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________________ नहीं करना चाहिये । जब भोजन कर चुके और ग्रास हस्त में न ले तब जल का ग्रास देवें । अन्त में उनका हाथ-मुंह आदि शरीर धो देवे और पोंछ कर साफ कर देवे । और विनय पूर्वक उच्च प्रासन पर बैठने का व धर्म उपदेश देने का आग्रह करें। मुनि के कमण्डलु को साफ करके प्राशुख जल भर देवे । यह बात ध्यान में रहे कि मुनिराज या उत्कृष्ट प्रावक के पधारने व भोजन कर लेने के समय तक घर में दलना, पीसना रसोई बनाना आदि कोई भी प्रारम्भ सम्बन्धी कार्य तथा अन्तराय होने सम्बन्धी कार्य न होने पावे । यदि कमण्डलु पीछी या शास्त्रकी आवश्यकता दीखे तो बहुत आदर एवं विनय पूर्वक देवें । आर्यका भी उत्तम पात्र है। वे बैठकर मुनि की भांति कर पात्र में (अंजलि बाँधकर) ही आहार करती हैं । सो उनके योग्य भोजनालय में बैठने को पाटला तथा सामने एक चौकी जिस पर भोजन सामिग्री रख मुनिकी ही भांति आदर-भक्ति पूर्वक आहार दान करे। पीछी, कमण्डलु, सफेद साड़ी, शास्त्र की आवश्यकता हो तो विनय पूर्वक देवें। मध्यम पात्र ऐलक बैठ कर-पात्र में और क्षुल्लक पात्र में लेकर भोजन करते हैं ऐलक भी आर्यकाओं की भांति करपात्रमें (अंजुलि बांधकर) प्रहार करते हैं । इन्हें भी भक्ति सहित देवें । क्षुल्लक पात्र में आहार करते हैं । क्षुल्लक दो प्रकार के होते हैं । एक वर्ण क्षु० दूसरे अवर्ण (स्पर्श शूद्र) वर्ण क्षुल्लक वह होते है । जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य यह पीतल का पात्र (कमण्डलु) रखते हैं। और दूसरे प्रवर्ण (स्पर्श शूद्र) क्ष ल्लक लोहे का पात्र(कमण्डलु) रखते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034500
Book TitleDigambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJiyalal Jain
PublisherJiyalal Jain
Publication Year1965
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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