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सम्यग्दर्शन की विधि
है। परन्तु जो यहाँ बतलायी हुई युक्ति अनुसार दृष्टि का विषय न मानकर, अन्यथा ग्रहण करते हैं, जो शुद्ध नयाभास रूप एकान्त शुद्धात्मा को खोजते और मानते हैं, वे मात्र भ्रम रूप ही परिणमते हैं। वैसा एकान्त शुद्धात्मा कार्यकारी नहीं, क्योंकि वैसा एकान्त शुद्धात्मा प्राप्त ही नहीं होता। इस कारण वह जीव भ्रम में ही रहकर अनन्त संसार बढ़ाकर अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है; जैन शासन के नय के अज्ञान के कारण और समझे बिना मात्र शब्द को ही ग्रहण करके उसके ही आग्रह के कारण ऐसी दशा होती है जो अत्यन्त करुणाजनक बात है।
यहाँ समझाया गया शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय ही उपादेय रूप शुद्धात्मा है और वही सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है। इसीलिये भेद ज्ञान कराने और शुद्धात्मा का अनुभव कराने के लिये ही नियमसार और समयसार जैसे आध्यात्मिक शास्त्रों में उसकी ही महिमा गायी है और उसी को महिमामण्डित किया है। उन शास्त्रों में प्रमाण के विषयभूत आत्मा में से जितने भाव पुद्गलाश्रित हैं अर्थात् जितने भाव कर्माश्रित (कर्म की अपेक्षा रखनेवाले) हैं, उन भावों को परभाव रूप से वर्णन किया है अर्थात् उन्हें स्वाँग रूप भावों के रूप में वर्णन किया है। यह भाव हेय हैं अर्थात् 'मैंपन' करने योग्य नहीं, इसी अपेक्षा सहित अब हम पंचाध्यायी के श्लोक देखेंगे।