SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 सम्यग्दर्शन की विधि होता है, वह अशुद्धता कहलाती है।' अर्थात् पारिणामिकी क्रिया यानि पारिणामिकी भाव रूप (पर्याय रूप) जीव ही परिणमता है। भावार्थ :- ‘प्रत्येक द्रव्य में पारिणामिक भाव होता है। जीव और पुद्गल में उस में दो प्रकार की क्रियाएँ होती है - एक शुद्ध तथा दूसरी अशुद्ध। प्रत्येक द्रव्य, वह क्रिया का कर्ता स्वयं होने से वह क्रिया पारिणामिक भाव रूप है। जैसे जीव में क्रोध होता है, वह स्व अपेक्षा से पारिणामिक भाव (क्रिया) है। (औदयिक भाव वास्तव में तो पारिणामिक भाव का ही बना हुआ है)। (देखें, जयधवला भाग-१, पृष्ठ ३१९ तथा श्री षट्खण्डागम पुस्तक-५, पृष्ठ १९७२४२-२४३) और विकारी भावों में कर्म के उदय की अपेक्षा बतलानी हो तब उस पर्याय को औदयिकी भी कहा जाता है (यही बात पूर्व में हमने बतलायी है कि औदयिकी भाव रूप पर्याय वास्तव में पारिणामिक भाव की ही बनी हुई है कि जो उसका सामान्य भाव कहलाता है।) परन्तु इस कारण से कहीं ऐसा नहीं समझना कि जीव में पर का कुछ भी गुण आ जाता है। दूसरा जो भाव (विभाव भाव) जीव में से निकल जाने योग्य हो, वह अपना स्वरूप नहीं होने से निश्चय नय से वह अपना नहीं। उसे पर भाव, परगुणाकार इत्यादि नाम से पहचाना जाता है। इस अपेक्षा से जीव के विकार भाव को निश्चय नय से पुद्गल परिणाम कहने में आया है क्योंकि वह जीव का स्वभाव नहीं और पुद्गल के सम्बन्ध से होता है, इसलिये वह विकार भाव निश्चय बन्ध है। वह विकारी पारिणामिकी क्रिया होने पर अपने गुण से च्युत होना वह अशुद्धता है।' अर्थात् जो जीव का परम पारिणामिक भाव है अर्थात् जो जीव का सहज परिणमन है, वही पर लक्ष्य से अशुद्धता रूप परिणमकर निश्चय बन्ध रूप होता है। इसीलिये उस अशुद्धता को गौण करते ही परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा जो की सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है, वह प्रकट/उपस्थित ही होती है और इसी अपेक्षा से समयसार गाथा १३ में भी बताया है कि 'नौ तत्त्व में छिपी हुई आत्म ज्योति' अर्थात् उन नौ तत्त्व रूप जो जीव का परिणमन है (पर्याय है) उसमें से अशुद्धियों को गौण करते ही जो शेष रहता है, वही परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा है, वही कारणशुद्ध पर्याय है, वही सम्यग्दर्शन (दृष्टि) का विषय है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy