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________________ 78 सम्यग्दर्शन की विधि १७ नव तत्त्व की सच्ची श्रद्धा का स्वरूप पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोक श्लोक १३३-१३४-१३५ : अन्वयार्थ :-'वास्तव में यहाँ शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव शुद्ध भी है (अर्थात् एकान्त शुद्ध नहीं अथवा तो उसका एक भाग शुद्ध और एक अशुद्ध ऐसा भी नहीं, परन्तु अपेक्षा से जीव शुद्ध भी है) तथा कथंचित् बद्धाबद्ध नय अर्थात् व्यवहार नय से जीव अशुद्ध है, यह भी असिद्ध नहीं (अर्थात् व्यवहार नय से जीव अशुद्ध है)। सम्पूर्ण शुद्ध नय, एक, अभेद और निर्विकल्प है। व्यवहार नय अनेक, भेद रूप और सविकल्प है। वह शुद्ध नय का विषय चेतनात्मक शुद्ध जीव वाच्य है और व्यवहार नय के विषय रूप वह जीवादि नौ पदार्थ कहने में आये हैं।' हम प्रारम्भ में ही जो समझे हैं कि वस्तु एक अभेद है और उसे देखने की दृष्टि अनुसार वही वस्तु शुद्ध अथवा अशुद्ध, अभेद अथवा भेदरूप ज्ञात होती है, वही बात यहाँ सिद्ध की गयी है। अब समयसार गाथा १३ के जो भाव हैं कि 'नौ तत्त्व में छिपी हुई आत्म(-चैतन्य) ज्योति' वही भाव अगले श्लोक में व्यक्त कीया गया हैं। श्लोक १५५ : अन्वयार्थ :- ‘अर्थात् एक जीव ही जीव-अजीवादि नौ पदार्थ रूप होकर विराजमान है और इन नौ पदार्थों की अवस्थाओं में भी यदि विशेष अवस्थाओं की विवक्षा न की जाये तो (अर्थात विशेष रूप विभाव भावों को यदि गौण किया जाये तो) केवल शुद्ध जीव ही है (केवल परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा ही है अर्थात् वह केवल कारण शुद्ध पर्याय रूप दृष्टि का विषय ही है। इस से विशेष अवस्थायें - पर्यायें परम पारिणामिक भाव की ही बनी हैं, यही बात सिद्ध होती है)।' श्लोक १६०-१६३ : अन्वयार्थ :- ‘सौपरक्ती से उपाधि सहित स्वर्ण त्याज्य नहीं क्योंकि उसका त्याग करने पर सर्व शून्यतादिदोषों का प्रसंग आता है (उसी प्रकार यदि अशुद्ध रूप परिणमित जीव अर्थात् अशुद्ध पर्याय का त्याग किया जाये तो वहाँ पूर्ण द्रव्य का ही त्याग हो जाने से, सर्वथा शून्यतादि का दोष आयेगा अर्थात् उस अशुद्ध पर्याय में ही परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा छिपा हुआ होने से यदि उस अशुद्ध पर्याय का त्याग करेंगे तो पूर्ण द्रव्य का ही लोप हो जायेगा। इसलिये उस अशुद्ध पर्याय का त्याग न करके, मात्र अशुद्धि को ही गौण करना और ऐसा करते ही परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा जो कि दृष्टि का विषय है वह प्रकट होगा।) (दूसरा)
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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