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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक श्लोक २१६ : अन्वयार्थ :- 'अथवा शुद्धता को विषय करनेवाले नय की अपेक्षा से उत्पाद भी नहीं, व्यय भी नहीं तथा ध्रौव्य, गुण और पर्याय भी नहीं परन्तु केवल एक सत् ही है।' अर्थात् शुद्ध नय से एक मात्र पंचम भाव रूप = परमपारिणामिक भाव रूप सत् ही है, वह वैसा का वैसा ही परिणमता है जो हम आगे देखेंगे। 43 : गुण भावार्थ 'शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य, और पर्याय इत्यादि कुछ भी नहीं है। केवल सर्व के समुदाय रूप एक सत् ही पदार्थ है (यह कथन वास्तविकता रूप = अभेद नय का है और यही कार्यकारी है इसलिये भेद रूप व्यवहार में रमने योग्य नहीं है परन्तु अभेद रूप वस्तु में ही स्थिर होने योग्य है, जो हम आगे देखेंगे।) क्योंकि जितनी कोई भेद विवक्षा है, वह सब पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से ही कल्पित करने में आती है (अर्थात् वास्तविक स्वरूप तो मात्र अभेद ही है, बाक़ी सब मात्र कल्पना ही है)। शुद्धद्रव्यार्थिक नय, किसी भी प्रकार के भेद को विषय नहीं बनाता इसलिये शुद्धद्रव्यार्थिक नय से निरन्तर सर्व अवस्थाओं में सत् ही प्रतीतिमान होता है (सर्व अवस्थाओं में पर्याय में एकमात्र पंचम भाव रूप = परमपारिणामिक भाव रूप सत् ही प्रतीतिमान होता है) परन्तु उत्पाद-व्ययादिक नहीं । इसका स्पष्टीकरण-' = श्लोक २१७ : अन्वयार्थ :- 'सारांश यह है कि जो भेद होता है अर्थात् जिस समय भेद विवक्षित होता है, उस समय निश्चय से वे उत्पादादि तीनों प्रतीत होने लगते हैं तथा जिस समय वह भेद मूल से ही विवक्षित करने में नहीं आता, उस समय वे तीनों (भेद) भी प्रतीत नहीं होते।' भावार्थ :- ‘ऊपर के कथन का सारांश यह है कि - पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है और दोनों नय (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक) पदार्थ के सामान्य, , विशेष धर्मों में से परस्पर सापेक्ष किसी एक धर्म को मुख्य रूप से तथा दूसरे धर्म को गौण रूप से विषय बनाते हैं (इसलिये द्रव्यार्थिक चक्षुवाले को जहाँ प्रमाण रूप द्रव्य, मात्र सामान्य रूप ही ज्ञात होता है, वहाँ पर्यायार्थिक चक्षुवाले को वह प्रमाण रूप द्रव्य मात्र पर्याय रूप ही ज्ञात होता है और प्रमाण चक्षु से देखने में आने पर वही प्रमाण रूप द्रव्य, उभय रूप अर्थात् द्रव्य-पर्याय स्वरूप ज्ञात होता है; इसलिये समझना यह है कि जैन सिद्धान्त में सब कुछ विवक्षावश अर्थात् अपेक्षा से कहा जाता है, न कि एकान्त से; इसलिये जब ऐसा प्रश्न होता है कि पर्याय किसकी बनी है ? और उत्तर - द्रव्य की = ध्रौव्य की, ऐसा दिया जावे तो जैन सिद्धान्त नहीं समझनेवालों को लगता है कि पर्याय में द्रव्य कहाँ से आ गया? अरे भाई ! पर्याय है वह द्रव्य का ही वर्तमान है और कोई भी वर्तमान उस द्रव्य का ही बना हुआ होगा न! दृष्टान्त - जैसे समुद्र में लहरें किसकी बनी हुई हैं ? तो कहना पड़ेगा
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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