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सम्यग्दर्शन की विधि
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इन्द्रिय ज्ञान ज्ञान नहीं ?
बहुत लोग ऐसा मानते हैं कि इन्द्रिय ज्ञान तो ज्ञान ही नहीं है, तो उसमें समझना यह है कि जो द्रव्य इन्द्रिय और नोइन्द्रिय रूप मन है, वह पुद्गल का बना हुआ होने से, उस अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है कि इन्द्रिय ज्ञान तो ज्ञान ही नहीं अथवा इन्द्रिय ज्ञान खण्ड-खण्ड ज्ञान रूप होने से उस अपेक्षा से भी ऐसा कहा जा सकता है कि इन्द्रिय ज्ञान तो ज्ञान (अखण्ड ज्ञान) ही नहीं। वास्तव में देखने पर वह पुद्गल रूप अजीव इन्द्रियाँ ज्ञान के निमित्त मात्र हैं परन्तु ज्ञान तो आत्मा का लक्षण होने से अन्य कोई भी द्रव्य में होता ही नहीं तो फिर प्रश्न होगा कि इन्द्रिय ज्ञान होता किस प्रकार है ?
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उसका उत्तर ऐसा है कि वास्तव में जो भावेन्द्रिय और भावनोइन्द्रिय रूप आत्मा के ज्ञान का (अर्थात् आत्मा का) क्षयोपशम रूप विशिष्ट परिणमन है, वही ज्ञान करता है और उस ज्ञान को इन्द्रिय की अपेक्षा से, आत्मा ने किये हुए ज्ञान को, इन्द्रिय ज्ञान और नोइन्द्रिय ज्ञान ऐसी संज्ञा प्राप्त होती है। वास्तव में ज्ञान तो आत्मा का लक्षण है, अन्य कोई द्रव्य ज्ञान करता ही नहीं; इसलिये समझना यह है कि मात्र वह शरीरस्थ आत्मा ही ज्ञान करता है कि जो बात परमात्मप्रकाश – त्रिविध आत्माधिकार गाथा ४५ में भी बतलायी है कि-'जो आत्माराम शुद्ध निश्चय से अद्वितीय ज्ञानमय है तो भी अनादि बन्ध के कारण व्यवहार नय से इन्द्रियमय शरीर को ग्रहण करके अपनी पाँच इन्द्रियों द्वारा रूपादि पाँचों ही विषयों को जानता है, अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान रूप परिणम कर इन्द्रियों से रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श को जानता है...' और इसी अपेक्षा से इन्द्रिय ज्ञान कहलाता है। इसलिये वास्तव में इन्द्रिय ज्ञान ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं। इसलिए इन्द्रिय ज्ञान ज्ञान ही है; यही बात पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध के श्लोकों में आगे दृढ़ करते हैं
श्लोक ७१७-१८ : अन्वयार्थ :'निश्चय कर के सूत्र से जो मति ज्ञान है वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है तथा मति ज्ञान पूर्वक श्रुत ज्ञान होता है, ऐसा जो कहा है, वह कथन असिद्ध नहीं। सारांश यह है कि निश्चय से भाव मन, ज्ञान विशिष्ट होता हुआ स्वयं ही अमूर्त है इसलिये उस भाव मन द्वारा होनेवाला यहाँ आत्म दर्शन अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष क्यों नहीं होगा?'
यहाँ समझना यह है कि इन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान, ज्ञान नियम से आत्मा का ही