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________________ स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय 17 स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय हमने जो पूर्व में बतलाया कि स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय, ऐसी दो पर्याय अपेक्षा से कही जाती हैं अर्थात् दोनों एक ही पर्याय (वस्तु, द्रव्य) का अनुक्रम से सामान्य रूप और विशेष रूप है, परन्तु स्वभाविक शक्ति और वैभाविक शक्ति एक ही काल में नहीं होतीं, क्योंकि ऐसा मानने पर, दोनों पर्यायें विशेष रूप हो जाने से, एक द्रव्य की एक काल में दो पर्याय का प्रसंग आयेगा और कार्य-कारण भाव के नाश का प्रसंग आयेगा, जिससे बन्ध-मोक्ष के अभाव का प्रसंग आयेगा, वही अब आगे बतलाते हैं। पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के श्लोक :श्लोक ९२ : अन्वयार्थ :- ‘यह स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्ति का एक काल में सद्भाव मानने पर न्याय से भी बहुत बड़ा दोष आयेगा, क्योंकि युगपत् स्वाभाविक और वैभाविक भाव को मानने से कार्य-कारण भाव का नाश तथा बन्ध-मोक्ष के नाश होने का प्रसंग आता है।' भावार्थ :- ‘वैभाविकी शक्ति की विभाव और स्वभाव रूप दो अवस्थायें मानने से बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था सिद्ध हो जाती है तथा वह विभाव और स्वभाव अवस्थायें क्रमवर्ती हैं, इसलिये बन्ध और मोक्ष के कार्यकारण भाव अलग अलग हैं - ऐसा भी सिद्ध होता है। परन्तु दोनों शक्तियों को युगपत् मानने से न तो कार्य-कारण भाव बन सकेगा तथा न ही बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था ही बन सकेगी।' हम जो पूर्व में देख चुके हैं, वही यहाँ बतलाया है कि यदि छद्मस्थ जीव में स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय ऐसी दो पर्याय मानने में आयें तो जो कार्य-कारण रूप व्यवस्था है वह सिद्ध ही नहीं होगी। अर्थात् जिस आत्मा में प्रत्येक प्रदेश में कर्म हैं और उनके निमित्त से वह अशुद्धता रूप परिणमता है, ऐसा कार्य-कारण भाव और उन कर्मों का अभाव होते ही वह जीव शुद्ध रूप परिणमता है, वैसा बन्ध और मोक्ष भी सिद्ध नहीं होगा। इसलिये छद्मस्थ जीव में विशेष रूप विभाव परिणमन और सामान्य रूप स्वभाव परिणमन ही मानने योग्य है जो कि सामान्य रूप स्वभाव परिणमन के बल से वह जीव कर्मों के निमित्त से होते भाव में 'मैंपन से छूटकर अर्थात् उनमें 'मैंपन' नहीं करके मात्र परम पारिणामिक भाव में ही 'मैंपन' (एकत्व) करता है और उन विभाव रूप भावों को क्षणिक और हेय मानकर कर्मों के नाश के लिये शक्ति प्राप्त करता है। आगे वैसा ही पुरुषार्थ बारम्बार करके सभी कर्मों का नाश करके, वैसे भावों से सर्वथा, सर्व काल के लिये छूटता है, मुक्त होता है। यही मोक्ष है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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