SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74 सम्यग्दर्शन की विधि memory, etc. = औदयिकादि सभी विशेष भाव। But I shall be aware of myself and restrain myself from being getting involved in sins, lust, anger, ego, deceit, cruelty, fear, possessiveness, etc. for saving myself from bondage, unlimited pain and sufferings. श्लोक ६३-६४ : अन्वयार्थ :- 'शंकाकार कहता है कि - जो अनादि सत् में वैभाविकी क्रिया (विभाव रूप औदयिकादि भाव) भी परिणमनशीलता से होती है। (अर्थात वे भाव भी पारिणामिक भाव ही होते हैं) तो नियम से उसमें स्वाभाविकी क्रिया से (अर्थात् परम पारिणामिक भाव से) विशेषता रखनेवाले कौन सा विशेष भेद रहेगा? तथा पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान आत्मा का स्वलक्षण है, इसलिये उस ज्ञान की इस ज्ञेय के आकार होने रूप क्रिया किस प्रकार वैभाविकी क्रिया हो सकती है?' यही बात समयसार गाथा ६ में भी कर्ता-कर्म का अनन्यपना बतलाकर समझायी है, वहाँ ऐसा समझना कि कर्म (ज्ञेयाकार = चार भाव = पर्याय = विशेष भाव), कर्ता (सामान्य भाव = परम पारिणामिक भाव = ज्ञायक भाव) के ही बने होने से कर्ता-कर्म का अनन्यपना बतलाया है और दूसरा समयसार गाथा ६ में जाननेवाला वह मैं अर्थात् आत्मा जब पर को जानता है, तब जो ज्ञेयाकार है, वह वास्तव में ज्ञानाकार ही है और उस ज्ञानाकार में भी जब आकार रूप विकल्प को गौण किया जाये तो वह ज्ञायक ही है अर्थात् वही ‘परम पारिणामिक भाव' है, ‘कारण शुद्ध पर्याय' है, यही बात यहाँ दृढ़ होती है। यही बात समयसार गाथा १३ में भी बतलायी है-उसमें दृष्टि का विषय 'नौ तत्त्व में (पर्याय में) छिपा हआ आत्म ज्योति रूप कहा है। अर्थात् अव्यक्त व्यक्त में ही छिपा हआ है अर्थात् व्यक्त अव्यक्त का ही बना हुआ है तथापि कहा ऐसा ही जाता है कि व्यक्त को अव्यक्त स्पर्शता ही नहीं। यही विशिष्टता है जैन शासन के नयचक्र की और इसी अपेक्षा से अव्यक्त के बोल समझना आवश्यक है, अन्यथा नहीं अर्थात् एकान्त से नहीं। क्योंकि एकान्त तो अनन्त परावर्तन का कारण होने में सक्षम है। इसलिये हम जब प्रश्न करते हैं कि यह पर्याय किसकी बनी हुई है? और उत्तर में हम बतलाते हैं कि ‘परम पारिणामिक भाव की' अर्थात् जो पर्याय है वह द्रव्य की ही (ध्रुव की ही, परम पारिणामिक भाव की ही) बनी हुई है कि जिसके विषय में हमने पूर्व में अनेक आधारों सहित समझाया ही है, यही बात यहाँ दृढ़ होती है। यही बात आचार्य अमृतचन्द्र कृत समयसार टीका के श्लोक २७१ में भी बतलायी है
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy