SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन की विधि १. मैत्री : - नि:स्वार्थ परम कल्याणमय मैत्री। लोक के सर्व जीवों के प्रति परम कल्याणमय मैत्री का भाव सँजोना है। अर्थात् सभी जीवों का परम कल्याण चाहना है। इससे हमारे मन में किसी के भी प्रति दुश्मनी नहीं रहेगी और न ही किसी के प्रति डाह या ईर्ष्या रहेगी। जब हमारे दिल में किसी के प्रति दुश्मनी या ईर्ष्या होती है, तब जिनके प्रति ऐसा भाव किया है उनको, उस भाव से फ़ायदा या नुक़सान नहीं होता परन्तु हमारा बहुत बड़ा नुक़सान होता है। (१) हमारे दिल में उनको याद करने से चुभन होती है। (२) हमारे शरीर के ऊपर उसका बुरा असर होता है। (३) हमारी प्रसन्नता भंग होती है (४) अनन्त कर्मों का बन्ध होता है। 94 इसके विपरीत, जब हम सभी जीवों के प्रति परम मैत्री का भाव भाते हैं, तब हमारा मन प्रसन्न रहता है और दुश्मनी या ईर्ष्या न होने के कारण पाप बन्ध से भी बच जाते हैं। जिस जीव को मत-पन्थ-सम्प्रदाय का पक्ष, आग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह होगा उस जीव के लिये सब के साथ मैत्री करना असम्भव ही होगा क्योंकि उस जीव को अपना-परायापन और पसन्द-नापसन्दगी के तीव्र भाव होने से वह जीव सभी जीवों को अपना मित्र मान ही नहीं पायेगा। वह जीव अपने सम्प्रदायवालों से तो बहुत प्रेम करेगा मगर अन्यों से उतना ही घृणा या तिरस्कार के भाव का सेवन करेगा। ऐसे भाव अध्यात्म के घातक होने से ही ज्ञानियों ने मत-पन्थ-सम्प्रदाय के पक्ष, आग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह का सेवन करने के लिये मना किया है। फिर भी अगर कोई जीव एक सम्प्रदाय विशेष का आग्रह रखकर, उसी सम्प्रदाय विशेष में सम्यग्दर्शन है ऐसा मानकर अध्यात्म मार्ग में आगे बढ़ना चाहता है तो यह उस जीव की बहुत बड़ी ग़लती होगी और उसे अध्यात्म मार्ग तो दूर संसार में भी शान्ति और प्रसन्नता मिलना - टिकना कठिन हो जायेगा । २. प्रमोद गुण/गुणी के प्रति अहो भाव | पंच परमेष्ठी के प्रति, सभी उपकारी तथा गुणी जीवों के प्रति, गुणों के प्रति प्रमोद भाव सँजोना । गुणों के प्रति और गुणी के प्रति प्रमोद भाव भाने से हम में उन गुणों का खिलना आसान हो जाता है। प्रकृति की व्यवस्था ऐसी है कि हमें गुणों के प्रति आदर भाव होने से हमारे भीतर वे गुण प्रगट होते हैं और हमको उन जीवों के प्रति कभी भी ईर्ष्या का भाव नहीं आता। सभी जीवों में कोई न कोई गुण अवश्य होते हैं, हमारी दृष्टि हमें उन गुणों के प्रति रखनी है। न कि उनके दुर्गुणों के प्रति। जब हम किसी को याद करें, तब हमें उनके गुण याद आने चाहिये न कि दुर्गुण । इससे हमारे मन में किसी भी जीव के प्रति तुच्छपने का भाव नहीं होगा और हम पापबन्धन से भी बच जायेंगे। हमारा मन प्रसन्न रहेगा। परन्तु जिस जीव को मत-पन्थ-सम्प्रदाय का पक्ष, आग्रह, हठाग्रह या दुराग्रह होगा, उस जीव के लिये सबके
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy