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________________ पर्याय परम पारिणामिक भाव की ही बनी हई है 75 - 'जो यह ज्ञान मात्र भाव मैं हँ, उसे ज्ञेयों का ज्ञान मात्र न जानना; (परन्तु) ज्ञेयों के आकार का होते ज्ञान के कल्लोल रूप से परिणमता उसे ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तु मात्र जानना।' अर्थात् ज्ञेय है वह ज्ञानमय है, ज्ञान है वह ज्ञातामय है और वह ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की एकरूपता से सिद्ध होता है कि पर्याय (ज्ञेय) ज्ञाता (परम पारिणामिक भाव) की बनी हुई है अर्थात् चार भाव (पर्याय = विभाव भाव) वह एक परम पारिणामिक भाव के ही बने हैं अर्थात् चारों भावों का (पर्याय का) सामान्य वह परम पारिणामिक भाव है। जैसे ज्ञेय में ज्ञाता हाज़िर है, वैसे प्रत्येक पर्याय में ज्ञाता = परम पारिणामिक भाव हाज़िर ही है। वह पर्याय उसकी ही (ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता) बनी हई है। चार भाव (पर्याय = विभाव भाव) को गौण करने पर ज्ञायक = परम पारिणामिक भाव प्राप्त होता है, जो कि दृष्टि का विषय है। इस प्रकार प्रत्येक पर्याय में पूर्ण द्रव्य विद्यमान है ही, मात्र उसकी दृष्टि करते आना चाहिये। इसलिये ही दृष्टि अनुसार ऐसा कहा जा सकता है कि जो द्रव्य है वही पर्याय है (वह पर्याय दृष्टि) अथवा जो पर्याय है, वही द्रव्य है (वह द्रव्य दृष्टि)। ज्ञान (आत्मा) सामान्य विशेषात्मक होता है। ज्ञान सामान्य भाव (परम पारिणामिक भाव) निर्विकल्प होता है। जबकि ज्ञान विशेष भाव (चार भाव रूप) सविकल्प होता है, जिससे ज्ञान सामान्य भाव (परम पारिणामिक भाव) में एकत्व भाव करते ही निर्विकल्प अनुभूति होती है। यही सम्यग्दर्शन की विधि (पद्धति) है। श्लोक ६६-६७ : अन्वयार्थ :- (वैभाविकी तथा स्वाभाविकी ये दोनों क्रियायें = पर्यायें जब पारिणामिक ही हैं तो उनमें कुछ अन्तर ही नहीं) इस प्रकार कहना ठीक नहीं है क्योंकि बद्ध और अबद्ध ज्ञान में अन्तर है, उसमें से मोहनीय कर्म से आवृत ज्ञान को (अर्थात् औदयिक रूप विशेष भाव को) बद्ध कहते हैं तथा मोहनीय कर्म से अनावृत ज्ञान को (अर्थात् सामान्य ज्ञान को, ज्ञायक रूप ज्ञान को, परम पारिणामिक भाव रूप ज्ञान को तथा कारण शुद्ध पर्याय रूप ज्ञान को) अबद्ध कहते हैं। जो ज्ञान मोहकर्म से आवृत्त अर्थात् जुड़ा हुआ है, वह जैसे इष्ट और अनिष्ट अर्थ के संयोग से अपने आप ही राग-द्वेषमय होता है, वैसे ही वह प्रत्येक पदार्थ को क्रम क्रम से विषय करनेवाला होता है अर्थात् उन सर्व पदार्थों को एक साथ विषय करनेवाला नहीं होता।' इसी विषय को श्लोक १३० में विशेष स्पष्ट किया है, इसलिये वह अब देखेंगे। श्लोक १३० : अन्वयार्थ :- ‘परगुण आकार रूप पारिणामिकी क्रिया बन्ध कहलाता है तथा उस क्रिया के होने से ही उन दोनों जीव और कर्मों का अपने-अपने गुणों से च्युत होना
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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