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सम्यग्दर्शन की विधि
सम्यग्दर्शन का विषय अर्थात् दृष्टि का विषय प्रश्न :- अगर छद्मस्थ आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त कर्म वर्गणाएँ होने से वह अशुद्ध आत्मा रूप से ही परिणमित होती है, तो उसमें यह शुद्धात्मा कहाँ रहती है ? उत्तर :- जीव के लक्षण से जीव को ग्रहण करने से और पुद्गल के लक्षण से पुद्गल को ग्रहण करने से तथा फिर उनमें प्रज्ञा छैनी से (तीव्र बुद्धि से) भेद ज्ञान करने से शुद्धात्मा प्राप्त होती है।
प्रथम तो प्रगट में आत्मा के लक्षण से अर्थात् ज्ञान रूप देखने-जानने के लक्षण से आत्मा को ग्रहण करते ही, पुद्गल मात्र के साथ भेद ज्ञान हो जाता है और फिर उससे आगे बढ़ने पर जीव के जो चार भाव उदय भाव, उपशम भाव, क्षयोपशम भाव और क्षायिक भाव ये चार भाव जो कर्म की अपेक्षा से कहे गए हैं और कर्म पुद्गल रूप ही होते हैं; इसलिये इन चार भावों को भी पुद्गल के खाते में डालकर, प्रज्ञा रूप बुद्धि से अर्थात् इन चार भावों को जीव में से गौण करते ही, जो जीव भाव शेष रहता है, उसे ही परम पारिणामिक भाव, शुद्धात्मा, कारण शुद्ध पर्याय, स्वभाव भाव, सहज ज्ञान रूपी साम्राज्य, शुद्ध चैतन्य भाव, स्वभाव दर्शनोपयोग, कारण स्वभाव दर्शनोपयोग, कारण स्वभाव ज्ञानोपयोग, कारण समयसार, कारण परमात्मा, नित्य शुद्ध निरंजन ज्ञान स्वरूप, दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणमता ऐसा चैतन्य सामान्य रूप, चैतन्यअनुविधायी परिणाम रूप, सहज गुणमणि की खान, सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय), इत्यादि अनेक नामों से पहचाना जाता है और उसके अनुभव से ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। उस भाव की अपेक्षा से ही सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं - ऐसा कहा जाता है। उसके अनुभव को ही निर्विकल्प अनुभूति कहा जाता है क्योंकि वह सामान्य भाव स्वरूप होने से उसमें किसी भी विकल्प को स्थान ही नहीं है। इसलिये उसकी अनुभूति होते ही अंशत: सिद्धत्व का भी अनुभव होता है।
भेद ज्ञान (सम्यग्दर्शन) की विधि ऐसी है कि जिसमें जीव के जो चार भावों को गौण करने पर जो शुद्ध जीवत्व प्राप्त हुआ, उस अपेक्षा से उसे कोई ‘पर्याय रहित द्रव्य दृष्टि का विषय है' ऐसा भी कहते हैं। अर्थात् द्रव्य में से कुछ भी निकालना नहीं है, मात्र विभाव भावों को ही गौण करना है और उस अपेक्षा से कोई कहते हैं कि वर्तमान पर्याय के अतिरिक्त का पूरा द्रव्य वह