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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध के सम्यग्दर्शन का विषय दर्शाते श्लोक शुद्धात्मा में-कारण शुद्ध पर्याय में-कारण परमात्मा में) “मैंपन' (एकत्व) कराना और अन्य सर्व भावों में से 'मैंपन' का जो भाव है कि जो बन्धन के कारण हैं, वे दूर करना। जीव को उन बन्ध के कारणों में अथवा बन्ध के फल में 'मैंपन' करने से रोकना और परम पारिणामिक भाव रूप जीव में 'मैंपन' कराकर उसे सम्यग्दर्शनी बनाना, मोक्षमार्ग में प्रवेश दिलाना। - मात्र इसी अपेक्षा से इन शास्त्रों में रागादि भाव जीव के नहीं हैं ऐसा बतलाया है, उसे ऐसा एकान्त से नहीं समझना। यदि कोई उसे एकान्त से ऐसा समझे और प्ररूपित करे तो, उसे जैन सिद्धान्त के बाहर ही समझना चाहिये। अर्थात् मिथ्यात्वी ही समझना चाहिये। सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान कैसा होता है, वह बतलाते हैं - श्लोक ६७३ : अन्वयार्थ :- ‘एक साथ सामान्य-विशेष को विषय करनेवाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है क्योंकि ज्ञान दर्पण के समान है तथा ज्ञेय, प्रतिबिम्ब समान है।' भावार्थ :- ‘जैसे दर्पण और दर्पण में रहे हुए प्रतिबिम्ब का युगपत प्रतिभास होता है, इसी प्रकार सामान्य-विशेष को युगपत् विषय करनेवाला ज्ञान, सम्यग्ज्ञान कहलाता है, अन्य नहीं; (कोई कहे कि आत्मा पर को नहीं जानता ऐसी व्यवस्था होने से आत्मा पर को जानता है ऐसा कहना मिथ्यात्व समान है, तो यहाँ बतलाते हैं कि वह, ऐसा नहीं है) क्योंकि ज्ञान को दर्पण समान (अर्थात् यदि कोई कहे कि ज्ञान पर को जानता है, ऐसा नहीं लेना तो उन्हें यहाँ बतलाते हैं कि यदि ऐसा लिया जाये तो, ज्ञान की ही सिद्धि नहीं होगी) तथा उसमें रहे हुए विषय को (अर्थात् ज्ञेय को) प्रतिबिम्ब समान मानने में आया है।...' कोई कहे कि ज्ञान पर को नहीं जानता तो ऐसा ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता, यह बात कभी भी भूलने जैसी नहीं है। अन्यथा हम विभ्रम में रहकर अपना ही परम अहित करेंगे।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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