Book Title: Aacharya Shree Tulsi
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Atmaram and Sons

View full book text
Previous | Next

Page 142
________________ पाराग्री तुला किसी में विमान है। भामायंपी के सामने बाराव में नराचा ध्येय है, पर मानता होगा कुम मचाई उनकार्य की उपयोगिता को सीमित करती है। वे एक मम्मदा विपके है; अनः अन्य सम्प्रदाय को पवमा है कि माने कि वे उन उठन निस्ट नहीं है। फिर व प्राचार्य के पद पर है. जो मामान्य जनों के बराबर मही, कि ऊंचाई पर है। इसके प्रतिरिवन उनके सम्प्रदाय की परमराएं भी है। यदि उनके विकासशील व्यक्तिव ने बहन मो अनुपयोगी परमगमों को छोड़ देने का साहम दिखाया है । तथापि भाज मी भनेक ऐसी चीजें है वो वन पर धन साती है। सहिष्णुता का प्रादर्श जो हो. इन कठिनाइयों के होते हुए भी उनकी जीवन-यात्रा बराबर भग्ने चरम-लक्ष्य की मिद्धि को पोर ही रही है। उनमें सबसे बड़ा गुण यह है कि वे बहुत ही सहिष्ण है। जिस तरह वे अपनी बात बडो शान्ति से कहते हैं. नमो तरह वे दूसरे की बात भी उतनी ही शान्ति से सुनते हैं। अपने से मतभेद रखने वाले अथवा विरोधी व्यक्ति से भी बात करने में दे कभी उद्विग्न नहीं होते। मैने स्वय कई बार उनके सम्प्रदाय की कुछ प्रवृत्तियों की, जिनमें उनका सपना भी बड़ा हाय रहता है, उनके सामने मालोचना की है। लेकिन उन्होने हमेशा बढी मात्मीयता से समझाने की कोशिश की है। एक प्रसंग यहाँ मुझे याद माता है कि एक जैन विद्वान उनके बहन ही पालोचक थे। हम लोग बम्बई में मिले । संयोग से प्राचार्यश्री भी उन दिनों वहीं थे। मैंने उन सज्जन से कहा कि प्रापको जो शंकाएं हैं और जिन बातो से प्रापका मतभेद है, उनकी चर्चा पाप स्वयं माचार्यश्री से क्यों न कर लें? वे तैयार हो गये। हम लोग गये। काफी देर तक वातवीत होती रही। लौटते में उन सज्जन ने मुझ से कहा---"यापालजी, तुलसी महाराज की एक बात की मुझ पर बड़ी मच्छो छाप पड़ी है।" मैंने पूछा- किस बात की ?" बोले, 'देखिये मैं बगर अपने मतभेद की बात उनसे बहता रहा, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं पाई । एक पद भी उन्होंने जोर से नहीं रहा । दूसरे के विरोध को इवनी सहनशीलता से सुनना मोर सहना मासान पास नहीं है।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163