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रखते हैं। कारण कि भोजन के समय पर जाति पूछना उचित नहीं है । अतः महान पुरुष प्राचार्योंने इस रूप उनके चिन्ह कायम कर दिये हैं। जिससे बिना कहे ही उनकी पहचान हो जावे, अविनय का कारण नहीं बने । इनमें वर्ण क्ष ल्लक को चौके में बैठाकर और अवर्ण क्ष ल्लक को योग्यता के साथ ऐसे स्थान पर बैठावें जो चौके से बाहर हो पर अपमान जनक नहीं हो। यह क्ष ल्लक निश्चल बैठकर अपने हाथ रूपी पात्र में या अपने वर्तन में अपने आप भोजन करते हैं ।
क्ष लक भी उद्दिष्ट (अपने लिये बनाये हुए) प्राहारके त्यागी हैं) और आरम्भ परिगृह के त्यागी हैं । कषायोंकी पूरण मन्दता न होने से लँगोटी तथा खण्ड वस्त्र धारण किये हुये हैं। इन्हें भी आहार विनय युक्त होकर भक्ति भाव से देवे। यह उत्तम श्रावक है यह कभी भी बिना प्रादर विनय युक्त बुलाये अपने आप कभी भी किसी कार्य के लिये श्रावक के घर नहीं जाते हैं । भोजन की बेला के समय ही मौन धारण करके श्रावकों के घरों की तरफ घूमते हैं प्रादर विनय युक्त वचन सुनकर ही श्रावकके पीछे२ उसके घर जाते हैं । श्रावक कहता है इच्छामिर विराजिये शुद्ध आहार है ग्रहण कीजिये । यह भी रस त्यागकर भोजन करते है और भोजनोपरान्त हो मौन खोलते हैं ।
ऐलक क्षुल्लक के समान ही सर्व क्रियाओं का करने वाले दूसरा भेद ऐलक का है । परंतु इनमें यह विशेषता है कि यह अपने शिर व दाढ़ी मूछोंके वालों का लोच करते है । सिर्फ एक लगोटी के पराधीन है । मुनियों के समान मोर की पिच्छी आदि संयमोपकरण रखते है । और इनकी आर्य संज्ञा हे। ऐलकब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य इन तीनों वर्गों में स ही होते है।
ऐलक भोजन क्रिया ऐलक बैठकर दातार द्वारा दिये हुए भोजन को भले प्रकार
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