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सम्यग्दर्शन की विधि
दृष्टि भेद से भेद कई लोग संसारी जीव को एकान्त अशुद्ध मानते हैं। वे पर्याय दृष्टि जीव कहे जाते हैं। वे लोग चतुर्थ गुणस्थानक में शुद्धात्मा के अनुभव की बात भी नहीं मानते। संसारी जीव शुद्ध नय/द्रव्यार्थिक नय अपेक्षा से परम शुद्ध है अर्थात् त्रिकाल शुद्ध है, यह बात कई शास्त्रों में बतलाई है। सम्यग्दर्शन प्राप्ति के समय जो शुद्धात्मा का अनुभव होता है, वह इस त्रिकाल शुद्धात्मा का अनुभव होता है ना कि आत्मा के मध्य के आठ रुचक प्रदेशों का। उस शुद्धात्मा को कारण परमात्मा या कारण समयसार भी कहते हैं। वह कारण परमात्मा त्रिकाल शुद्ध है, जिसके बल/अनुभव से ही कार्य परमात्मापना प्राप्त होता है, यह बात हम आगे विस्तार से समझायेंगे। उसको यथायोग्य समझ कर पहले उसका निर्णय करना अर्थात् भाव भासन करना है ताकि उस का अनुभव अपनी योग्यता अनुसार हो सके।
वस्तु में सर्व भेद दृष्टि अपेक्षा से हैं, न कि वास्तविक। जैसे कि-प्रमाण दृष्टि से देखने पर वस्तु द्रव्य-पर्यायमय है अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप ही है, जबकि उसी वस्तु को पर्याय दृष्टि से देखें अर्थात् उसे मात्र उसके वर्तमान कार्य से, उसकी वर्तमान अवस्था से ही देखें तो वह मात्र उतनी ही है। पूर्ण द्रव्य उस समय मात्र वर्तमान अवस्था रूप ही ज्ञात होता है। उस वर्तमान अवस्था में ही पूर्ण द्रव्य छिपा हुआ है। यही भाव समयसार गाथा १३ में दर्शाया गया है अर्थात् वर्तमान, त्रिकाली का ही बना हुआ है। जैसे स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २६९ में बतलाया है कि 'जो नय वस्तु को मात्र विशेष रूप से (पर्याय से) अविनाभूत (अर्थात् पर्याय रहित द्रव्य को नहीं परन्तु पर्याय सहित द्रव्य को) सामान्य रूप को नाना प्रकार की युक्ति के बल से (अर्थात् पर्याय को गौण करके द्रव्य को) साधे वह द्रव्यार्थिक नय (द्रव्य दृष्टि) है।' भावार्थ- 'वस्तु का स्वरूप सामान्य विशेषात्मक है। विशेष के बिना सामान्य नहीं होता...' और गाथा २७० में भी बताया है कि 'जो नय अनेक प्रकार से सामान्य सहित सर्व विशेष को उसके साधन का जो लिंग (चिह्न) उसके वश से साधता है, वह पर्यायार्थिक नय (पर्याय दृष्टि) है।' भावार्थ-‘सामान्य (द्रव्य) सहित उसके विशेषों को (पर्यायों को) हेतुपूर्वक साधे (अर्थात् द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करे), वह पर्यायार्थिक नय (पर्याय दृष्टि) है....' अर्थात् पूर्ण द्रव्य जब मात्र वर्तमान अवस्था