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सम्यग्दर्शन की विधि
श्लोक ६४८ : अन्वयार्थ :- 'उस स्वानुभूति की महिमा इस प्रकार है कि-व्यवहार नय में भेद दर्शानेवाले विकल्प उठते हैं और वह निश्चय नय सर्व प्रकार के विकल्पों का निषेध करनेवाला होने से (नेति-नेति रूप होने से ) एक प्रकार से उसमें निषेधात्मक विकल्प होता है, तथा वास्तविक रूप से देखने में आवे तो स्वसमयस्थिति में (स्वानुभूति में) न (व्यवहार नय का विषयभूत) विकल्प है और न (निश्चय नय का विषयभूत) निषेध है, परन्तु केवल चेतना का स्वात्मानुभव है।'
कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि निषेध रहित का दृष्टि का विषय किस प्रकार होगा ? तो उन्हें हम बतलाते हैं कि दृष्टि के विषय में न भेद रूप विकल्प है (अर्थात् अभेद द्रव्य का ग्रहण है) और न तो निषेध रूप विकल्प है अर्थात् जिनका (अशुद्ध भावों का = विभाव भावों का) निषेध करना होता है, उन पर दृष्टि ही नहीं, इसलिये ही वे अत्यन्त गौण हो जाते हैं और दृष्टि, मात्र दृष्टि के विषय रूप शुद्धात्मा पर ही होती है जो कि निर्विकल्प ही होता है। वही सम्यग्दर्शन की विधि है। इसलिये कहा जा सकता है कि निषेध न करके, उनके ऊपर से दृष्टि ही हटा लेनी है। यह है विधि-सम्यग्दर्शन की । इसलिये जिसे निषेध का आग्रह हो, उसे वह छोड़ देना चाहिये क्योंकि निषेध, वह भी निश्चय नय का पक्ष है, जबकि सम्यग्दर्शन का विषय पक्षातीत है, नयातीत है इसलिये प्रत्येक प्रकार का पक्ष और आग्रह छोड़े बिना सम्यग्दर्शन होना ही शक्य नहीं है।
दूसरे समझना यह है कि वस्तु जैसी है वैसी समझनी पड़ेगी । अर्थात् आत्मा में रागादि होते हैं, तो वे किस अपेक्षा से और नियमसार तथा समयसार जैसे आध्यात्मिक शास्त्रों में जो ऐसा लिखा है कि वे रागादिक जीव के नहीं हैं तो वह भी किसी अपेक्षा से ही बतलाया है, एकान्त से नहीं; वह मात्र सम्यग्दर्शन के विषय (दृष्टि के विषय) पर दृष्टि कराने को अर्थात् सम्यग्दर्शन कराने को ही बतलाया है। कोई उसे एकान्त से लेकर स्वच्छन्दता रूप परिणमे तो वह उनकी महान भूल है। उसका फल अनन्त संसार है। यही बात आगे बतलाते हैं।
श्लोक ६६३ : अन्वयार्थ :- 'यहाँ केवल सामान्य रूप वस्तु (परम पारिणामिक भाव) निश्चय से निश्चय नय का कारण है तथा कर्म रूप कलंक से रहित ज्ञान स्वरूप आत्मा की (परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा की ) सिद्धि फल है।'
इसलिये समझना यह है कि ऐसे आध्यात्मिक शास्त्रों का किसी भी वस्तु को एकान्त से प्ररूपित करने का आशय जरा भी नहीं होता। इसलिये उसे एकान्त से वैसा नहीं लेना, परन्तु उसका आशय मात्र सम्यग्दर्शन का जो विषय है, उस आत्म भाव में (परम पारिणामिक भाव रूप