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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक किसी एक अंश से अलग उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य नहीं है तथा न तो अलग-अलग अंशात्मक उत्पादव्यय-ध्रौव्य से, द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाला ही कहा जाता है। इसलिये शंकाकार का उत्पादव्यय को अंशात्मक मानना और ध्रौव्य को अंशात्मक न मानना' यह कथन (शंका) ठीक नहीं है।' अब शंकाकार शंका करता है कि उत्पादादिक तीनों अंशों के होते हैं या अंशी के (द्रव्य के = सत् के) होते हैं? और ये तीनों सत्तात्मक अंश हैं या असत्तात्मक ? इसका समाधान देते हैं श्लोक २२७ : अन्वयार्थ :- ‘ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि जैन सिद्धान्त में निश्चय से अनेकान्त ही बलवान है। एकान्त बलवान नहीं है। इसलिये अनेकान्तपूर्वक समस्त ही कथन अविरुद्ध होते हैं तथा अनेकान्त के बिना समस्त कथन विरुद्ध हो जाते हैं।' अर्थात् मात्र शब्दों को पकड़कर कभी एकान्त अर्थ नहीं निकालना चाहिये क्योंकि जैन सिद्धान्त में प्रत्येक शब्द-प्रत्येक वाक्य किसी न किसी अपेक्षा के साथ ही होता है। इसलिये उन शब्दों अथवा वाक्यों को उस-उस अपेक्षानुसार समझकर ग्रहण करना आवश्यक है। अनेकान्त स्वरूप जैन सिद्धान्त के अनुसार ही अर्थ समझना योग्य है, अन्यथा एकान्त के दोष से मिथ्यात्व का दोष अवश्य ही आता है जो कि अनन्त भव भ्रमण बढ़ाने के लिये शक्तिमान है और इसीलिये एकान्त ग्रहण और एकान्त के आग्रह से बचकर प्रस्तुत किसी भी विधान को अनेकान्त स्वरूप समझाये अनुसार ग्रहण करके शीघ्रता से संसार से मुक्त होना चाहिये। मोक्षमार्ग पर चलने के लिये अनेकान्त ही सहायभूत है। श्लोक २२८ : अन्वयार्थ :- 'यहाँ केवल अंशों के उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य नहीं होते, तथा अंशी के भी उत्पादादि तीनों नहीं होते परन्तु निश्चय से अंश से युक्त अंशी के ये उत्पादादिक तीनों होते हैं।' अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप द्रव्य कहा है, वह पूर्ण अभेद है और वह अभेद रूप ही परिणमता है और वह पूर्ण द्रव्य ही उत्पादादि रूप होता है; उसमें कोई अंश रूप विभाग नहीं है, मात्र अपेक्षा से कहे जाते हैं। श्लोक २२९ : भावार्थ :- 'शंकाकार का कहना ऐसा है कि शब्द या अर्थ दृष्टि से उत्पादादि एक पदार्थ में बन सकते हैं, वैसे ध्रौव्य और उत्पाद-व्यय किसी एक पदार्थ में सिद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि उत्पाद-व्यय अनित्यपने के साधक हैं और ध्रौव्य नित्यपने का साधक है, इसलिये ध्रौव्य और उत्पाद-व्यय, ये दोनों परस्पर विरोधी होने से उन्हें एक पदार्थ का मानना तो प्रत्यक्ष बाधित है। उसका समाधान-'
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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