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________________ सम्यग्दर्शन की विधि चक्षु से देखने में आने पर वही प्रमाण रूप द्रव्य, उभय रूप अर्थात् द्रव्य-पर्याय रूप ज्ञात होता है अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप ज्ञात होता है; इसलिये समझना यह है कि जैन सिद्धान्त में प्रत्येक कथन विवक्षावश ही अर्थात् अपेक्षा से ही कहा जाता है, न कि एकान्त से। इसलिये जब ऐसा प्रश्न होता है कि पर्याय किसकी बनी है? और उत्तर- द्रव्य की = ध्रौव्य की, ऐसा दिया जाय तो जैन सिद्धान्त नहीं समझनेवालों को लगता है कि यह पर्याय में द्रव्य कहाँ से आ गया? अरे भाई! पर्याय है वह द्रव्य का ही वर्तमान है और कोई भी वर्तमान उस द्रव्य का ही बना हुआ होगा न? ऐसा है जैन सिद्धान्त के अनुसार त्रिकाली ध्रुव वस्तु का स्वरूप, अन्यथा नहीं; अन्यथा लेने पर वह जिनमत बाह्य है। दृष्टान्त - श्लोक २२३ : अन्वयार्थ :- ‘मिट्टी रूप द्रव्य, सतात्मक घट द्वारा लक्ष्यमान होता हुआ केवल घट रूप ही कहने में आता है तथा वहाँ ही असतात्मक पिण्ड रूप द्वारा लक्ष्यमान होता हुआ केवल पिण्ड रूप ही कहने में आता है।' और अब मिट्टी रूप (ध्रुव रूप) कहते हैं। । श्लोक २२४ : अन्वयार्थ :- ‘अथवा वह मिट्टी रूप द्रव्य अगर यहाँ केवल मृतिकापने (मिट्टीपने) से लक्ष्यमान होता है तो वह मिट्टी ही कहने में आता है, इस प्रकार एक सत् के ही उत्पादादिक तीनों इस सत् के अंश हैं।' एक अभेद सत् रूप वस्तु को अलग-अलग विवक्षाओं से देखने पर वह पूर्ण वस्तु ही उस स्वरूप कही जाती है, जैसे कि घट को मात्र मिट्टी रूप अर्थात् त्रिकाली ध्रुव रूप देखने से वह पूर्ण वस्तु (घट) मात्र मिट्टी रूप ही ज्ञात होती है, अर्थात् उसमें से घटत्व अथवा पिण्डत्व निकाल देना नहीं पड़ता, वह अपने आप ही मिट्टीपन में अंतर्भूत हो जाता है, अत्यन्त गौण हो जाता है और यही विधि है त्रिकाली ध्रुव द्रव्य को द्रव्य दृष्टि से निहारने की; अन्य विधि नहीं। यही आगे बताते हैं। श्लोक २२५ : अन्वयार्थ :- ‘परन्तु वृक्ष में फल, फूल तथा पत्र की भाँति कोई अंश रूप एक भाग से सत् का उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य नहीं है।' अर्थात् वास्तव में द्रव्य में ध्रुव और पर्याय ऐसे दो भाग नहीं हैं और उनके क्षेत्र भेद (भिन्न प्रदेश) भी नहीं हैं परन्तु एक ही वस्तु को अपेक्षा से - भेद नय से ऐसा कहा जाता है। भावार्थ :- “जिस प्रकार वृक्ष में फूल, फल तथा पत्र इत्यादि भिन्न-भिन्न अंशों से रहते हैं और वह वृक्ष भी उनके संयोग से फल, फूल, पत्रादि वाला कहने में आता है, उस प्रकार सत् के
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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