नगर, गाँव-गाँव तथा जन-जन तक अणुव्रत प्रान्दोलन के सन्देश को पहुँचाना रहा है। राजस्थान से उठी हुई नैतिक निर्माण की पुकार पहले राजधानी में गूंजी और उसके बाद सारे देश में फैल गई। राजस्थान, पंजाब, मध्यभारत, खानदेश, बम्बई और पूना; इसी प्रकार दूसरी दिशा में उत्तरप्रदेश बिहार तथा बगाल मौर कलकत्ता को महानगरी में पधारने पर पूज्य प्राचार्यश्री का स्वागत तथा प्रभिनन्दन जिस हार्दिक समारोह व धूमधाम से हुम्रा, यह सब प्रणुव्रत प्रान्दोलन को लोकप्रियता, उपयोगिता धीर माकर्षण शक्ति का ही सूचक है ।
मैंने बहुत समीप से पूज्य माest के व्यक्त्वि की महानता को जानने व समझने का प्रयत्न किया है। प्रणुत्र माग्दोलन के साथ भी मेरा बहुत निकट-सम्पर्क रहा है । मुझे यह वर्ष प्राप्त है कि पूज्यश्री मुझे 'प्रथम प्रती कहते हैं । माचार्यश्री के प्रति मेरी भक्ति और प्रजुवत मान्दोलन के प्रति मेरी aafe कभी भी क्षीण नहीं पड़ी । भावामंत्री के प्रति था और प्र प्रान्दोलन के प्रति विशम और निष्ठा में उत्तरोत्तर वृद्धि ही हुई है। महात्मा गांधी ने देश में नैतिक नव-निर्माण का जो सिलसिला शुरू किया था, उसको प्राचार्यश्री के शुक्त-मान्दोलन ने निरन्तर मागे ही बढ़ाने का सकल प्रयत्न किया है। मह भी कुछ नहीं है कि नैतिक नवनिर्माण की दृष्टि से पूज्य प्राचार्यश्री ने उसे और भी अधिक तेजस्वी बनाया है। चरित्र-निर्माण हमारे राष्ट्र को सबसे बड़ी महत्वपूर्ण समस्या है। उसको हल करने में पत्रन्दोलन जैसी ही भवन में सफल हो सकती है. एकमंत्र से स्वीकार किया गया है। राष्ट्रीय नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ता, विभिन्न राजनैतिक दवाओं और मत का प्रतिनिधित्व करने बाजे समाचार ने एक समीर उपयोगिता को स्वीकार
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असम दर्शन और उसके बाद किया है । सन्म विनोबा का भूदान और पूज्य पाचामंधी का भरावत-भान्दोलन, दोनों के पाद-विहार के साथ-साप गगा और जमुना को पुनीन धारापों की तरह सारे देश में प्रवाहित हो रहा है। दोनों की मृतवाणी सारे देश में एक सी गूंज रही है मौर मौतिकवाद की घनी कासी पटापों में बिजली को रेसा को तरह चमक रही है। मानव-समार ऐसे ही मत-महापुम्पों के नव-जीवन के माशामय सन्देशों के सहारे जीवित रहता है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में जब प्रणवमी पौर महाविनाशकारी साधनों के रूप में उसकवार पर मृत्यु को सस कर दिया गया है, तब ऐसे संत महापुरुषों के अमृतमय सन्देश को और भी अधिक आवश्यकता है । प्राचार्य-प्रवर श्री तुलसी और सत-प्रवर श्री विनोबा इस विनाशकारी युग में नव-जीवन के ममतमय सन्देश के ही जीवन्त प्रतीक है। धन्य हैं हम, जिन्हे ऐसे संत महापुरुषों के समकालीन होने और उनके नैतिक नव-निर्माण के अमृत सन्देश मुनने का सौभाग्य प्राप्त है।
मत्त-भान्दोलन के पिछले ग्यारह बारह वर्षों का जब मैं सिंहावलोकन करता है, तब मुझे सबसे अधिक भाशाजनक जो प्रासार दौख परते है, उनमें उल्लेखनीय हैं--प्राचार्यश्री के साधु संघ का प्राधुनिकीकरण । मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि साधु-मय के अनुशासन, व्यवस्था प्रथवा मर्यादानों में कुछ अन्तर कर दिया गया है। वे तो मेरी दृष्टि में और भी अधिक दृढ हुई हैं। उनकी ददता के विना तो साराही सेल बिगड़ सकता है, इसलिए शिथिलता की तो मैं कल्पना तक नहीं कर सकता । मेरा मभिप्राय यह है कि प्राचार्ययी के साधु-सघ मे अपेक्षाकृत अन्य साधु-सों के सार्वजनिक भावना का अत्यधिक मात्रा में संचार हुपा है और उसकी प्रवृत्तियां अत्यधिक मात्रा मे राष्ट्रोन्मुखी बनी हैं। प्राचार्यश्री ने जो घोषणा पहली बार दिल्ली पधारने पर को थी. वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई है। उन्होने अपने साधु-सघ को जन-सेवा तथा राष्ट्र-सेवा के लिए अपित कर दिया है। एक ही उदाहरण पर्याप्त होना चाहिए । वह यह कि जितने जनोपयोगी साहित्य का निर्माण पिछले दस-ग्यारह वर्षों में प्राचार्यश्री के साधु-संघ द्वारा किया गया है और जन-जागति तथा नतिक धरित्र-निर्माण के लिए जितना प्रचार-कार्य हुप्रा है, वह प्रमाण है इस बात का कि समय की मांग को पूरा करने में माचार्यश्री के साधु-सघने,प्रभूतपूर्व कार्य कर दिखाया है और देश के समस्त साधुओं के सम्मुख लोक सेवा तथा
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माचार्यश्री तुलसी जन-जागति के लिए एक अनुकरणीय मादर्श उपस्थित कर दिया है। युगको पुकार सुनने वाली सस्थाएं ही अपने मस्तित्व को सार्थक सित कर सरती हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि प्राचार्यश्री के तेरापध साबु-मंप ने अपने अस्तित्व को पूरी तरह सफल एवं सार्थक सिद्ध कर दिया है।
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मानवता के उन्नायक
श्री यशपाल जैन सम्पादक, जोवन साहित्य
प्राचार्यश्री तुलसी का नाम मैंने बहुत दिनो से सुन रखा था, लेकिन उनसे पहले-पहल साक्षात्कार उस समय हुमा जबकि वे प्रथम बार दिल्ली याये थे और कुछ दिन राजधानी में ठहरे थे। उनके साथ उनके अन्नवासी माधु-सानियो का विशाल समुदाय था और देश के विभिन्न भागो से उनके सम्प्रदाय के लोग भी बहुत बडी सस्था में एकत्र हुए थे। विभिन्न प्रालोचनाएँ
प्राचार्यश्री को लेकर जन समाज तथा कुछ जनेतर लोगो में उस समय तरहतरह की बा नहीं जाती थी। कुछ लोग बहन थे कि वह बहुत ही सच्चे और लगन के प्रादमी हैं और धर्म एव समाज की सेवा दिल से कर रहे है। इसके विपरीत कुछ लोगो का कहना था कि उनमें नाम की बड़ी भूख है और वह जो कुलकर रहे हैं. उसके पीछे तेरापथी सम्प्रदाय के प्रचार को तीन लालसा है। में दोनों पक्षों की बातें मुनता था। उन सबको सुन-सुन कर मेरे मन पर कुछ अजीब-सा चित्र बना । मैं उनसे मिलना टालता रहा।
पचानक एक दिन किमी ने घर पाकर सूचना दी कि प्राचार्यधी हमारे मुहल्ले में माये हुए हैं घोर मेरो याद कर रहे हैं । मेरो याद ? मुझे विस्मय हमा। मैं गया। उनके चारो घोर बढी भीड थी और नोग उनके चरण स्पर्श करने के लिए एक दूसरे को हल कर मागे माने का प्रयान कर रहे । जैसे-तैसे उस भीड़ में से रास्ता बना कर मुझे प्राचार्यश्री जी के पास ले जाया गरा। उस भोर-माइ पोर कोलाहल में ज्यादा वातचीत होना तो यहाँ सम्भव था, लेकिन पर्चा से अधिक जिस चीज की मेरे दिल पर छाप पड़ी, वह वा प्राचार्यश्री का सजीय व्यक्तित्व, मधुर थाहार पोर उन्मुक्तता। हम लोग पहली बार मिले
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प्राचार्यश्री तुलसी
थे, लेकिन ऐसा लगा मानो हमारा पारस्परिक परिचय बहुत पुराना हो । उसके उपरान्त श्राचार्यश्री से अनेक बार मिलना हुमा । मिलना ही नहीं, उनसे दिल खोल कर चर्चाएं करने के अवसर भी प्राप्त हुए । ज्यों-ज्यों में उन्हें नजदीक से देखता गया, उनके विचारों से अवगत होता गया, उनके प्रति मेरा अनुराग बढ़ता गया । हमारे देश में साधु-सन्तों की परम्परा प्राचीन काल से ही चली भा रही है । प्राज भी साधु लाखो की संख्या में विद्यमान है; लेकिन जो सच्चे साधु है, उनमें से अधिकांश निवृत्ति-मार्गी है । वे दुनिया से बचते हैं और अपनी प्रात्मिक उन्नति के लिए जन-रव से दूर निर्जन स्थान में जाकर बसते है । मात्म-कल्याण को उनकी भावना और एकान्त में उनकी तपस्या निःसन्देह सराहनीय है, पर मुझे लगता है कि समाज को जो प्रत्यक्ष लाभ उनसे मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता ।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, "मेरे लिए मुक्ति सब कुछ त्याग देने में नहीं है। सृष्टिकर्ता ने मुझे गणित बन्धनो में दुनिया के साथ बाँध रसा है ।"
प्राचार्यश्री तुलसी इसी मान्यता के पोषक हैं। यद्यपि उनके सामने त्याग का ऊंचा आदर्श रहता है और वे उसकी भोर उत्तरोतर पर होते रहते हैं, तथापि वे समाज और उसके मुख-दुख के बीच रहते हैं और उनका मनि प्रयत्न रहता है कि मानव का नैतिक स्तर ऊंचा उठे, मानव सुखी हो और समूची मानव-जाति मिलकर प्रेम से रहे। एकप के माघानं भवदय है। लेकिन उनको करना सकीर्ण परिधि से प्रावृत नहीं है। ये सबके हित का चिन्दन करते हैं और समाज-सेवा उनकी साधना का मु पग है । पहा करते थे कि समाज कोई मनुष्य है पर यदि मनुष्य का जोवन गुड हो जाए तो समाजमा सुपर जाएगा। इसलिए उनका और हमेशा मानव की सुविता पर रहता था। यही बात प्राचार्यश्री तुलसी के साथ है। वे बार-बार कहते है कि हर आदमी को अपनी घोर देखना चाहि कोना चाहिए। वर्तमान युग की प्रशान्ति को देखकर होगी ?" झामंत्री
एक बार एक छात्र ने उनसे पू-दुनिया में उदास दिनमा
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में उन्होंने कहा - 'रोटी, मकान, कपड़े की समस्या से अधिक महत्त्वपूर्ण समस्या मानद में मानवता के प्रभाव की है ।'
मानव हित के चितक
मानव हित के चिन्तक के लिए आवश्यक है कि वह मानव की समस्याओं से परिचित रहे | आवाधी उस दिशा में अत्यन्त सजग हैं । भारतीय समाज के सामने क्या-क्या कठिनाइयों हैं, राष्ट्र किस सकट से गुजर रहा है, अन्तर्रा ष्ट्रीय जगत के क्या-क्या मुख्य मसले है, इनकी जानकारी उन्हें रहती है । वस्तुत. बचपन से ही उनका झुकाव अध्ययन और स्वाध्याय की घोर रहा है और जीवन को वे सदा खुनी पांखो से देखने के मभिलापी रहे हैं | अपने उसी अभ्यास के कारण प्राज उनकी दृष्टि बहुत ही जागरूक रहती है और कोई भी छोटी-बडी समस्या उनको तेज आँखो से बची नही रहती ।
जैन-धर्मावलम्बी होने के कारण महिसा पर उनका विश्वास होना स्वाभा विक है | लेकिन मानवता के प्रेमी के नाते उनका वह विश्वास उनके जीवन की स्वास बन गया है। हिंसा के युग में लोग जब उनसे कहते हैं कि प्राणविक स्त्री के सामने पहिया से सफल हो सकती है तो वे साफ जवाब देते हैं, "लोगों का ऐसा बहना उनका मानसिक भ्रम है । आज तक मानव-जाति ने एक स्वर से जैसा हिमा का प्रचार किया है, जैसा यदि हिंसा का करती तो स्वयं धरती पर उतर माता । ऐसा नहीं किया गया, फिर में सन्देह क्यों ?"
हिंसा को सफलता
मागे वे कहते हैं- "विश्व शान्ति के लिए प्रमावश्यक है ऐसा कहने वालों ने यह नहीं सोचा कि यदि वह उनके शत्रु के पास होता तो "
धर्म-पुरुष
आचार्यश्री की भूमिका मुख्यतः साध्यात्मिक है । वे धर्म-पुरुष हैं। धर्म के प्रति माज की बढती विमुखता को देल कर वे बढ़ते हैं, "धर्म से कुछ लोग चिढ़ते हैं, किन्तु वह भूल पर हैं। धर्म के नाम पर फैली हुई बुराइयों को मिटाना धारक है, न कि धर्म को धमं जनवत्या का एकमात्र साधन
है ।"
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मामाग्री मुरमी प्रयोग मागे ममा !-"जो लोग समस्याम देने को मा . सुमित
पारमो गाविले पानी से मार डोना। पर प्रसार का मामा पोको पानी पीने पाहोगी। यह अमित यह होता कि यह प्राती भूष को परमता पौरमा पानी न पीने का पर्म का त्याग करने को माहने वालों को माहिए बनताको धर्म नाम पर की हए विचारों को छोरा गिगा. मंगरने को गोल नहै।"
पर्म का मोवोसम्म मुगेध नगमे होने इनों की प्यासा कोई-"प है गाय को मोर, पामा को जानकारी प्राने स्वरूप को पहषान, यही सो धर्म है। गही मयं यदि धर्म है तो वह यह नहीं मिलाता कि मनुष्य मनुष्य साधनही गिललाराकिनी के मार से मनुष्य छोटा पाया है। धर्म नहीं मिलाना कि कोई किमी का शोषण करें। धर्म यह भी नहीं कहता कि वाह्य प्राहावर प्रपनाकर मनुष्य प्रस्ती चेतना को सो बैठ । किसी के प्रति दुभाबना रखना भी यदि पमं में शुमार हो तो वह धर्म किस काम मा । म धर्म से कोसों दूर रहना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा।"
प्राज राजनीति का बोलबाला है। ऐमा प्रतीत होता है कि 'राज' को पेन्द्र में रस कर सारी नीतियां बन मोर चल रही है। जब कि राहिए यह कि केन्द्र में मनप्प रहे मोर सारी नीतियो उसी को लक्ष्य में रख कर सचालित हों। उस अवस्था में प्रमुखता मानव को होगी और यह तया मानव-नीति राज और राजनीति के नीचे नही, ऊपर होगी । पाज सबसे अधिक कठिनाइयाँ मौर गन्दगी इस कारण फैली है कि राजनीति जिसका दूसरा मथं है-सत्ता, पर, लोगो के जीवन का चरम लक्ष्य बन गई है और वे सारी समस्यामो का समाधान उसी में सोजते हैं। कहा जाता है कि सर्वोत्तम सरकार वह होती है जो लोगों पर कम-से-कम शासन करती है। लेरिन इस सच्चाई को बसे भुला दिया गया है। इस सम्बन्ध में प्राचार्यश्री का स्पष्ट मत है-"राजनीति लोगों के बरूरत की वस्तु होती होगी। किन्तु सबका हल उसी में वंदना भयंकर भल है। पाज राजनीति सत्ता और अधिकारों को हथियाने की नीति बन रही है । इसीलिए उस पर हिंसा हावी हो रही है। इससे ससार मुम्मो तब होगा, कर ऐसी राजनीति घटेगी और प्रेम, समता तथा भाईचारा बढेगा।"
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११५ वे चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को विकास का पूरा प्रवसर मिले; लेकिन पह तभी सम्भव हो सकता है, जबकि मनुष्य स्वतन्त्र हो । स्वतन्त्रता मे उनका मभिप्राय यह नहीं है कि उसके कार कोई अंकुश हो न हो और वह मनमानी करे । ऐसी स्वन्त-यता तो अराजकता पैदा करती है और उससे समाज सगठित नहीं, छिन्न-भिन्न होता है। उनके कथनानुसार--"स्वतन्त्र वह है, जो न्याय के पीछे चलता है। स्वतन्त्र वह है, जो अपने स्वार्थ के पीछे नहीं चलता । जिसे अपने स्वार्थ और गुट मे हो ईश्वर-दर्शन होता है, वह परतन्त्र है।"
मागे वै फिर कहते हैं- "मैं किसी एक के लिए नहीं कहता । चाहे साम्यवादी, ममाजवादी या दूसरा कोई भी हो, उन्हें समझ लेना चाहिए कि दूम, का इस शर्त पर समर्थन करना कि वे उनके पैरों तले निपटे रहे, स्वतन्त्रता का समर्थन नहीं है।" कुशल प्रशासक
वे किसी भी वाद के पक्षगती नहीं हैं । वे नहीं चाहते कि मानव पर कोई भी ऐसा बाह बन्धन रहे, जो उसके मार्ग को अवरुद्ध और विकास को कुण्टिन करे । पर इससे यह न समझा जाए कि संगठन अथवा अनुशासन मे उनका विश्वास नहीं है। वे स्वय एक सम्प्रदाय के भावार्य हैं और हजारों साधू. साध्वियों के सम्प्रदाय और शिप्य महली के मुखिया है। उनके अनुशासन को देखकर विस्मय होता है। उनके साधु-साध्वियों में कुछ तो बहुत ही प्रतिभा. शाली पौर शामबुद्धि के हैं। लेकिन क्या मजाल कि वे कभी अनुशासन में बाहर हो । जब किसी र स्वार्थ के लिए लोग मिलते हैं तो उनके गुट बनते हैं और गुदमन्दी कदापि श्रेयस्कर नहीं होती। इसी प्रकार वाद का अर्थ है, पाखों पर ऐसा चश्मा पढ़ा लेना कि सब चीजें एक ही रय की दिखाई दें। कोई भी स्वाधीनचेवा पौर विकासशील व्यक्ति न गुटबन्दी के चक्कर में पड़ सकता है है पौरन वाद के। मनुष्य अपने व्यक्तित्व के दीक को लेकर भले ही व बितना ही छोटा क्यों न हो, अपने मार्ग को प्रकाशमान करता रहे, जीवन को अभंगामो बनाता रहे, यही उसके लिए अभीष्ट है।
वास्तविक स्वतबला वा मानन्द वही ले सकता है, जो परिग्रह से मुक्त हो । परिग्रह की गणना पत्र महादतों में होती है। पाचायो अपरिग्रह के
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प्राचार्यश्री तुल
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व्रती हैं। वे पैदल चलते हैं। यहाँ तक कि पैरों में कुछ भी नही पहनते । उन पास केवल सीमित वस्त्र, एकाघ पात्र और पुस्तकें हैं। समाज मे व्याप्त पार्थि विषमता वो देख कर वे कहते हैं- "लोग कहते हैं कि जरूरत की चीजें क हैं। रोटी नहीं मिलती, कपड़ा नहीं मिलता । यह नहीं मिलता, वह नहीं मिलत प्रादि श्रादि । मेरा ख्याल कुछ और है । मैं मानता हूँ कि जरूरत की चीजें क नहीं, जरूरतें बहुत बढ़ गई हैं, संघर्ष यह है । इसमे से प्रधान्ति को बिनारिय निकलती हैं ।"
अपनी श्रान्तरिक भावना को व्यक्त करते हुए वे धागे कहते हैं- ए व्यक्ति महल में बैठा मौज करे और एक को खाने तक को न मिले, ऐसी मा विषमता जनता से सहन न हो सकेगी ।"
"प्रकृति के गाथ खिलवाड करने वाले इस वैज्ञानिक युग के लिए धर्म को बात है कि वह रोटी की समस्या को नहीं सुलझा सकता ।"
पात्र का युग भौतिकता का उपासक बन रहा है। वह जीवन को चरम सिद्धि भौतिक उपलब्धियो में देखता है । परिणाम यह है कि माज उसकी निगाह धन पर टिकी है और परिग्रह के प्रति उसकी घासक्ति निरन्तर बड़तो जा रही है। वह भूल गया कि यदि सुख परिग्रह में होता तो महावीर पोर बुद्ध क्यो राजपाट और दुनिया के वैभव को त्यागते और क्यों गांधी स्वेच्छा ये प्रचिन बनते । सुख भोग में नहीं है, याग में है पोर गौरीशकर को चोटी पर वही पढ़ सकता है, जिसके सिर पर बोझ को भारी गहरी नहीं होती । धाचार्यश्री मानते है कि यदि भाज वा मनुष्य अपरिग्रह की उपयोगिता को जान से मर उस रास्ते पर चल पड़े तो दुनिया के बहुत से सटा दूर हो जाएँगे ।
मानव के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को शुद्ध बनाने के लिए माचाश्रीनेतान्दोलन का पाठ किया था और वह आन्दोलन सब देवस्या बन गया है। उस नंतिकान्तिका मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने पापों को देखे और उन्हें दूर करे। इसके गाय-साथ जो भी काम उसके हाथ में हो, उसके करने में नैतिकता का पूरा सेवन को बनाने के लिए प भी कर रहे है, चूंकि
अधिक-से-अधिक व्यापक और पर लगन से कार्य किया है और
भोजन का
अन्तिम लक्ष्न मानव-जाति को गुपी बनाना है,उसके
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लिए सुना है। उसमें किसी भी धर्म, नत्र यत्रा सम्पदाय का विभाग से सकता है। पण्श्व के व्रतियों में बहुत से जैनेवर स्त्री-पुरुष भी हैं।
न्दोलन के अन्तर्गत प्रति वर्ष महिला तथा मंत्री दिवस भी देश भर मन जा है। जिससे तनाव का वातावरण सुधरे और यह इच्छा सामूहिक रूप से कम हो कि वास्तविक गुण और शान्ति दिया एवं वैर से नहीं, बि महिला और भाईचारे से स्थापित हो सकती है।
प्रभावशाली वक्ता और साहित्यकार
भवानी
तथा अच्छे साम्विकार भी है। उनके प्रवचनों मेंदों का प्रादम्बर यश कला को हटा नहीं रहती । वे जो बोलते हैं. यह न केवल होता है, उसे दिवारों को भी रहती है | टि-से-टिम बात हो वे बहुत हो सीधे नारे में बहु देते हैं। कभीकभी वे धरतो बात को समाने के लिए कथा-कहानियों का माधव मेवे है । वे महानियाँ वास्तव में बसे रोचक एवं विवाद होती है ।
धावा भी निते रहते हैं । जब उन कविताओं का सामूहिक रूप में सरबर पाठ होता है तो बड़ा हो मनोहारी वायुमण्डल उपग्न हो जाता है।
लेकिन में प्रकरते हो
को त्रिमा बन रही है और मानवता के मे हिमोरे तो है । मानो कहा करते है कि भूटान पत्र के
हृष्य
दिन उन्हें एक भी दुर्जन
देश का भ्रमण किया है. मानव के प्रति उनकी पहचान
है।
बहुत बहा में ग्रह और पम दोनों प्रकारको रिती हूँ। बाप है कि मनुष्य पर हावी होने का डर न मिले।
को
રે
जिस हों, उनके सामने मानव
को उस नावा
भाभी पर
उपने सारे नहीं बिना
रहे है। बिकी बेटा देते है और कि दुनिया मे कोई को नहीं है।च्छा काम करने को
मों को
है
र
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मात्रायंग्री तुला रिसी में विमान है।
पापापंधी के मामने बाराव में बाबा ध्येय है, पर मानता होगा कि पुध मलाई उनके कार्य की उपयोगिता को मौमितरती हैं। वे एक सम्प्रदाय विप है। पतः प्रम्य गायों को प्रथमर है कि वे माने कि उनके उतने निकट नहीं है। फिर वे प्राचार्य के पद पर है, जो सामान्य जनों के बराबर नहीं, बल्कि ऊंचाई पर है । इसके अतिरिक्त उनके मम्प्रदाय की परम्पराएं भी है। यपि उनके विकामनील व्यक्तित्व ने वहन-सी अनुपयोगी परमगमों को छोड़ देने का साहम दिखाया है । तथापि मात्र भी अनेक ऐसी चीजें हैं जो उन पर कपन लाती हैं। साहिरगुता का प्रादर्श
जो हो, इन कठिनाइयों के होते हुए भी उनकी जीवन-यात्रा बराबर प्ररने परम-लक्ष्य की सिद्धि को प्रोर हो रही है। उनमें सबसे बड़ा गुण यह है कि वे बहुत ही सहिष्ण हैं। जिस तरह वे अपनी बात बही शान्ति से कहते हैं. उमी तरह वे दूसरे की बात भी उतनी ही शान्ति से मुनते हैं। अपने से मतभेद रखने वाले अथवा विरोधी व्यक्ति से भी बात करने में वे कभी उद्विग्न नहीं होते। मैंने स्वय कई बार उनके सम्प्रदाय को कुछ प्रवृत्तियों की, जिनमें उनका अपना भी बड़ा हाथ रहता है, उनके सामने मालोचना की है। लेकिन उन्होंने हमेशा बड़ी प्रात्मीयता से समझाने की कोशिश की है। एक प्रसंग यहाँ मुझे याद माता है कि एक जैन विद्वान उनके बहन ही प्रालोचक थे । हम लोग बम्बई में मिले । संयोग से आचार्यश्री भी उन दिनों वही थे। मैंने उन सज्जन से कहा कि पापको जो शंकाएं हैं और जिन बातों से प्रापका मतभेद है, उनकी पर्धा माप स्वयं प्राचार्यश्री से क्यों न कर लें? वे तयार हो गये। हम लोग गये। काफी देर तक बातचीत होती रही। लौटते में उन सज्जन ने मुझ से कहा-"यशपालजी, तुलसी महाराज को एक बात को मुझ पर बड़ी अच्छी छाप पड़ी है।" मैंने पूछा--"किस बात की ?" बोले, "देखिये मैं बगार अपने मतभेद को बात उनसे कहता रहा, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं पाई । एक शब्द भी उन्होंने जोर से नहीं कहा । दूसरे के विरोध को इतनी सहनशीलता से मुनना मोर सहना मासान दास नहीं है ।"
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११९ अपने इस गुण के कारण मावायंधी ने बहुत से ऐसे व्यक्तियों को अपनी मोर मावृष्ट कर लिया है, जो उनके सम्प्रदाय के नहीं है।
अपनी पहली भेंट से लेकर अब तक के अपने ससर्ग का स्मरण करता है तो बहुत से चित्र पांखों के सामने घूम जाते हैं । उनले भनेक बार लम्बी चर्चाएं हुई हैं, उनके प्रवचन सुने हैं, लेकिन उनका वास्तविक रूप तब दिखाई देता है, जब वे दूसरों के दुःख की बात सुनते हैं । उनका सवेदनशील हृदय तब मानो स्वयं व्ययित हो उरता है और यह उनके चेहरे पर उभरते भावो से स्पष्ट देखा जा सकता है।
पिछली बार जब वे कलकत्ता गये थे तो वहाँ के वतिपय लोगों ने उनके तथा उनके साधु-सावी वर्ग के विस्ट एक प्रचार का भयानक तूफान खड़ा किया था। उन्हीं दिनो जव मैं कलकत्ता गया और मैंने विरोध की बात मुनी तो प्राचार्यश्री से मिला । उनसे चर्चा की। मावार्यश्री ने बड़े विहल होकर कहा-"हम साधु लोग बराबर इस बात के लिए प्रयत्नशील रहते हैं कि हमारे कारण पिसी को कोई मनिषा न हो।""स्थान पर हमारी साध्वियो टहरी थों, लोगों ने हम से माकर कहा कि उनके कारण उन्हें थोड़ी कठिनाई होती है। हम ने तत्काल साध्वियों को वहां से हटाकर दूसरी जगह भेज दिया। यह हमें यह मालूम हो जाए कि हमारे कारण यहां के लोगों को परेशानी या प्रमुविषा होती है तो हम इस नगर को छोड़कर चले जाएंगे।"
पाचार्यधी ने जो कहा. यह उनके अन्तर से उठकर मामा या।
भारत-भूमि सदा से पाप्यात्मिक भूमि रही है मौर भारतीय संस्कृति की गुंज किसी जमाने में सारे संसार में सुनाई देनी थी। प्राचार्यधो को माखों के सामने पपनी सस्कृति तथा सम्यता के पाम शिखर पर खड़े भारत का चित्र रहता है। अपने देश से, उसकी भूमि से मोर उस भूमि पर बसने वाले जन से, उन्हें बड़ी पाया है और सभी गहरे विश्वास के साथ कहा करते है-"वह दिन माने वाला है, जबकि पशु-बल से उजताई दुनिया भारतीय जीवन से महिसा और पान्ति की मौख मौरेगी।"
माधापंथी पीवी हो पोर उनके हार्यों मारा अधिकाधिक सेवा होती रहे. ऐमो हमारी सायना है।
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पाराग्री तुला किसी में विमान है।
भामायंपी के सामने बाराव में नराचा ध्येय है, पर मानता होगा कुम मचाई उनकार्य की उपयोगिता को सीमित करती है। वे एक मम्मदा विपके है; अनः अन्य सम्प्रदाय को पवमा है कि माने कि वे उन उठन निस्ट नहीं है। फिर व प्राचार्य के पद पर है. जो मामान्य जनों के बराबर मही, कि ऊंचाई पर है। इसके प्रतिरिवन उनके सम्प्रदाय की परमराएं भी है। यदि उनके विकासशील व्यक्तिव ने बहन मो अनुपयोगी परमगमों को छोड़ देने का साहम दिखाया है । तथापि भाज मी भनेक ऐसी चीजें है वो वन पर धन साती है। सहिष्णुता का प्रादर्श
जो हो. इन कठिनाइयों के होते हुए भी उनकी जीवन-यात्रा बराबर भग्ने चरम-लक्ष्य की मिद्धि को पोर ही रही है। उनमें सबसे बड़ा गुण यह है कि वे बहुत ही सहिष्ण है। जिस तरह वे अपनी बात बडो शान्ति से कहते हैं. नमो तरह वे दूसरे की बात भी उतनी ही शान्ति से सुनते हैं। अपने से मतभेद रखने वाले अथवा विरोधी व्यक्ति से भी बात करने में दे कभी उद्विग्न नहीं होते। मैने स्वय कई बार उनके सम्प्रदाय की कुछ प्रवृत्तियों की, जिनमें उनका सपना भी बड़ा हाय रहता है, उनके सामने मालोचना की है। लेकिन उन्होने हमेशा बढी मात्मीयता से समझाने की कोशिश की है। एक प्रसंग यहाँ मुझे याद माता है कि एक जैन विद्वान उनके बहन ही पालोचक थे। हम लोग बम्बई में मिले । संयोग से प्राचार्यश्री भी उन दिनों वहीं थे। मैंने उन सज्जन से कहा कि प्रापको जो शंकाएं हैं और जिन बातो से प्रापका मतभेद है, उनकी चर्चा पाप स्वयं माचार्यश्री से क्यों न कर लें? वे तैयार हो गये। हम लोग गये। काफी देर तक वातवीत होती रही। लौटते में उन सज्जन ने मुझ से कहा---"यापालजी, तुलसी महाराज की एक बात की मुझ पर बड़ी मच्छो छाप पड़ी है।" मैंने पूछा- किस बात की ?" बोले, 'देखिये मैं बगर अपने मतभेद की बात उनसे बहता रहा, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं पाई । एक पद भी उन्होंने जोर से नहीं रहा । दूसरे के विरोध को इवनी सहनशीलता से सुनना मोर सहना मासान पास नहीं है।"
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मानवता के उन्नायक
अपने इस गुण के कारण प्रावायंथी ने बहुत से ऐसे व्यक्तियों को भपनी पोर प्राकृष्ट कर लिया है, जो उनके सम्प्रदाय के नहीं हैं।
अपनी पहली भेंट से लेकर अब तक के अपने ससर्ग का स्मरण करता हूँ तो बहुत से चित्र प्रांखों के सामने धूम जाते हैं। उनसे अनेक बार लम्बी चर्चाएं हुई हैं, उनके प्रवचन मुने हैं, लेकिन उनका वास्तविक रूप तब दिखाई देता है, जब वे दूसरो के दु.ख की बात सुनते हैं । उनका संवेदनशील हृदय तब मानो स्वय व्ययित ही उश्ता है और यह उनके चेहरे पर उभरते भावों से स्पष्ट देखा जा सकता है।
पिछली बार जब वे कलकता गये थे तो वहाँ के कतिपय लोगों ने उनके तथा उनके साधु-साध्वी वर्ग के विरुद्ध एक प्रचार का भयानक तूफान सड़ा किया था। उन्ही दिनो जब मैं कलकत्ता गया और मैंने विरोध की बात सुनी तो भाचार्यश्री से मिला । उनसे चर्चा की। भावायंधी ने बड़े विह्वल होकर कहा--"हम साधु लोग बराबर इस बात के लिए प्रयलशील रहते हैं कि हमारे कारण किसी को कोई पसुविधा न हो । स्थान पर हमारी साध्वियां ठहरी थी, लोगों ने हम से प्राकर कहा कि उनके कारण उन्हें थोड़ी कठिनाई होती है। हम ने तत्काल साध्वियो को वहां से हटाकर दूसरी जगह भेज दिया । यदि हमें यह मालूम हो जाए कि हमारे कारण महाँ के लोगों को परेशानी या मसुविषा होती है तो हम हम नगर को छोड़कर चले जाएंगे।"
प्राचार्यधी ने जो कहा, वह उनके अन्तर से उठकर पाया था।
भारत-भूमि सदा से प्राध्यात्मिक भूमि रही है और भारतीय संस्कृति की मुंज किसी जमाने में सारे संसार में सुनाई देती थी। भाचार्यश्री को प्रोखों के सामने अपनी सस्कृति तथा सम्यता के चरम शिखर पर खड़े भारत का चित्र रहता है। परने देश से, उसकी भूमि से और उस भूमि पर बसने वाले जन से, उन्हें बड़ी पागा है पौर तभी गहरे विश्वास के साथ कहा करते हैं--"वह दिन माने वाला है, जब कि पशु-बल से उकताई दुनिया भारतीय जीवन से भहिंसा मौर शान्ति को भीख मांगगो!"
प्राचार्यश्री पात जीवी हों और उनके हाथों मानवता की अधिकाधिक सेवा , होती रहे, ऐसी हमारो कामना है।
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भाचार्यश्री तुलसी बान समय एक रामी दयानक सिदान्तों के प्राधार पर जैन धर्म के सेवकों
पमग मागं रखा, वे भी बड़े चार साय प्राचार्यजी के प्रणुदत मान्दोलन के विशेष काकर्ता बने हुए है। उनका यह मब प्रभाव देस कर पाश्चर्य होता है कि राजस्थान के एक मामा परिवार में जन्म लेने वाला यह मनुष्य कितने विलक्षण प्रतिव का स्वामी है, जिसने वामन की तरह से अपने घरणों से भारत के कई राज्यों की भूमि नापी है। इस ममय देश में एक-दो व्यक्तियों को छोड़ कर माचार्य तुसमी पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने प्राचार्य विनोग से भी अधिक पदयात्रा कर देश की स्थिति को जाना है और उमसी नम्ज देख कर यह पेप्टा को है कि किस प्रकार के प्रयल करने पर मान्ति प्राप्ति की जा सकती है। उनके जीवन-दर्शन में कभी विराम और विथाम देखने का अवसर नहीं मिला। जब कभी भी उन्हें किसी प्रवसर पर प्रपना उपदेश करते देखा, तब उन्हें ऐमा देख पाया कि वे उस समारोह में बैठे हुए हजारों शक्तियों को भावना को पढ़ रहे हैं। उन सबका एक व्यक्ति किस प्रकार समाधान कर सकता है. यह उनकी विलक्षणता है। समारोहों में सभी लोग पूरी तरह से सुलझे हुए नहीं होते । उनमें सकी विचारधारा के व्यक्ति भी होते हैं। उनमें कुछ ऐसे भी व्यक्ति होने है जो अपने सम्प्रदाय विशेप को अन्य सभी मान्यनामों से विशेष मानते हैं। उन सब व्यक्तियों का इस प्रकार समाधान करना l साधारण व्यक्ति वा काम नहीं है । ग्रामों और कस्बों की प्रज्ञान परिधि में रहने वाले लोगों को, जिन्हे पगडही पर चलने का हो मम्यास है। एक राजमार्ग से उन्हें किसी विशेष लक्ष्य पर पहुँचा देना माचार्य तुलसी जसे हा सामथ्र्यवान् व्यक्तियों के वश की बात है। विरोधियों से नम्र व्यवहार
उनके जीवन की विलक्षणता इस बात से प्रगट होती है कि वे अपने विरोधियों की कानों का समाधान भी बडे मादर और प्रेमपूर्ण व्यवहार से करते हैं। कई बार उन मोर प्रचण्ड अालोचकों को मैंने देखा है कि भाचाजी से मिलने के बाद उनका विरोध पानी की तरह से लदक गया है।
यंत्री के दिल्ली पाने पर मैं यही समझता था कि वे जो कुछ काय है. वह मोर साधु-महात्मामों की तरह से विशेप प्रभाव का कार्य नहीं
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अनुपम व्यक्तित्व
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होगा । जिस तरह से सभा समाप्त होने पर, उस सभा की सभी कार्यवाही प्रायः समास्थल पर ही समाप्त-सी हो जाती है, उसी तरह की धारणा मेरे मन में भाषा के इस भान्दोलन के प्रति थी ।
कैसे निभाएंगे ?
भाजाल जहाँ नगर-निगम का कार्यालय है, उसके बिल्कुल ठीक सामने आचार्यत्री को उपस्थिति में हजारो लोगों ने मर्यादित जीवन बनाने के लिए तरह-तरह की प्रेरणा व प्रतिज्ञाएं ली थी। उस समय वह मुझे नाटक सा लगता था। मुझे ऐसी मनुभूति होती थी कि जैसे कोई कुशल अभिनेता इन मानवमात्र के लोगों को बठपुतली की तरह से नचा रहा है । मेरे मन में बराबर दशका बनी रही। इसना कारण प्रमुख रूप से यह था कि भारत को राजधानी दिल्ली में हर वर्ष इस तरह की बहुत-सी संस्थानों के निकट माने का मुझे अवसर मिला है। उन सस्यामों में बहुत-सी सस्थाएँ असमय में ही बालकलित हो गई। जो कुछ बच्चों, वे श्रापसी दलबन्दी के कारण स्थिर नहीं रह सकीं। इसलिए मैं यह सोचता था कि माज जो कुछ चल रहा है, वह सब टिकाऊ नहीं है । यह बान्दोलन मागे नहीं पनप पायेगा । तब से बराबर अब तक मैं इस प्राग्दोलन को केवल दिल्ली हो में नहीं, सारे देश मे गतिशील देवता है। मैं यह नहीं कह सकता कि यह प्रान्दोलन न किसी एक व्यक्ति का रह गया है। दिल्ली के देहातों तक में और यहां तक कि भुग्गी-झोपड़ियों तक इस प्राग्दोलन ने अपनी जड़े जमा ली हैं । मब ऐसा कोई कारण नहीं दीखता कि जब यह मालूम है कि यह मान्दोलन किसी एक व्यक्ति पर सीमित रह जाए। इस पाग्दोलन ने सारे समाज में ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया है कि सभी वर्गों के लोग एक बार यह विचारने के लिए विवश हो उठते हैं कि प्रावि इस समाज में रहने के लिए हर समय उन बातों को मोर जाना ठीक नहीं होगा, जिनका कि मार्ग पतन की पोर जाता है । अन्ततोगत्वा सभी लोग यह विचार करने पर मजबूर दिखाई देते हैं कि सबको मिल-जुलकर एक ऐसा राला जहर योजना चाहिए, जिससे सभी का हित हो सके। समाज में इस
रहको बेतना प्रदान करने का श्रेय प्राचार्य तुलसी को ही दिया जा सकता है । उन्होंने बड़े स्नेह के साथ उन हजारों लोगों के हृदयों पर बरबस विजय प्राप्ठ
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पाचार्यश्री तुलसी करती है। जीयन को यही विशेष रूप से मफलता है, जिसे प्राचार्य तुलसी पानी सतत साधना से प्रारा कर सके है। मत प्राम्दोलन सब मनुष्य के जीवन को इतनी किटता प्राप्त कर चुका है कि वह कुछ मामलों में एक सच्चे मित्र की परह से समाज का मार्गदर्शन करना है। नहीं नो उगे दिल्ली मार देश के दूसरे स्थानों में से बाग मिलसा और क्यों विद्यार्थी, महिलाएं और दूसरे प्रमिया एवं पनिर वर्ग उप्राना ? इससे यह प्रकट होता है कि प्रान्दोलन में कुछ-न-चार प्रभाव अवश्य है । बिना प्रभाव में यह प्रान्दोनन देशव्यापी नहीं बन सकता।
सतत साधना
अनेक बार पाचार्यजी के पाग चेटने पर ऐमा जान पड़ा कि वे जीवन दर्शन के कितने बड़े पण्डित है, जो केवल दिमी भी पान्दोलन को मरने तक ही सीमित रहने देना नहीं चाहते । प्रभी पिछले दिनों की बात है कि उन्होंने सुझाव दिया कि अणुव्रत-पादोनन के वार्षिक अधिवेशन का मेरी उपस्थिति में होना या न होना कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है। इस तरह से समाज के लोगों को अपने जीवन सुधारने की दिशा में प्राचार्य जी ने बहुत बार प्रयत्न क्रिया है। इस सम्बन्ध में उनका यह कहना कितना स्पष्ट है कि भविष्य म का पवित यह नहीं कहे कि यह कार्य प्राचायजी की प्रेरणा प्रयवा प्रभाव के कारण ही हो रहा है। वे चाहते है कि व्यक्तियों को किसी के साय कर मात्म-सम्युदय का मार्ग नहीं खोजना चाहिए। जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति से प्रेरणा लेनी चाहिए। जीवन जिस मोर उन्हे प्रेरणा दे, वह काम उन्हें करना चाहिए। यह सब देखकर प्राचार्यजी को समझने में सहायता मिल सकती है। वे उन हजारों साथमो की तरह अपने सिद्धान्तों को ही पालन कराने के लिए दुराग्रही नहीं हैं, जैसा कि बहुत से लोगों को देखा गया है, जो अपने अनुः यायियों को अपने निदिष्ट मार्ग पर चलने के लिए हो विवश किया करते हैं । प्राचार्यजी के पनुयायियों में कांग्रेस, जनरूप, कम्युनिस्ट, समाजवादी मार
तक कि जो ईश्वरीय सत्ता में विश्वास नहीं करते. ऐसे भी शक्ति है। +. 'मानते हैं कि जो लोग अपने को नास्तिक बहने हैं, वे वास्तव में
• नहीं है। इसलिए पाचार्यजी के निकट पाने में सभी वर्गों के व्यक्तियों
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अनुपम व्यक्तित्व को पूरी छूट रहती है । यह मैं अपने अनुभव की बात कर रहा हूँ। प्रेरक व्यक्तित्व
उन्होने प्रारम-साधना से अपने जीवन को इतना प्रेरणामय बना लिया है कि उनके पास जाने से यह नहीं लगता कि यहाँ पाकर समय व्यर्थ ही नष्ट हुमा । जितनी देर कोई भी व्यक्ति उनके निकट बेटता है, उसे विशेष प्रेरणा मिलती है। उनकी यह एक और बडी विशेषता है जिसे कि मैं और कम व्यक्तियो मे देस पाया हूँ। वे जिस किसो व्यक्ति को भी एक बार मिल चुके है. दूसरी बार मिलने पर उन्हें कभी वह कहते हुए नहीं सुना गया कि भाप कौन हैं? अपने समय में से कुछ-न-कुछ समय निकाल कर वे उन सभी व्यक्तियो को अपना शभ परामर्श दिया करते है, जो उनके निकट किसी जिज्ञासा अथवा मार्ग दर्शन की प्रेरणा लेने के लिए जाते है। अनेक ऐसे व्यक्ति भी देखे हैं कि जो उनके मान्दोलन में उनके साथ दिखाई दिये और बाद में वे नहीं दोख पाये । तव भी प्राचार्य जी उनके सम्बन्ध में उनको जीवन-गतिविधि का किसी-न-किसी प्रकार से स्मरण रखते हैं । यह उनका विराट व्यचित्तत्त्व है, जिसकी परिधि मे बहुत कम लोग मा पाते है । ऐसा जीवन बनाने वाले व्यक्ति भी कम होते हैं, जो ससार से विरक्त रह कर भी प्राणी-मात्र के हित चिन्तन के लिए कुछ-न-कछ समय इस काम पर लगाते हैं और यह सोचते हैं कि उनके प्रति स्नेह रखने वाले व्यक्ति अपने मार्ग से बिछुड़ तो नहीं गए हैं ? विशेषता
कभी-कभी उनके दर्य को देख कर, बहा पाश्चर्य होता है कि यह सर भाचार्यजी किस तरह कर पाते हैं । कई वर्ष पहले की बात है कि दिल्ली के एक सार्वजनिक समारोह मे, जो प्राचार्यजी के सान्निध्य मे सम्पन्न हो रहा था, देश के एक प्रसिद्ध धनिक ने भाषण दिया । उन्होने जीवन और धन के प्रति मपनी निस्सारता दिखाई। एक युवक उम धनिक को उस बात से प्रभावित नहीं हुपा । उसने भरी सभा मे उस धनिक वा विरोध क्यिा । उस समय पास मे बैठा हुमा मैं यह सोच रहा था कि यह युवक जिस तरह से उस घनिक के विरोध मे भाषण कर रहा है. इसका क्या परिणाम निकलेगा, कि उन पनिक के हो निवास स्थान पर माचार्यजी उन दिनों ठहरे हुए थे मोर उस
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भाचार्यश्री तुनी पनिक की भोर से ही मायोजित सभाको अभ्यराना प्राचार्यत्री कर रहे थे। पो सो मुझे यह सगा कि पाचार्यजी म यक्ति को प्रागे नहीं बोलते देंगे; क्योकि सभा में कुछ ऐगा वातावरण उम पनिक के विशेष कर्मचारियों ने जान कर दिया था, जिसगे ऐगा लगता था कि पाचार्यजी को समाकी कार्यवाही स्थगित कर देनी पड़ेगी। किन्तु जब प्राचार्यजी ने उस व्यक्ति को सभा के विरोध होने पर भी बोलने का अवसर दिया तो मुझे यह पाशकाबनी रही कसभा जिस गति से त्रिम पोर जा रही है, उमस यह कम प्राशा थी कि तनाव दूर होगा। अपने मालिक का एक भरी ममा मे निरादर देख कर कई जिम्मेदार कर्मचारियो के नथुने फूलने लगे थे। किन्नु प्राचार्यजी ने बड़ी मुक्ति के साथ उस स्थिति को मम्भाला मोर जो सबसे बड़ी विशेषता मुझे उस समय दिखाई दी, वह यह थी कि उन्होंने उस नवयुवक को हतोत्माह नहीं किया, बल्कि उसका समधन कर उस नवयुवक की बात के मौचित्य का सभा पर प्रदर्शन किया। यदि कही उस नवयुवक की इतनी कट पालोचना होती तो वह समाप्त हो गया होता पौर राजनैतिक जीवन में कभी आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेता। किन्तु प्राचार्य जी को कुमलता से वह व्यक्ति भी प्राचार्यजी के सेवों में बना रहा और उस घनिक का भी महयोग प्राचार्यजी के ग्रान्दोलन को क्सिी. न-किसी रूप में प्राप्त होता रहा । एसे बहुत-से अवसर उनके पास बैठ कर देखने का अवसर मुझं मिला है, जब कहोने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा बद-सेबड़े संघर्प को चुटकी बजा कर टाल दिया। प्राजकल प्राचार्यजी जिस सुधारक पग को उठा कर समाज में नव जागति का सन्देश देना चाह रहे हैं, वह भी विरोध के बावजूद भी उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण सकीर्णता की सीमा को नि. मिन्द करके मागे बढ़ रहा है। राजस्थान की मरममि में माचार्यजी ने भान और निर्माण की अन्तःमलिला सरस्वती का नये सिरे से मवतरण कराया है। जिससे वह नान राजस्थान की सीमा को छ कर निकद के तीर्थों में भी अपना विशेष उपकार कर रहा है।
विशेष आवश्यकता
उत्तरप्रदेश के एक गांव में जन्म लेने वाला मुझ जैसा व्यक्ति प्रार यह विचार करता है कि भाचार्य तुलसी जैसे अनुपम व्यक्तित्व की हजारों
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अनुपम व्यक्तित्व
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वर्ष तक के लिए देश को श्रावश्यक है । देश के जागरण में उनके प्रयत्न से जो प्रेरणा मिलेगी, उससे देश का बहुत-कुछ हित होगा । यह केवल मेरी अपनी हो धारणा नहीं है, हजारों व्यक्तियो वा मुझ जैसा ही विश्वास प्राचार्यश्री तुलसी के प्रति है । समाज के लिए यदि भगवान् महावीर की आवश्यकता थी तो बुद्ध के अवतरण से भी देश ने प्रेरणा पाई थी। उसी प्रकार समय-समय पर इस पुण्य भू पर अवतरित होने वाले महापुरुषों ने अपने प्रेरणास्पद कार्य से इस देश का हित चिन्तन किया। उस हित चिन्तन की आशा और सम्भावना से प्राचार्यश्री तुलसी हमारे समाज की उस सीमा के प्रहरी सिद्ध हुए हैं. जिससे समाज का बहुत हित हो सकता है । मेरी दृष्टि में उनके माचार्य-काल के ये पच्चीस वर्ष कई कल्प के बराबर हैं। हजारों व्यक्ति इस भूमि पर जन्म लेते भीर मरते हैं। जीवन के सुख-दु:ख और स्वार्थ मे रह कर कोई भी यह नहीं जानता कि उन्होंने स्वप्न में भी समाज पर कोई हित किया। इस प्रकार के क्षुद्र जीवन से आगे बढ कर जो हमारे देश में महामनस्वी बन कर प्रेरणा प्रदान कर सके हैं, ऐसे व्यक्तियों में प्राचार्य तुलसी हैं। इनकी देश को युगों तक प्रावश्यकता है ।
प्रमुख शिष्य
प्राचायें तुलसी के जितने भी शिष्य हैं, वे सब प्रयाशक्ति इस बात में लगे रहते हैं कि प्राचार्यत्री ने जो मार्ग ससार के हित के लिए खोजा है, उसे घरघर तक पहुँचाया जाए। इस कल्पना को साकार बनाने के लिए मुनिश्री नगराजजी मुनिश्री बुद्धभल्लजी, मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी प्रादि अनेक उनके प्रमुख शिष्यों ने विशेष यत्न किया है । ऐसा लगता है कि जो दीप प्राचार्यजी ने जला दिया है, वह जीवन को मथमी बनाने की प्रक्रिया में सदैव सफल सिद्ध होगा। मेरी यही हार्दिक कामना है कि प्राचार्य तुलसी वा धनुषम व्यक्तित्व सारे देश का मार्ग-दर्शन करता हुआ चिर स्थायी शान्ति की स्थापना मे सफल हो ?
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द्वितीय संत तुलसी
श्री रामसेवक श्रीवास्तव
सहसम्पादक, नवभारत टास, समा सन् १९५५ को बात है, जब मरावत-प्रान्दोलन के प्रवतंक प्रापाको तुलसी बम्बई में थे और कुछ दिनों के लिए वे मुलुण्ड (बम्बई का एक उपनगर) में किसी विशिष्ट समारोह के सिलसिले में धारे हुए थे। यहीं पर एक प्रश्न का प्रायोजन भी हमा था। सार्वजनिक स्थान पर सानिय प्रयपन होने के नाते में भी उसका लाभ उठाने के उद्देश्य से पहुंचा हुमाया।
प्रवचन में कुछ पनिच्छा से ही मुनने गया था क्योकि इससे पूर्व मेरी पारणा साधुनों तथा उपदेशको के प्रति, विशेषतया पोरसको के प्रति को बहुत मच्छो न पी प्रौर ऐगे प्रसमा में प्राय महात्मा तु रसोशाम को उस परिव को दोहगने समता था, जिसमें उन्होने पर उप दुसरे, मावाहिते नरन पनेरेहकर समापदंशकोहीसबरमी है। परन्तु पावायत्री सुनमी के प्रवचन के बाद जब मैंने उनकी और उनके वियोंकी औरत का निसटपरीम किया तो मैं स्वयं अपनी पा से बरसम पतना मा सराक प्रात्न म्लानि एक प्रभावन कर पो पाद पर गई और भाषायो नमोनियालिनाने प्रथा भाष मनम हानेकनारा डा कारनामा छपा। मारे सम्मा मैं FRो Net किमो में समान गया ही नहीं। मुनिको से भेंट
निगा नुनको नमामी की सेवा के न होना परमार 14iam करने की "241411. नीनाका परिका
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द्वितीय संत तुलसो
और बताया कि व्रत प्रान्दोलन के किसी भी नियम को क्सोटो पर मैं खरा हीं उतर सकता; तब ऐसी स्थिति में इस विषय पर लिखने का मुझे क्या अधिकार है ? मुनिश्री ने कहा कि प्रणव्रत का मूलाधार सत्य है और सत्यपण कर आपने एक नियम का पालन तो कर ही लिया । इसी प्रकार प्राप अन्य नियमों का भी निर्वाह कर सकेंगे। मुझे कुछ प्रोत्साहन मिला और मैंने व्रत तथा प्राचार्यथी तुलसी के कतिपय ग्रन्थों का अध्ययन कर कुछ समझने की चेष्टा की सौर एक छोटा-सा लेख मुनिश्री की सेवा मे प्रस्तुत कर दिया । देख अत्यन्त साधारण था. तो भी मुनिश्री की विशाल सहृदयता ने उसे अपना लिया। तब से प्रणुव्रत को महत्ता को कुछ ग्रांकने का मुझे सौभाग्य मिला और मेरी यह भ्रान्ति भी मिट गई कि सभी धर्मोपदेशक तथा सत निरे परोपदेशक ही होते हैं। सत्र तो यह है कि गोस्वामी तुलसी की वाणी की वास्तविक सार्थ क्ता मैने भाचार्यश्री तुलसी के प्रवचन में प्राप्त की ।
जीवन और मृत्यु
गोस्वामी तुलसी ने नैतिकता का पाठ सर्वप्रथम अपने गृहस्थ जीवन में प्रौर स्वयं अपनी गृहिणी से प्राप्त किया था, किन्तु अाचार्यश्री तुलसी ने तो बारम्भ से ही साधु-वृत्ति प्रपना कर अपनी साधना को नैतिकता के उस सोपान पर पहुँचा दिया है कि गृहस्य और सन्यासी, दोनो ही उससे कृतार्थ हो सकते हैं । तुनमो-कृत रामचरितमानस को सृष्टि गोस्वामी तुलसी ने 'स्वान्त सुखाय' के उद्देश्य से की, विन्तु वह 'सर्वान्त सुखाय' सिद्ध हुआ, क्योकि संन्दों की सभी विभूतियों और सभी कार्य श्रन्यो के लिए ही होते प्राये हैं- परोपकाराय सत विभूतयः | फिर प्राचार्यश्री तुलसी ने तो प्रारम्भ से ही प्रपने सभी कृत्य परार्थ ही किये हैं और परार्थ को हो स्वार्थ मान लिया है। यही कारण है कि उनके अणुव्रत प्रान्दोलन मे वह शक्ति समायी हुई है जो परमाणु दाक्ति सम्पन्न बम मे भी नहीं हो सकती, क्योंकि अणुव्रत का लक्ष्य रचनात्मक एवं विश्वकल्याण है और प्राणविक घम्त्रों का तो निर्माण हो विश्व-सहार के लिए किया जाता है । एक जीवन है तो दूसरा मृत्यु । जोवन मृत्यु से सदा ही बडा सिद्ध हु है और पराश्य मृत्यु की होती है, जीवन वो नहीं । नागासाकी तथा हिरोशिमा में इतने बड़े विनाश के बाद भी जीवन हिलोरें ले रहा है और मृत्यु
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प्राचार्यश्री तुल पर प्रदट्टहास कर रहा है । वास्तविक मृत्यु
मानव को वास्तविक मृत्यु नैतिक ह्रास होने पर होती है । नैतिक मारण से हीन होने पर वस्तुनः मनुष्य मृतक से भी बुरा हो जाता है, क्योरि साधारण मृत्यु होने पर 'मात्मा अमर बनी रहती है । न हन्यते हन्यमाने शरीरे (गोत्रा) किन्तु नैतिक पतन हो जाने पर तो शरीर के जीवित रहने पर भी 'ग्रात्मा मर चुकती है और लोग ऐसे व्यक्ति को 'हृदयहीन', 'मनात्मवादी', 'मानवता के लिए फल ' कहकर पुकार उठने हैं । इसी प्रकार नैतिकता से हीन राष्ट्र चाहे पैसा भी श्रेष्ठ शामनतन्त्र को न अगीकार करे, वह जनता की मात्मा को सुखी दया सम्पन्न नहीं बना सस्ता । ऐसे राष्ट्र के कानुन तथा ममस्त सुधारना प्रभाव कारी सिद्ध नहीं होते और न उसकी कृतियों में स्वामित्व ही माने पाता है। कोकि इन कृतियों का प्राधार सत्य और नतित्रता नहीं होती, अपितु एक प्रकार की असरवादिता प्रथा अनरसाधिका कृति ही होती है । नतिक सरल * विना भौतिका मुख-मायनों का वस्तुतः कोई मूल्य नहीं होता। प्रा और अणुमत प्रान्सोलन
माज के युग में मागायक शक्ति का प्राधान्य है और इसीलिए इसे पल पुग की सजा देना सर्वया उपक्न प्रतीत होता है। विमान पार पानी परम सोमा पर है पौर उसने अपमान में मोति सोर निराली है, जो मापन विधारा सहार कुछ मिनटों में ही कराने में गम है। इसस सहारकारी पसने मनी भयो तर विमानपुर निवारणाय वो भी प्रयाग प्रकारान्तर से पार किये जा रहे है, उनके पांघे भी नाका मही भावना गमायो ।
पश्चिमी राष्ट्री की मगति से पीपर ने पुन. प्रा. पिस्कारों के गैप को योगा ही नही कर दी है, वनमः वह दो पार पीभगाकर भी कामदारकासाविक प्रतिषिया प्रमा पर और पपगेका नेमगित मागतान का है।
अम रीका में कम से पहीही fresigal है पर .
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द्वितीय सत्र तुलसी इसलिए रूस को उस दिशा में और अधिक बढ़ने का मौका कद्र कदापि नहीं दे सकता । साथ ही विश्व के अन्य देशो पर भी इसकी प्रतिक्रिया हुई है और स्पड मे प्रायोजित तटस्थ देशों का सम्मेलन इस घटना से कदाचित अत्यधिक प्रभावित हुमा है; क्योंकि सम्मेलन शुरू होने के दिन ही रूस ने अपनी यह पान ककारी घोषणा की है । इस प्रकार पाज का रिश्त्र साविक शक्ति के विनाशकारी परिणाम से बुरी तरह त्रस्त है। सभी पोर त्राहि-त्राहि-सी मची हुई है। क्योंकि युद्ध शुरू हो चुसने पर कदाचिन् कोई 'साहि-त्राहि' पुकारने के लिए भी शेप न रह जायेगा। इस विषम स्थिति का रहस्य है कि शान्ति के पावरण में युद्ध की विभीपिका सर्वत्र दिखाई पड़ रही है ? परिग्रह और शोषण को जनयित्री
जब मानद भौतिक तथा शारीरिक सुखो की प्राप्ति के लिए पापविता पर सर पाता है और अपनी प्रात्मा की प्रान्तरिक पुकार का उसके समक्ष कोई महत्त्व नहीं रहता, तब उसकी महत्त्वाक्षा परिषद और शोपण को जन्म देती है. जिसका स्वाभाविक परिणाम साम्राज्य प्रयया प्रभुत्व विस्तार के रूप में प्रार होता है । अपने लिए जब हम प्रावश्यकता से अधिक पाने का प्रयास करते हैं, तब निश्चय ही हम दूसरो के स्वत्व के अपहरण की कामना कर उठते है, बसि पोरों की वस्तु का अपहरण किये बिना परिग्रह की भावना तप्त नही की जा सरती। यही भावना मौरों की स्वतन्त्रता का भाहरण कर स्वच्छन्दता बी प्रवृत्ति को जन्म देती है जिसमा व्यवहारिक रूप हम 'उपनिवेशवाद' मे देखते है। दोपण की चरम स्थिति कान्ति को जन्म देती है, जैसा कि शास और Fस मे हुमा पोर मन्सन हिंसा को ही हम मुक्ति का साधन मानने लगते हैं तथा साम्यवाद के सबल साधन के रूप में उसका प्रयोग कर शान्ति पाने की लालसा परते हैं, किन्तु पान्ति फिर भी मृग-मरीचिका बनी रहती है। यदि ऐसा न होना तो रूस पान्ति के लिए माणविक परीक्षणों का सहारा यो लेवा मौर रिसो भी समझौता-चार्वा को पृष्ठभूमि मे सरित-सन्तुलन का प्रश्न सों सर्वाधिक महस पादा रहता। দিলাম
भारत के प्रारीन एवं प्राचीन महात्मापों ने सत्य और महिमा पर जो
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प्रायो Prifts mnt iTktrn Apna गोना Main
. THERE मा14 hrtainment मरियाई भूक मसको link
को IFTTER यमाचरण ofinant मोगमारन ), डिसवर पम्म)
सो पृषी 3) REAT reifa K4fr) वामा पानी का सामना का प्रार मामी antr पार पाने की कामना व मायाय
कनियानि गरम्य सकारते मना स्मरत।
गियामसरमा मिभ्याRI H अपने-गौला मियापनपने एक बात औरों में भी विमान उलग्न करे, तो इसमें पाप हो का है।
विनी महानतामातिनाम परकी गत हपने जो हमारका परही है यह मिपावरना होना है और इसीलिए पूर्व यत्रा पाचन में पारस्परिक किमया नितान्त नाम होकर पर की भावना उदा हा उठी है।
भारत में मात्र सर्वोत्कृष्ट प्रजातन्त्र शिसमान होते हए भी प्रग (जनता) मुखो एव सन्तुष्ट क्यो नही है। मान के लिए इतर कड़े कानून लाग हान पर और केन्द्र द्वारा इतना अधिक प्रोत्साहन किये जाने पर भी यह पयों नहीं दिखाई पवा? भ्रष्टाचार रोकने के लिए प्रशासन कोमोरस इतना मधिक प्रयास किये जाने पर भी वह कम होने के स्थान में बड़ क्यों रहा है । । इन सबका मूल कारण मिथ्याचरण नहीं तो मोर क्या है? भान्तरिक पथवा मात्मिक विकास किये बिना केवल बाह्य-विरास बन्धन-मुक्ति वा साधन हो सकता । विज्ञान तथा प्रण शक्ति का विकासमात्र ही उत्थान का एकमात्र साधन नहीं है।
अणु-शक्ति (विज्ञान) के साथ-साथ माज प्रणवत (तिक माचरण) की अपनाना भी उतना ही, अपितु उससे कहीं अधिक महत्त्व रखता है, जितना ' महत्व हम विज्ञान के विकास को देते है और जिसे राजनीतिक स्वतन्त्रता के
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द्वितीय संत तुलसी
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बाद प्राधिक स्वतन्त्रता का भूलाधार भी मान बैठे हैं।
अणुबन के प्रवर्तक भाचार्यश्री तुलसी के शब्दो में भारतीय परम्परा में महान् वह है जो त्यापी है। यहाँ का साहित्य त्याग के पाशों का साहित्य है। जीवन के परम भाग में नियंग्य या सन्यासी बन जाना तो सहज वृत्ति है ही, जीवन के प्राधि भागों में भी प्रव्रज्या प्रादेय मानी जाती रही है । पहरेव विर.
तबहरेव प्रबत्।
स्यागपूर्ण जीवन महावत की भूमिका या निर्गन्य पति है । यह निरपवाद सयम माग है, जिसके लिए प्रत्यन्त विरक्ति को अपेक्षा है। जो व्यक्ति प्रत्यन्त विरक्ति और प्रत्यन्त प्रविरक्ति के बीच को स्थिति में होता है, वह मरणप्रती बनता है। मानन्द गाथापति भगवान् महावीर से प्रार्थना करता है-'भगवन् ! अापके पास बहुत सारे व्यक्ति निन्थ बनते हैं, किन्तु मुझमें ऐसी शक्ति नहीं कि मैं निग्रंन्य बनं । इसलिए मैं मापके पास पांच प्रणवत भौर सात शिक्षाबत द्वादश वरूप ग ही धर्म स्वीकार कहेगा।"
यहाँ शक्ति का अर्थ है--विरक्ति । संसार के प्रति, पदार्थों के प्रति, भोगउपभोग के प्रति जिसमे विरक्ति का प्राबल्य होता है, वह नियन्य बन सकता है। अहिंसा और मपरिग्रह का व्रत उसका जीवन-धर्म बन जाता है । यह वस्तु सबके लिए सम्भव नहीं। बत बामण-हन मध्यम मार्ग है। प्रती जीवन शोषण और हिंसा का प्रतीक होता है और महावती जोवन शाक्य । इस दशा में प्रण वती जीवन का विकल्प ही शेष रहता है।
परण्यत का विधान बलों का समीकरण या सयम पौर प्रसंथम, सम और मसाम, महिला और हिंसा, अपरिग्रह पोर परिग्रह का पिपरा नहीं, मषित जीवन को न्यूनतम मर्यादा का स्वोकरण है। चारित्रिक मान्दोलन
मणुवत-प्रान्दोलन भूलत. चारित्रक प्रान्दोलन है। नतिरता और सत्या. परण हो इसके पूनमंत्र है । पारम-विवेचन प्रौर मात्म-परीक्षण समापन
१. को सात मह तहा सवामि भणे पाय परातर। प्रहम्प देवाएं. पिराण प्रन्तिए पाणारा रासविहं गिहियाम परिवमिस्तानि ।
--उपासकरमांक, ६०१
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विश्व की महान शक्तियों शान्ति के नाम को गुप्त रूप से जो तैयारियt र रही है यह सियार का ही दोन है और इसीलिए पूर्व तथा पश्चिम में पारस्परिक विश्वास का निहोरको भावना उद्दो हो
उठी है ।
भारत में मात्र रार्वोरकृष्ट प्रजातन्त्र विद्यमान होते हुए भी प्रजा (जनता) मुख एव सन्तुष्ट क्यो नही है ? मद्यनिषेध के लिए इतन कडे कानून लागू होने पर धौर केन्द्र द्वारा इतना अधिक प्रोत्साहन किये जाने पर भी वह कारगर होता क्यों नहीं दिखाई पड़ता ? भ्रष्टाचार रोकने के लिए शासन की कोर में इतना मधिक कम होने के स्थान से बड़ क्यो रहा है ? मोरक्या है ? प्रान्तरिक प्रवा बन्धन-मुक्ति का साधन नहीं
- ही उत्थान का एकमात्र
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माना है पौर तथा
- दोश
अणुव्रत (नैतिक आवरण) को
महत्त्व रखता है, जिवना राजनीतिक स्वतन्त्रता के
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१३३ बाद प्राधिक स्वतन्त्रता का भूनाधार भी मान बैठे हैं ।
भरणुव्रत के प्रवर्तक प्राचार्यश्री तुलसी के पशब्दों में भारतीय परम्परा में महान् वह है जो त्यागी है। यहाँ का साहित्य त्याग के यादों का साहित्य है। जीवन के चरम भाग में निम्रन्थ या सन्यासी बन जाना तो महज वृत्ति है हो, जीवन के प्रादि भागों में भी प्राण्या प्रादेय मानी जाती रही है यदहरेव विरजेन तवहरेव प्रजेत् ।
त्यागपूर्ण जीवन महानत की भूमिका या निर्गन्य वृति है । यह निरपवाद संयम मार्ग है, जिसके लिए अत्यन्त विरक्ति की अपेक्षा है। जो व्यक्ति भत्यन्त विरक्ति और अत्यन्त प्रविरक्ति के बीच की स्थिति में होता है, वह मानती बनता है। प्रानन्द गाथापति भगवान् महावीर से प्रार्थना करता है-- भगवन् ! आपके पास बहुत सारे व्यक्ति निर्यस्य बनते हैं, किन्तु मुझमे ऐसी शक्ति नही कि मैं निन्य बनें । इसलिए मैं मापके पाम पांच अणुव्रत मौर सात शिक्षावत; द्वादश नाप नही धर्म स्वीकार हिंगा।"
यहाँ शक्ति का अर्थ है--विरविन । ससार के प्रति, पदार्थों के प्रति, भोगउपभोग के प्रति जिममे विरक्ति का प्रावल्प होता है, वह निग्रन्थ बन सकता है। महिंसा मौर अपरिग्रह का व्रत उसका जीवन-धर्म बन जाता है । वह वस्तु सबके लिए सम्भव नही । बत का प्रणु-हर मध्यम मार्ग है । प्रवती जीवन शोषण मौर हिंसा का प्रतीक होता है पोर महावती जीवन शक्य । इस दशा में प्रा. वती जीवन का विकल्प ही शेष रहता है।
पएबल का विधान वनो या समीकरण या सयम पोर प्रसथम. सत्य प्रार पसरप, पहिंसा पोर हिमा, अपरिपह पोर परिग्रह का मिथए नहीं, अपितु जोवन सी न्यूनतम मर्यादा का स्वोकरण है। पारित्रिक मान्दोलन
पणुनत मान्दोलन भूलत. पारिधर पान्दोलन है। नैतिकता पौर सत्यापरण हो इमो मूलमय है। पारम-विवेचन मोर मान-परीक्षण इसके साधन
१. नो सानु मह सहा वामि मुणे पार पातए । प्रहन रेवारणपिया प्रतिए पापा सबसविह मिहिषम्म मिसामि।
--उपाति , म..
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प्राचार्यश्री तुलसी हैं । प्राचार्यश्री तुलसी के अनुसार यह मान्दोलन किसी सम्प्रदाय या धर्म-विशेष के लिए नहीं है । यह तो सबके लिए और सार्वजनीन है। प्रणात जीवन । वह न्यूनतम मर्यादा है जो सभी के लिए ग्राह्य एवं शक्य है। चाहे प्रात्मवाना हों या अनात्मवादी, बड़े धर्मज्ञ हों या सामान्य सदाचारी, जीवन की न्यूनतम मर्यादा के बिना जीवन का निर्वाह सम्भव नहीं है । अनात्मवादी पूर्ण महिमा म विश्वास न भी करें किन्तु हिमा प्रच्छी है, ऐसा तो नही कहते । राजनीति या कूटनीति को अनिवार्य मानने वाले भी यह तो नहीं चाहते कि उनकी पालया उनसे छलनापूर्ण व्यवहार करें। प्रसत्य और प्रप्रामाणिकता बरतने वाल भी दुमगे से सच्चाई और प्रामाणिकता की पाशा करते हैं। बुराई मानव का दुर्बलता है, उसकी स्थिति नहीं। कल्याण ही जीवन का परम सत्य है जिसका साधना व्रत (माचरण) है । प्रणवत-प्रान्दोलन उसी को भूमिका है। अणुयत विभाग
प्रणमत पांच हैं-महिमा, सरय, मचौर्य, ब्रह्मचर्य या स्वदार-संतोष मार अपरिग्रह या इच्छा-परिमाण ।
..पहिसाअहिमा-प्रणवत का तात्पर्य है-प्रन हिसासे, अनावश्यकता मान्य केवल प्रमाद या प्रज्ञानजनित हिसा से बचना। हिंसा केवल कापिाहा नहीं, मानसिक भी होती है और यह अधिक घातक सिद्ध होता है। माना" हिसा में भी प्रकार के शोपणो का समावेश हो जाता है और इसलिए " में छोटे-बड़े अपने-दिराने, स्पश्य-अस्पृश्य मादि विभेदो को परिकल्पना निषेध प्रपेक्षित होता है।
२. सर-जीवन को सभी स्थितियों में नौकरी, मापारपरेन या राम पपा ममार प्रति व्यवहार में सत्य का मामारण प्रणुवतीको मुख्य मापना
३. मनोय-सोमाविले मापापातम (जैन). केशविन्न मारिया सम्हमा (बोर) चोयं में मेरी मिष्टा, पोरीको मैं स्वाग्य मानता है। हम बोरन मै सम्पुर्ण पोरी में बचना सम्भव न मानो हुए भारती प्रतिभाता :-1. मरों की बात को भोरसि से नहीगंगा, २. मानदुसकर पारी की बानुनी समाचार न पोरी में प्रदायक बनमा .
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द्वितीय संत तुलसी
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राग्यनिषिद्ध वस्तु का व्यापार व पायाव-निर्यात नहीं करूगा, ४. व्यापार में मप्रामाणिकता नही वरतंगा।
४, ब्रह्मचर्य-१. सवेसु वा उत्तम मधेरं (जैन), २. मा ते कामगुणे रमासु चित, (बौद्ध), ३. सह्मवर्येण तपसा देवा मृत्युमपानल (वेद)।
ब्रह्मवयं अहिंसा का स्वात्परमणात्मक पक्ष है। पूण ब्रह्मवारी न बन सकने की स्थिति में एक पलीव्रत का पालन अणुवती के लिए अनिवार्य व्हाया
५. अपरिग्रह-(1) इच्छा है प्रागाससमा मगंतया (जन), (२) तहासयो सब दुक्ख जिनाति (बौद्ध), (३) मा गध कस्विद्धनम् (वैदिक) परिग्रह का तात्पर्य सग्रह से है। किसी भी सद्गृहस्थ के लिए सग्रह की भावना से पूर्णतया विरत रहना प्रसम्भव है। प्रत अणुव्रत मे अपरिग्रह से संग्रह का पूर्ण निषेध का तात्पर्य न लेते हुए अमर्यादित सग्रह के रूप में गृहीत है। भगुवती प्रतिज्ञा करता है कि वह मर्यादित परिणाम से अधिक परिग्रह नहीं रखेगा। वह घस नही लेगा । लोभवश रोगो की विवित्सा मे अनुचित समय नहीं लगायेगा। विवाह प्रादि प्रसगों के सिलसिले में दहेज नहीं लेगा, मादि।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रणवत विशुद्ध रूप में एक नैतिक सदाचरण है और यदि इस अभियान का सफल परिणाम निकल सका तो वह एक सहस्त्र कानूनों से कहीं अधिक कारगर सिद्ध होगा और भारत या अन्य किसी भी देश में ऐसे पाचरण से प्रजातन्त्र को सार्थकता चरितार्थ हो सकेगी। प्रजातन्त्र धर्मनिरपेक्ष भले ही रहै, किन्तु जब तक उसमे नैतिकता के किसी मर्यादित माफदण्ड की व्यवस्था की गुंजाइश नहीं रखी जाती, तब तक बह वास्तविक स्वतन्त्रता की सुप्टि नहीं कर सकता मोर न ही जनसाधारण के आर्थिक स्तर को ऊंचा उठा सकता है। स्वतन्त्रता की पोट में स्वच्छन्दता और आर्थिक उत्थान के रूप में परिग्रह तथा शोषण को ही खुलकर खेलने का मौका तब तक निस्सदेह बना रहेगा, जब तक इस माणविक युग मे विज्ञान की महत्ता के साथसाथ प्ररणवत-जैसे किसी नैतिक बन्धन की महत्ता को भी भली-भांति का नहीं जाता। विश्व शान्ति को कुञ्जी भी इसी नैतिक साधन मे निहित है। वस्तुत: पंचशील, सह-अस्तित्व, धार्मिक सहिष्णुता अणुव्रत के प्रोपाग जैसे ही हैं। प्रतः प्राचार्यश्री तुलसी का प्रणुव्रत-मान्दोलन माज के मणयुग की एक
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प्राचार्यश्री सुनो विनिष्ट देश होगममा जाना चाहिए ।
भारत में यदि प्रानीन या पर्वाशन काल में गिो पारा सम्मानित हा पया पाज भी है तो अपने गम्य, त्याग, महिमा, परोसार (पामह) पानिकों के कारण ही न पानी गन्य शक्ति अथवा भौतिक राशि के कारण । किन्तु पारदेश में जो भ्रष्टाचार व्याप्त है और मैतिक पतन जिस मीमा तक प ता है, उसे एक 'नेहरू का प्रावरण' कर तक के रहेगा? एक दिन तो विश्व में हमारीख कर ही रहेगी और तर विश्व हमारी वामविहीनना को जान कर हमारा निरादर किये बिना में रहेगा। पत. भारतबारियों के लिए भागविक शक्ति के स्थान में भाज पणवा-भान्दोलन को शक्तिशाली बनाना कहीं पधिक हितकारी सिद्ध होगा मोर मानव, राष्ट्र तथा विश्व का वास्तविक वस्याण भी इमो में निहित है।
प्राचार्यश्री तुलसी का वह कथन, जो उन्होन उम दिन प्राने प्रवचन में पहा था, मुझं प्राज भी याद है कि एक स्थान पर जब हम मिट्टी का नहर बड़ा पोर ॐवा ढेर देखते हैं तब हमें महज हो यह ध्यान हो जाना चाहिए, किसी अन्य स्थान पर इतना ही वडा और गहरा गडढा खोदा गया है।"
शोषण के बिना संग्रह प्रसम्भव है। एक को नीचे गिराकर दूसरा उन्नाव करता है। किन्तु जहाँ बिना किमी का शोषण किये, विना किसी को नाच गिराये सभी एक साथ प्रात्मोन्नति करते हैं. वही है जीवन का सच्चा पार शाश्वत मार्ग।
'भरणुव्रत' नैतिकता का ही पर्याय है और उसके प्रवर्तक माचार्यश्री तुलसा महात्मा तुलसी के पर्याय बहे जा सकते हैं।
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परम साधक तुलसीजी
श्री रिपभदास रांका सम्पादक, जैन जगत
बारह साल पहले मैं प्राचार्यश्री तुलसीजी से जयपुर में मिला था। तभी से परस्पर में मारपण भौर प्रात्मीयता बराबर बढती रही है। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों से इच्छा रहते हुए भी मैं जल्दी-जल्दी नही मिल पा रहा है, फिर भी निकटता का सदा अनुभव होता रहता है और आज भी उस अनुभव का मानन्द पा रहा हूँ।
व्यक्ति का जन्म कब हुमा मोर उसको कितने साल की उम्र हुई, यह कोई महत्त्व की बात नहीं है। पर उसने अपने जीवन में जो कुछ वैशिष्ट्य प्राप्त किया, कोई विशेष कार्य किया हो, वही महत्त्वपूर्ण बात है।
इस जिम्मेदारी को सौंपते समय उनकी आयु बहुत बड़ी नहीं थी। उनके सम्प्रदाय में उनसे वयोवृद्ध दूसरे संत भी थे; परन्तु उनके गुरु कालूगरणीजी ने योग्य चुनाव किया, यह तुलसोजी ने माचार्य पद के उत्तरदायित्व को उत्तम प्रकार से निभाया, इससे सिद्ध हो गया । कुछ प्राशंकाएँ
बैसे किसी तीर्थकर, भवतार, पैगम्बर, मसीहा ने जो उपदेश दिया हो उसको समयानुसार व्यास्था करने का कार्य माचार्य का होता है । उसे तुलसीजी ने बहुत ही उत्तम प्रकार से विया, यह पहना ही होगा। कुछ लोग उन्हें प्राचीन परम्परा के उपासक मानते हैं और कुछ उस परम्परा में प्रान्ति करने वाले भी। पर हम कहते हैं कि वे दोनों भी जो कहते हैं, उसमें कुछ-न-कुछ सत्य जरूर है, पर पूर्ण सत्य नहीं है । तुलसीनी पुरानी परम्परा या परिपाटी पलाते हैं, यह मेक है; पर शाश्वत सनातन धर्म को नये शब्दों में रहते हैं,
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माचाग्यो सुलती
यह भी असत्य नहीं है। कई लोगों को इसमें छल दिखाई देता है तो कईयों को दम्भ । उनका कहना है कि यह सब अपना सम्प्रदाय बढ़ाने के लिए है। लेकिन तुलसीजी छल या माया का प्राश्रय लेकर अपने सम्प्रदाय को पाने . का प्रयत्न कर रहे हों, ऐसा हमे नहीं लगता। क्योकि उनमें हमें इस समझ के दर्शन हुए हैं कि कुछ व्यक्तियो को तेरापथी या जैन सनाने को । अपेक्षा जैन धर्म की विशेषता का व्यापक प्रचार करना हो थेयस्कर है। उनमें इच्छा जरूर है कि अधिक लोग नीतिवान्, चरित्रशील व सदगुपो गर्ने । यार व्यापक क्षेत्र में काम करना हो तो सम्प्रदाय वदि का मोह बाधक ही होता है।
यदि माज कोई किसी को अपने सम्प्रदाय में स्वीचने की कोशिश करता है । तो हमें उस पर तरस पाता है। लगता है कि वह कितना बेसमझ है और वस्त्वों के प्रचार की एवज मे परम्परा से चली माई सदियों के पालन में प. प्रचार मानता है। हमे उनमे ऐसी सकुचित दृष्टि के दर्शन नहीं हुए। इसलिए हम मानते हैं कि उनमे छल सम्भव नहीं है।
दम्भ या प्रतिष्ठा-मोह के बारे में कभी-कभी पर्वा होता है। उनके प्रधान विचार रखने वाले पहले किये जगा को प्रातमी हो, सो बात करत ।। मन में एक बात हो पौरसरा भाव प्रकट करना दम्भ ही तो है। भारत साल परिश्रम कर पही साधना को हो सो रल को पद पयो में बता ही है। जब साधना के मार्ग में भरकर कोई मरागमन रतनानीछा साधक-बारा मार्ग का प्रतीक-इसी दर्भ : पायेमा, नियम नहीं होता। हमने देखा कि नवर्या करने काप पान वानी मकबहत उत्तवाinा ऐमो सभी का महमा सम्म भोर मका निमनहोनाल मस्ती, फिर भी पाप रही होते, हे अजित होमने नहीलायमापनास प्राप्त सावित्रा हमारी हिम्मत नहीं कि हम मे दिया । रही
पानी भोपात, सोहम विपर का प्रय भनिनRI४
विकलोगो कोलकाता भारी
या मार.14 में माप नितिन र सामान पाtriti सपको
ये नही बनी। यह पता
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________________ रिम साधक तुलसीजी रन्छो प्रवृत्तियों या मान्दोलन के प्रचार के हेतु यह सव किया जाता हो तो या उसे अयोग्य या स्याज्य माना जा सकता है ? प्रतिष्ठा का मोह ऐसा है, जिसका त्याग करता हरा दिखने वाला कई पर उसका त्याग उससे अधिक पाने की माशा से करता है। दूसरे पर माक्षेप करते समय हम अपना प्रात्म निरीक्षण करें, तो पता लगेगा कि हमारी कहनी मोर करनी में कितना अन्तर है। हमें कई बार अपने-मापको समझने में कठिनाई होती है / लोकपणा को त्यागने का प्रयल करने वाले ही जानते हैं कि ज्यों-ज्यो बाह्य-रयाग का प्रयत्न होता है, त्यों-त्यों वह अन्तर मे जड़ जमाता है। यह बात प्रपना मानसिक विश्लेषण, प्रपनी प्रवृत्तियों का निरीक्षण परीक्षण करने वाला ही जानता है / कई बार त्याग किये हुए ऐसा दिखाई देने वाले के हृदय में भी उसको कामना होती है तो कई बार बाहर से दी हुई प्रतिष्ठा का भी जिसके हृदय पर असर न हम्रा हो ऐसे साधक भी पाये जाते हैं। इस 'लए तुलसीजी के हृदय में प्रतिष्टा का मोह है या धर्म-प्रसार को चाह, इसका नर्णय हम जैसो को करना कठिन है, इसलिए इस बात को उन्हीं पर छोड़ दें, पही थेष्ठ है। कर्मठ जीवन उन्होने बो धवल समारोह के निमित्त से वक्तव्य दिया, वह हमने देखा। वह भाषा दिखावे को नहीं लगती, हृदय के उद्गार लगते हैं। हमारी जब-जब बात हुई, हमने जो पर्चा की. वह प्रान्तरिक मोर साधना से सम्बन्धित ही रही है। हां, कुछ समाज से सम्बन्धित होने से सामाजिक चर्चा भी हुई. पर अधिकार साधना से सम्बन्धित होती रही है / इसलिए हम उन्हें 'परम सापक' मानते पाये हैं और कोई अब तक ऐसा प्रसंग उपस्थित नही हा कि हमें अपने मत को बदलना पड़ा हो। हमे उनमे कई गुणों के दर्शन हुए। ऐमो सगठन-चातुरो, गुणग्राहकता, जिज्ञासावृत्ति, परिश्रमशीलता, अध्यवसाय व शान्ति बहुत कम लोगो में पाई। हमने प्रत्यक्ष में उन्हें बारह बारह, चौदह-बौदह भण्टे परिश्रम करते देखा है। कई बार हमने उनके भक्तो से कहा कि इस प्रकार वे उन पर मत्याचार न करें। वे सबेरे चार बजे उठ कर रात को ग्यारह बजे तक बरावर काम करते हैं, लोगो से चर्चा या वार्ता होती रहती है। हमने देखा, न तो दिन
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________________ प्राचार्यश्री तुलसी को वे आराम करते और न. प्राने साघुपों को करने देते हैं / ध्यान, चिन्तन मध्ययन उपास्याने, पचनही हो रहा है। किरन साघुषों की चर्या ऐमी होती है जिम वायवासी दीपक रहा है। सभी धार्मिक क्रियाएं चलती रहती हैं। इतने परिपारिनी सन्तुलन न खोना कोई प्रासान बात नहीं है। कोई उनके साथ दो-चार रोज रहकर देखें तभी पता चल सकेगा कि दे कितने परिश्रमी हैं और यह विना साधना के सम्भव नहीं है। उन्होंने अपने साधुपों तथा साध्वियों को पठन-पाठन, मध्ययन तथा लेखन में निपुण बनाने में काफी परिश्रम और प्रयत्न किये। उनके साधु केवल प्रपने सम्प्रदाय या धर्म ग्रन्थो या तत्त्वो से हो परिचित नहीं, पर सभी धर्मों मोर वादो से परिचित हैं। उन्होंने कई अच्छे व्याख्याता, लेखक, कवि, कलाकार तथा विद्वानो का निर्माण किया है। केवल साधुनों को ही नहीं, श्रावक तथा श्राविकानों को भी प्रेरणा देकर मागे बढ़ाया है। भाचार्य का कार्य राजस्यान पोर राजस्थान में भी चली जैसा प्रदेश, ऐसा समझा जाता है। जहां पुराने रीति-रिवाज और रूडियो का ही प्राबल्य है। उस राजस्थान म पर्दा तथा सामाजिक रीति-रिवाजो को बदलने की प्रेरणा देना सामान्य बात नहीं है, पर अत्यन्त कठिन कार्य है। उन्होने पदो प्रथा तथा सामाजिक कुरीतियो के प्रति समाज को सजग कर नया मोड दिया है। जैसे प्रगतिशील युवकों को लगता है कि वही पुरानी दवाई नई बोतल में भरकर दे रहे है. उसा तरह परम्परावादियो को लगता है कि साधनों का यह क्षेत्र नहीं, यह ता था। का-गृहस्थियों का काम है। उनका क्षेत्र तो धार्मिक है। वे इस झझट में क्यों पड़ते हैं। पर प्रगतिशील तथा परम्परावादियो के सिवा एक वग एवं लोगों का भी है जो प्राचीन संस्कृति में विश्वास या निष्ठा रखते हुए भी पा बात जहां से भी प्राप्त हो, लेना या ग्रहण करना श्रेयस्कर मानता है। उद ऐमा लगता है कि तुलमीजी भाचार्य हैं और प्राचार्य का कार्य है, धर्म का / समयोपयोगी व्याख्या करने का, सो वे कर रहे हैं। उन्होंने केवल नियों के लिए ही किया है, सो बात नहीं है। वे राष्ट्राप हो नही, मपितु मानव-समाज पो दष्टि से ही कार्य कर रहे हैं।
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________________ परम साधक तुलसीजी अणुव्रत-प्रान्दोलन उमी का परिणाम है 1 अणुव्रत-प्रान्दोलन मानव-समाज जिन जीवन-मूल्यों को भुला रहा था, उसे स्थापित करता है। मानव का प्रारम्भ से मुख प्राप्ति का प्रयत्न रहा है। ऋषि-मुनि सत साधक और मार्ग-द्रष्टा तीर्थकर यह बताते पाये हैं कि मनप्य सदगुणों को अपनाने से ही सुखी हो सकता है। सुख के मोतिक या बाह्य साधनो से वह सुखी होने का प्रयत्न करता तो है, लेकिन वे उमे सुसी नही बना सकते / सुखी बना जा सकता है, सदगुणों को अपनाने से। अणुव्रत उसे सच्ची दृष्टि देता है। केवल किसी बात की जानकारी होने मात्र से काम नहीं चलता, पर जो ठीक बात हो, उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न हो. विचारों को प्राचार की जोड मिले, तभी उसका उचित फल प्राप्त होता है। प्रणुव्रत केवल जीवन की सही दिशा नहीं बताता, पर सही दिशा में प्रयाण करने का संकल्प करवाता है और प्रयत्नपूर्वक प्रयाण करवाता शुभ की पोर प्रयाण भारत में सदा से जीवन-ध्येय बहुत उच्च रहा है, पर ध्येय उच्च रहने पर यदि उसका प्राचार सम्भव न रहे तो वह ध्येय जीवनोपयोगी न रह कर केवल बन्दनीय रह जाता है। पर अणवत केवन उच्च ध्येय, जिमका पालन न हो सके. ऐसा करने को नहीं कहता। पर वह कहता है, उसको जितनी पात्रता हो, मो जितना ग्रहण कर सके, उतना करे / प्रारम्भ भले ही अणु से हो, पर जो निश्चिय किया जाये, उसके पालन में दृढना होनी चाहिए। इस दृष्टि से अणुव्रत दशम की घोर प्रयागु कर दृढतापूर्वक उठाया हया पहला कदम है। ___ मनोवैज्ञानिक जानते हैं कि साल्प पूरा करने पर प्रात्म-विश्वास बढ़ता है पौर विकास की गति में तेजी आती है। इसलिए प्रयुक्त भले ही छोटा दिखाई पड़े, लेकिन जीवन-साधना के मार्ग मे महत्वपूर्ण कदम है। इस दृष्टि से प्राचार्य थी तुमीजी नै भरणात को नये रूप मे समाज के सन्मुख रस कर उसके प्रचार में अपनी तथा प्रपरे शिथ्य-ममुदाय और अनुयायियों की शक्ति लगाई। आज के जीवन के राही मूल्य भुलाये जाने वाले जमाने में प्रत्यन्त महत्वपूर्ण बात है / पदि इस मान्दोलन पर वे सारी शक्ति केन्द्रित कर इसे सफल कर सके तो केवल धर्म या सम्प्रदाय वा ही नहीं, मपितु मानव-जाति का बहुत बड़ा
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________________ 142 भाचार्यश्री तुलसी फस्याण कर सकते हैं। किन्तु हमने देखा है कि मान्दोलन को जन्म देने वाले या शुरू करने वाले विभिन्न प्रवृत्तियों में शक्ति को बांट देते हैं, तब वह कार्य चलताहमा दिखाई देने पर भी प्रागरहित, परम्परा से चलने वाली रूढ़ियों की तरह ना बन जाता है / भारत का महान अभियान यदि प्रयत-मान्दोलन को सजीव तथा सफल बनाने के उद्देश्य से प्राचार्यश्री प्रपना सारा ध्यान उस पर केन्द्रित कर पूरी शक्ति से इस कार्य को करेंगे तो वह भारत का महान मरियान होगा, जो मसान्त संसार को शान्त फरने का महान् सामथ्र्य रखता है। हमारा तुलसीजी की मति में सम्पूर्ण विश्वास है। वे महान अभियान को गतिशील बनाने का प्रयास करें, जिससे प्रशान्त मानव शान्ति को और प्रस्थान कर सके। हम भगवान से प्रधना करते हैं कि प्राचार्य तुलसीजी को दीर्घायु तथा स्वास्थ्य प्रदान वर, ऐसी शक्ति दे, जिमसे उनके द्वारा अपने विकास के साथसाथ
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