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________________ सम्यग्दर्शन का विषय अर्थात् दृष्टि का विषय दृष्टि का विषय है' अर्थात् कथन कोई भी हो परन्तु व्यवस्था तो यहाँ बतलायी है वैसी अर्थात् गौण करने की और मुख्य करने की ही है जो पूर्व में हम विस्तार से समझ चुके हैं। 61 यदि कोई कहे कि - आत्मा बाहर से अशुद्ध और अन्दर से शुद्ध तो ऐसा कथन अपेक्षा से समझना। एकान्तत: अर्थात् वास्तविक रूप नहीं क्योंकि जैसा आत्मा बाहर है, वैसा ही अन्दर है, अर्थात् आत्मा के अन्दर के और बाहर के प्रत्येक प्रदेश में (क्षेत्र में) अनन्तानन्त कर्म वर्गणाएँ क्षीर-नीरवत् लगी होने से, जैसी अशुद्धि बाहर के क्षेत्र में है, वैसी ही अशुद्धि अन्दर के क्षेत्र में भी है, परन्तु अपेक्षा से बाहर अर्थात् विशेष भाव रूप विभाव भाव और अन्दर अर्थात् सामान्य भाव रूप परम पारिणामिक भाव जो कि तीनों काल शुद्ध ही हैं और इसलिये ही व्यक्त रूप आत्मा अशुद्ध और अव्यक्त रूप आत्मा शुद्ध है। इसी अपेक्षा से अन्दर से शुद्ध और बाहर से अशुद्ध ऐसा कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं। कोई आत्मा में अन्दर एकान्त शुद्ध ध्रुव भाव खोजता हो तो, वैसा एकान्त शुद्ध ध्रुव भाव आत्मा में नहीं है । अर्थात् कोई भी कथन उसकी अपेक्षा सहित समझना अनिवार्य है, नहीं तो ऐसा मानने वाले के नियम से भ्रमित करने वाले परिणाम ही निकलेंगे। यदि कोई कहता है कि आप तो दृष्टि के विषय में प्रमाण का द्रव्य लेते हो तो दोष आयेगा। उन्हें हम बतलाते हैं कि पूर्व में विस्तार से समझाये अनुसार द्रव्य के जितने प्रदेश (क्षेत्र) प्रमाण के हैं, उतने ही प्रदेश (क्षेत्र) परम पारिणामिक भाव रूप दृष्टि के विषय के हैं अर्थात् उतने ही प्रदेश शुद्धात्मा के हैं। दूसरा, उस प्रमाण के द्रव्य को ही हम शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के चक्षु से देखते हैं और इस कारण से हम उसे ही परम पारिणामिक भाव कहते हैं कि जिसे आप प्रमाण चक्षु से देखने पर, प्रमाण का विषय कहते हैं और उस प्रमाण के विषय में आप शुद्ध और अशुद्ध भाव नहीं परन्तु भाग मानते हैं, इसलिये आपकी दृष्टि में दोष है। उसमें हमारा कोई दोष नहीं है। हम तो उसे ही अर्थात् प्रमाण के द्रव्य को ही शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से परम शुद्ध परम पारिणामिक भाव अनुभव करते हैं और परम सुख का अनुभव करते हैं। इसलिये आप भी दृष्टि बदलकर उसे ही शुद्ध देखें और आप भी उसका अर्थात् सत्-चित्-आनन्द स्वरूप का आनन्द लें, ऐसा हमारा अनुरोध है; यह ही सम्यग्दर्शन का स्वरूप है और यह ही सम्यग्दर्शन की विधि है। स्थूल से ही सूक्ष्म में, प्रगट से ही अप्रगट में और व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है। यही तो नियम है। इस कारण हमारा आग्रह है कि 'जैसी है वैसी' वस्तु व्यवस्था समझकर प्रमाण के विषय का ‘जैसा है वैसा' ज्ञान करके फिर उसमें से ही शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय ग्रहण करने योग्य
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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