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सम्यग्दर्शन की विधि
सम्यग्दृष्टि जीव का निर्विचिकित्सा गुण सम्यग्दृष्टि जीव, मात्र शुद्धात्मा में ही मैंपन' (एकत्व) करने पर भी स्वयं को दूसरे संसारी जीव जैसा ही अर्थात् कर्मों से मलिन भी अनुभव करता है। इसीलिये वह अपने को अन्य संसारी जीवों से ऊँचा मानकर उनके प्रति घृणा इत्यादि के भाव नहीं करता। यही उसका निर्विचिकित्सा गुण है। वह अन्य सर्व संसारी जीवों को भी अपने जैसा ही अर्थात् स्वरूप से सिद्ध समान ही समझता है।
पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोक
श्लोक ५८४ : अन्वयार्थ :- 'जिस प्रकार जल में कुछ गन्दगी-मलिनता रहती है। ठीक उसी प्रकार जब तक जीव में अशुचि रूप ऐसे कर्म हैं, तब तक मैं (अर्थात् सम्यग्दृष्टि = ज्ञानी)
और वह सर्व संसारी जीव सामान्य रूप से (अर्थात् समान रीति से) निश्चयपूर्वक कर्मों से मलिन है (ऐसा सम्यग्दृष्टि का निर्विचिकित्सा गुण)।' अर्थात् सम्यग्दृष्टि = ज्ञानी जीव को किसी भी जीव के प्रति तुच्छ भाव नहीं होता परन्तु सर्व जीवों के प्रति उसे समभाव = साम्यभाव होता है। वही सम्यग्दृष्टि जीव का निर्विचिकित्सा गुण है।
इसलिये किसी भी कहे जानेवाले धार्मीक व्यक्ति को अपने आपको अन्य जीवों से ऊँचा मानकर अन्य जीवों के साथ तुच्छतापूर्ण व्यवहार करना ठीक नहीं है।