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________________ सम्यग्दर्शन की विधि भावार्थ :- ‘शंकाकार के कथनानुसार गुणों को और वस्तु को (द्रव्य को) सर्वथा नित्य तथा उत्पाद-व्यय को सर्वथा अनित्य मानना ठीक नहीं है, क्योंकि इस सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिये जो समुद्र और लहरों का दृष्टान्त दिया, वह शंकाकार के उपरोक्त पक्ष का साधक न होकर बिना कहे ही उपरोक्त पक्ष के (शंकाकार के पक्ष के) विपक्ष का अर्थात्-जैन सिद्धान्तानुसार माने हुए कथंचित् अभेदात्मक पक्ष का साधक है। आगे इसी अर्थ का स्पष्टीकरण करते हैं-' 42 यदि कोई व्यक्ति द्रव्य को चक्की की तरह समझता हो, जैसे कि चक्की में नीचे का भाग स्थिर और ऊपर का भाग घूमता है तो द्रव्य में जैन सिद्धान्तानुसार ऐसी व्यवस्था भी नहीं है, यह भी इस गाथा से सिद्ध होता है। श्लोक २१३ :अन्वयार्थ :- 'लहरों से व्याप्त समुद्र की भाँति निश्चय से किसी भी गुण के परिणामों से अर्थात् पर्यायों से सत् की अभिन्नता होने से उस सत् का अपने परिणामों से कुछ भी भेद नहीं है।' अर्थात् जो पर्याय है वह द्रव्य का वर्तमान ही होने से द्रव्य की ही बनी हुई होने से (लहर में समुद्र ही होने से) वास्तव में कोई भेद नहीं है परन्तु भेद नय से भेद कहने में आता है, इसलिये उसे कथंचित् भेदाभेद भी कहा जाता है। भावार्थ :- ‘जिस प्रकार लहरों के समूह को छोड़ने पर समुद्र कुछ भिन्न वस्तु सिद्ध नहीं हो सकता; इसी प्रकार अपने त्रिकालवर्ती परिणामों को छोड़ने पर गुण तथा द्रव्य भी कोई भिन्न वस्तु सिद्ध नहीं हो सकते।' अर्थात् पर्याय में ही द्रव्य छिपा है, द्रव्य पर्याय से वास्तविक भिन्न प्रदेशी नहीं है। श्लोक २१४ : अन्वयार्थ :- 'परन्तु जो समुद्र है वही लहरें होता है क्योंकि वह समुद्र स्वयं ही लहर के रूप में परिणमन करता है।' अर्थात् द्रव्य ही (अव्यक्त ही) पर्याय रूप से (व्यक्तरूप से) व्यक्त होता है, परिणमन करता है। श्लोक २१५ : अन्वयार्थ :- 'इसलिये सत् वह स्वयं ही उत्पाद है तथा वह सत् ही ध्रौव्य है तथा व्यय भी है क्योंकि सत् (द्रव्य) से पृथक् कोई उत्पाद अथवा व्यय अथवा ध्रौव्य नहीं है।' द्रव्य-गुण- पर्याय और उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य व्यवस्था समझने के लिये इस गाथा का मर्म समझना अत्यन्त आवश्यक है कि वास्तव में द्रव्य अभेद है, भेद मात्र समझाने के लिये ही है, व्यवहार मात्र ही है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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