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________________ इन्द्रिय ज्ञान ज्ञान नहीं? 11 होता है अन्य किसी द्रव्य का नहीं, क्योंकि ज्ञान तो आत्मा का लक्षण है इसलिये ऐसा भी कहा जा सकता है कि इन्द्रिय ज्ञान स्व में जाने की सीढ़ी है क्योंकि इन्द्रिय भले पुद्गल रूप अजीव हो परन्तु उसके निमित्त से जो ज्ञान होता है, उस विशेष ज्ञान को अर्थात् उस ज्ञानाकार को गौण करते ही वहाँ सामान्य ज्ञान अर्थात् ज्ञायक उपस्थित ही रहता है कि जो दृष्टि का विषय है कि जिसमें मैंपन करने से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है, प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है, व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है। भावार्थ :- ....सारांश यह है कि स्वात्म रस में निमग्न होनेवाला भाव मन स्वयं ही अमूर्त होने से स्वानुभूति के समय में आत्मप्रत्यक्ष करनेवाला कहने में आया है। जैसे श्रेणी चढ़ते समय ज्ञान की जो निर्विकल्प अवस्था है, उस निर्विकल्प अवस्था में ध्यान की अवस्था सम्पन्न श्रुत ज्ञान अथवा उस श्रुत ज्ञान के पहले का मति ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थानवर्ती हैं, उनका मतिश्रुतज्ञानात्मक भाव मन भी स्वानुभूति के समय में विशेष दशा सम्पन्न होने से श्रेणी के जैसा तो नहीं, परन्तु उनकी भूमिका के योग्य निर्विकल्प तो होता है। इसलिये उस मतिश्रुतज्ञानात्मक भाव मन को स्वानुभूति के समय में प्रत्यक्ष मानने में आता है, वहाँ यही कारण है कि मति-श्रुत ज्ञान के बिना केवल ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती परन्तु अवधि-मन:पर्यय ज्ञान के बिना हो सकती है।' स्वात्म रस में निमग्न होनेवाला भाव मन अर्थात् विकल्पयुक्त आत्मा में से (=पर्याय में से) विकल्प को (=विशेष को) गौण करते ही अर्थात विकल्प को, निर्विकल्प में निमग्न करने पर (=डुबाने पर) ही सामान्य रूप आत्मा अर्थात् परमपारिणामिक भाव की अनुभूति होती है कि जिसे निर्विकल्प अनुभूति कहा जाता है, जो कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होती है कि जो अनुभव की विधि है अर्थात् वही सम्यग्दर्शन की पद्धति है। अब हम पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध के (पण्डित देवकीनन्दनजी कृत हिन्दी टीका) श्लोकों में से यही सब भाव दृढ़ करेंगे। श्लोक ४६१-६२ : अन्वयार्थ :- 'अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञान देश प्रत्यक्ष होता है, इसलिये वास्तव में वह अस्तिक्य, आत्मा के सुखादि की भाँति स्वसंवेदन प्रत्यक्ष किस प्रकार हो सकता है ? ठीक है, परन्तु प्रथम के मति और श्रुत ये दो ज्ञान, परपदार्थों को जानते समय परोक्ष हैं और दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम होने के कारण स्वानुभव काल में प्रत्यक्ष हैं।' शंकाकार, शंका करता है कि - इन्द्रिय और मन का निरोध तथा त्रस-स्थावर की रक्षा क्या है? उत्तर :
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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