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नव तत्त्व की सच्ची श्रद्धा का स्वरूप
ऐसा कथन भी परीक्षा करने से सिद्ध नहीं हो सकता कि जिस समय सुवर्ण, पर्याय से शुद्ध है उस समय ही वह शुद्ध है ( अर्थात् जो अशुद्धता रूप परिणमित संसारी जीवों को एकान्त से अशुद्ध ही मानते हैं और शुद्धोपयोग मात्र तेरहवें गुणस्थान से ही मानते हैं, उन्हें शुद्ध नय की प्राप्ति होनेवाली ही नहीं है अर्थात् ऐसे जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ही नहीं होती और दूसरा जो पर्याय को अशुद्ध मानकर दृष्टि के विषय में शामिल नहीं करते और एकान्त से शुद्ध-ध्रुव खोजते हैं, उन्हें भी उसकी प्राप्ति होनेवाली नहीं है।) क्योंकि (एकान्त) शुद्ध द्रव्य की प्राप्ति न होने से उसकी प्राप्ति के हेतु का भी अदर्शन सिद्ध होता है (अर्थात् जो खान में से निकले हुए अशुद्ध स्वर्ण का अस्वीकार करे तो उसमें छिपे हुए शुद्ध स्वर्ण की प्राप्ति भी हो सकनेवाली नहीं है। इसी प्रकार अशुद्ध जीव में = पर्याय में ही शुद्धात्मा छिपा हुआ है, ऐसा जानना । )
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( अब शुद्धात्मा की प्राप्ति की विधि बताते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन की रीति बताते हैं ) जिस समय उस अशुद्ध स्वर्ण के रूपों में केवल शुद्ध स्वर्ण दृष्टिगोचर किया जाता है (अर्थात् अशुद्ध पर्याय में द्रव्य दृष्टि से केवल शुद्धात्मा = परम पारिणामिक भाव दृष्टिगोचर करने में आता है) उस समय पर द्रव्य की उपाधि दृष्टिगोचर नहीं होती (अर्थात् पर्याय रूप परिणमित द्रव्य की अशुद्धि गौण होते ही पूर्ण साक्षात् शुद्धात्मा ही ज्ञात होता है) परन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण से अपना अभीष्ट वह केवल शुद्ध स्वर्ण ही दृष्टिगोचर होता है (इसीलिये दूसरे को जो द्रव्य प्रमाण का भासित होता है, उसी द्रव्य में हमें परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा के दर्शन होते हैं; इसलिये कहा जा सकता है कि उस में दूसरे का दोष मात्र यह है कि जब उसे = द्रव्य को द्रव्यार्थिक नय से ग्रहण करना है तब भी वे उसे प्रमाण दृष्टि से ही ग्रहण करते हैं। क्योंकि उनकी धारणा में द्रव्य दो भाग वाला है कि जिसमें का एक भाग शुद्ध और दूसरा अशुद्ध है। दूसरे की ऐसी मान्यता की भूल होने से, हम जब पूर्ण द्रव्य की बात करते हैं तब उन्हें उसमें प्रमाण के द्रव्य के ही दर्शन होते हैं और जब हम उसी प्रमाण के द्रव्य को शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से ग्रहण करके उसे शुद्धात्मा = परम पारिणामिक भाव कहते हैं, तब वे उस में पर्याय से भिन्न, अपरिणामी
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कूटस्थ खोजते हैं, कि जिसका अस्तित्व ही नहीं है, जो कभी शुद्ध भाग रूप अर्थात् एकान्त शुद्ध रूप मिलनेवाला ही नहीं है) इसलिये सिद्ध होता है कि जैसे उस अशुद्ध स्वर्णमाला में अन्य धातुओं का संयोग होने पर भी वास्तव में पर संयोग रहित भिन्न रूप से शुद्ध स्वर्ण का अस्तित्व सिद्ध होता है, इसी प्रकार जीवादिक नौ पदार्थों में शुद्ध जीव का अस्तित्व सिद्ध है। '
अन्यथा नहीं, अर्थात् उन अशुद्ध पर्यायों के अतिरिक्त उस काल में जीवत्व अन्य कुछ भी नहीं, वह पूर्ण जीव ही उस रूप परिणमित है, इसलिये उस में ही शुद्धात्मा छिपा हुआ है। इस भाव को समझाते हुए दृष्टान्त अब बाद की गाथाओं में दिये हैं, वे संक्षेप में बताते हैं।