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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
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सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
सम्यग्दर्शन के लिये जीव की योग्यता के सन्दर्भ में पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोकश्लोक ७२४ : अन्वयार्थ :- 'आठों मूल गुण स्वभाव से अथवा कुल परम्परा से गृहस्थों को प्राप्त होते हैं। इन मूल गुणों के बिना जीवों को सभी प्रकार के व्रत तथा सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकते।' अर्थात् मूल गुणों को जीव की सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता रूप कहा है।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक ६६ के अनुसार 'गणधरों का कहना है कि मद्य त्याग, मांस त्याग और मधु त्याग के साथ पाँच अणुव्रतों का पालन गृहस्थों के आठ मूल गुण हैं।'
श्लोक ७४० : अन्वयार्थ :- 'गृहस्थों को अपनी शक्ति अनुसार प्रतिमा लेकर अथवा बिना प्रतिमा लिये व्रत धारण करके दोनों प्रकार का संयम भी पालन करना चाहिये।' अर्थात् सभी को मात्र आत्म लक्ष्य से अर्थात् आत्म प्राप्ति के लिये संयम पालन करना चाहिये।
यही बात परमात्मप्रकाश - मोक्षाधिकार गाथा ६४ में इस प्रकार बतलायी है कि 'पंच
परमेष्ठी को वन्दन, अपने अशुभ कर्मों की निन्दा और अपराधों का प्रायश्चित्तादि (प्रतिक्रमण ) विधि से निवृत्ति ये सभी पुण्य का कारण हैं, मोक्ष का कारण नहीं ; इसलिये पहली अवस्था में पाप को दूर करने के लिये ज्ञानी पुरुष यह सब करते हैं, कराते हैं और करनेवाले को अच्छा मानते हैं। फिर भी निर्विकल्प शुद्धोपयोग अवस्था में ज्ञानी जीव इन तीनों में से एक भी न करे, न कराये और न करनेवाले को अच्छा माने। (क्योंकि निर्विकल्प शुद्धोपयोग अवस्था में ज्ञानी जीव को कोई विकल्प ही नहीं होते ) ।' अर्थात् भूमिकानुसार उपदेश होता है, एकान्त से नहीं।
पहली अवस्था में अर्थात् सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्या दृष्टि जीव को पाप से मुक्त होने का और समत्व भाव प्राप्त करने का निम्न प्रकार से प्रयोगात्मक अभ्यास करना चाहिये। मात्र वाचा ज्ञान से अपना कल्याण होना बहुत कठिन है। इस कारण से हम आगे प्रयोगात्मक साधना बतलाते हैं, जो सभी के लिये योग्यता बनाने को और योग्यता बनाये रखने को कार्यकारी है। तदुपरान्त कुछ प्रयोगात्मक साधनाएँ सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के बाद भी अपनी भूमिका अनुसार स्वयंभू होती हैं।
सबसे पहले विश्व के सभी जीवों के प्रति हमको निम्नलिखित चार भाव ही करने हैं अर्थात् उनको इन चार भावों में ही वर्गीकृत करना है । अन्यथा किये हुए भाव हमारे लिये बन्धन रूप बन सकते हैं।