SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध के सम्यग्दर्शन का विषय दर्शाते श्लोक ११ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध के सम्यग्दर्शन का विषय दर्शाते श्लोक श्लोक ५३२ : अन्वयार्थ :- 'इस असद्भूतव्यवहार नय को जानने का फल यह है कि यहाँ पराश्रित रूप से होनेवाले भावक्रोधादि सम्पूर्ण उपाधि मात्र छोड़कर बाक़ी के उसके (जीव के) शुद्ध गुण हैं ऐसा मानकर यहाँ कोई पुरुष सम्यग्दृष्टि हो सकता है।' इस गाथा में सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) बतलाया है और उसके अनुभव से जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है ऐसा बतलाया है। 63 भावार्थ :‘इस असद्भूतव्यवहार नय का प्रयोजन यह है कि-जो जीव के हैं, वे असद्भूतव्यवहार नय से हैं परन्तु निश्चय से नहीं (निश्चय से जो भाव जिसके लक्ष्य से हों, वे भाव उसके समझना, इसीलिये जो द्रव्य रागादि भाव पुद्गल रूप हैं, वे कर्म के हैं और जीव के जो रागादि भाव हैं, वे जीव के होने पर भी, वे कर्म के उदय के कारण होने से उन्हें कर्म के खाते में डालकर, निश्चय से उन्हें पर भाव कहा जाता है, क्योंकि वे भाव सम्यग्दर्शन के लिये 'मैंपन' / एकत्व करने योग्य भाव नहीं हैं।) इस कारण कोई भव्यात्मा उपाधि मात्र अंश को छोड़कर (इस उपाधि रूप अंश छोड़ने की विधि प्रज्ञा रूप बुद्धि से उसे गौण करने की है, दूसरी कोई नहीं) निश्चय तत्त्व को ग्रहण करने का इच्छुक बनकर सम्यग्दृष्टि हो सकता है, क्योंकि सर्व नयों में निश्चय नय ही उपादेय है परन्तु बाक़ी के कोई नय नहीं। बाक़ी के नय तो मात्र परिस्थितिवश प्रतिपाद्य विषय का निरूपण मात्र करते हैं। इसलिये एक निश्चय नय ही कल्याणकारी है...' श्लोक ५४५ : अन्वयार्थ :- 'ज्ञेय - ज्ञायकभाव में सम्भव होनेवाले संकर दोष के भ्रम का क्षय करना अथवा अविनाभाव से सामान्य का साध्य और विशेष का साधक होना, वही इस उपचरित असद्भूतव्यवहार नय का प्रयोजन है।' अर्थात् पर को जानने से संकर दोष होता है ऐसे भ्रम का नाश करना वह प्रयोजन है और साथ ही साथ ऐसा भी बतलाया है कि पर को जानना वह स्व को जानने की सीढ़ी है क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है। प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है, व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है। अर्थात् पर को जानना वह सम्यग्दर्शन होने में मदद रूप हो सकता है, नहीं कि अड़चन रूप और इसलिये किसी ने 'पर को जानने से आत्मा मिथ्या दृष्टि हो जायेगा'ऐसा मानने का कोई कारण नहीं क्योंकि यही ज्ञान का स्वभाव है। जैसे कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy