SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध के सम्यग्दर्शन का विषय दर्शाते श्लोक 65 है क्योंकि जिस प्रकार क्रोधादि भाव (रागादि भाव) जीव में सम्भव हैं उसी प्रकार पुद्गलात्मक शरीर के वर्णादि जीव के लिये सम्भव हो ही नहीं सकते।' हम सम्यग्दर्शन के लिये भेद ज्ञान की यही विधि समझे हैं कि - प्रथम पुद्गल से भेद ज्ञान और बाद में जीव के रागादि रूप भाव जो कर्म = पुद्गल आश्रित हैं, उनसे भेद ज्ञान। इस भेद ज्ञान के पश्चात् ही शुद्धात्मा प्राप्त होती है। इसीलिये यहाँ बतलाया है कि शरीर के वर्णादि भाव तो आत्मा के हैं ही नहीं परन्तु जो रागादि भाव हैं, वे (भाव रागादि भाव) तो जीव में ही होते हैं अर्थात् जीव ही उन रूप परिणमता है। जीव कर्म के निमित्त से रागादिभाव रूप में परिणमता है इसलिये यदि रागादि भावों को जीव का भाव कहें तो कहा जा सकता है। लेकिन उससे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? भावार्थ :- ‘(क्रोधादि भावों को जीव का कहना, वह नयाभास ही है ऐसी) ऊपर कही गयी शंका योग्य नहीं है, क्योंकि वे क्रोधादि भाव तो जीव में होनेवाले औदयिक भाव रूप हैं, इसलिये वे जीव के तद्गुण (जीव का ही परिणमन) है; और वे जीव का नैमित्तिक भाव होने से उन्हें सर्वथा पुद्गल का नहीं कहा जा सकता, परन्तु जीव को वर्णादिवाला कहने में आये, वहाँ तो वर्णादि सर्वथा पुद्गल के ही होने से उन्हें जीव का किस प्रकार कहा जा सकता है ? तथा क्रोधादि भावों को जीव का कहने में तो यह प्रयोजन है कि - परलक्ष्य से होनेवाले क्रोधादि भाव क्षणिक होने से और आत्मा का स्वभाव नहीं होने से वे उपादेय नहीं हैं इसलिये उनका अभाव करना चाहिये, ऐसा सम्यग्ज्ञान होता है (परन्तु जो लोग एकान्त से शुद्धता के भ्रम में होते हैं, वे क्रोधादि करने पर भी, उन्हें अपने नहीं मानकर स्वच्छन्दी होते हैं, वह सम्यग्ज्ञान नहीं परन्तु मिथ्यात्व है) इसलिये क्रोध को जीव का कहने में तो उपर्युक्त सम्यक् नय लागू होता है (अर्थात् जो उन्हें एकान्त से पर का मानते हैं, वे मिथ्यात्वी हैं) परन्तु जीव को वर्णादिवाला कहने में तो किसी भी प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिये जीव को क्रोधादिवाला कहनेवाले असद्भूतव्यवहार नय में तो नयाभासपने का दोष नहीं आता परन्तु जीव को वर्णादिवाला कहने में तो वह दोष आता है, इसलिये वह नयाभास है।' हमने पूर्व में सम्यग्दर्शन की विधि के सन्दर्भ में चर्चा करते समय जो निर्विकल्प अनुभूति रूप सम्यग्दर्शन बतलाया है, वही भाव विशेष स्पष्ट करते हुए आगे बतलाते हैं कि - तब वहाँ कोई भी नय का अवलम्बन नहीं है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy