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सम्यग्दर्शन की विधि
कि पानी की अर्थात् समुद्र की और मिट्टी का घड़ा किसका बना हुआ है ? तो कहना पड़ेगा कि मिट्टी का; इसी प्रकार स्वर्ण के कुण्डलादिक आकारों की पर्यायें किसकी बनी हुई है ? तो कहना पड़ेगा कि स्वर्ण की ; अब पूछते हैं कि ज्ञेयाकार रूप पर्यायें किसकी बनी हुई है? कहना पड़ेगा कि ज्ञान की और वह ज्ञान सामान्य ही ज्ञायक है। ऐसी ही द्रव्य पर्याय रूप वस्तु व्यवस्था है कि जिसे समझे बिना मिथ्यात्व का दोष खड़ा ही रहनेवाला है; इसीलिये यह वस्तु व्यवस्था सर्व प्रथम स्पष्ट समझना अत्यन्त आवश्यक है।) जिस समय भेद विवक्षित होता है, उस समय अभेद गौण हो जाने से उत्पादादिक तीनों प्रतीत होने लगते हैं और जिस समय द्रव्यार्थिक नय द्वारा अभेदता विवक्षित होती है, उस समय भेद गौण हो जाने से उत्पादादिक तीनों में से किसी की प्रतीति नहीं होती। मात्र एक सत् ही सत् प्रतीतिमान होता है।'
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जैन सिद्धान्त में त्रिकाल ध्रुव रूप वस्तु अथवा पर्याय रहित द्रव्य को लक्ष्य में लेने की ऐसी ही विधि है। अभेद द्रव्य में से कुछ भी निकालना हो तो वह मात्र प्रज्ञा से = बुद्धि से ही (लक्ष्य करने से - मुख्य गौण करने से ही) निकाला जा सकता है, अन्यथा नहीं। इस पर हम आगे विचार करेंगे।
अब शंकाकार नयी शंका करता है कि
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श्लोक २१८ : अन्वयार्थ :- 'शंकाकार का कहना ऐसा है कि निश्चय से उत्पाद और व्यय ये दोनों ही अंश स्वरूप भले हों, परन्तु त्रिकालगोचर जो ध्रौव्य है, वह किस प्रकार अंशात्मक होगा ?' - इस शंका का समाधान
श्लोक २१९ : अन्वयार्थ :- 'ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वास्तव में ये तीनों अंश स्वयं सत् ही हैं सत् के नहीं। यहाँ सत् अर्थान्तरों की भाँति एक-एक होकर अनेक है, ऐसा नहीं है। ' भावार्थ :- ‘ऊपर की शंका ठीक नहीं है, क्योंकि जैन सिद्धान्त में सत् के उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्य रूप अंश नहीं माने हैं परन्तु सत् स्वयं ही उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक माना है (अर्थात् द्रव्य को एक, अखण्ड, अभेद स्वरूप ही माना है जो वास्तविकता है और वह स्वयं ही उत्पादव्यय रूप होता है) उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य ये तीनों प्रत्येक भिन्न-भिन्न पदार्थों की भाँति मिलकर अनेक नहीं हैं परन्तु विवक्षावश ही (भेद नय से अथवा मुख्य-गौण से ) ये तीनों भिन्न-भिन्न रूप से प्रतीत होते हैं। इसका स्पष्टीकरण - '
श्लोक २२० : अन्वयार्थ :- 'इस विषय में यह उदाहरण है कि - यहाँ जो उत्पाद रूप