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उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप व्यवस्था
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उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप व्यवस्था अब उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से भी यही भाव समझते हैं। जो उत्पाद-व्यय है, वह पर्याय है और जो ध्रुव है वह द्रव्य है अर्थात् जो द्रव्य है, वह नित्य है और उससे ही ‘यह वही है' ऐसा निर्णय होता है इसलिये उसे ही ध्रुवभाव अथवा अपरिणामी भाव भी कहा जाता है।
जैनधर्म में ध्रुव भाव एकान्त अपरिणामी अर्थात् कूटस्थ नहीं परन्तु परिणमनशील वस्तु है। जैसे स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २२६ में बतलाया है कि - ‘और एकान्त स्वरूप द्रव्य है, वह लेशमात्र भी कार्य नहीं करता तथा जो कार्य नहीं करे, वह द्रव्य ही कैसा ? वह तो शून्य रूप जैसा है।' भावार्थ - ‘जो अर्थक्रिया रूप हो, उसे ही परमार्थ वस्तु कहा है परन्तु जो अर्थक्रिया रूप नहीं, वह तो आकाश के फूल की भाँति शून्य रूप है।' अर्थात् जो अपने कार्यसहित की वस्तु है, उसका जो स्थिरता भाव है, वही ध्रुव भाव अथवा अपरिणामी भाव है और उस वस्तु का जो कार्य है अर्थात् उसका जो वर्तमान भाव अथवा उसकी जो वर्तमान अवस्था है, उसे ही उसका परिणमता भाव कहा जाता है, उसे ही उत्पाद-व्यय कहा जाता है। वह इस प्रकार कि पुरानी पर्याय का क्षय और नयी पर्याय का उत्पाद, यह उत्पाद-व्यय किसी नयी वस्तु के उत्पादव्यय रूप नहीं, वे तो मात्र एक वस्तु के (द्रव्य के) एक समय पहले के रूप का व्यय और वर्तमान समय के रूप का उत्पाद ही है अर्थात् एक-अभेद-अखण्ड-अभिन्न वस्तु का समय अपेक्षा से कार्य (परिणमन), वही उसकी उत्पाद-व्यय रूप पर्याय कही जाती है।
यहाँ कोई वास्तविक उत्पाद-व्यय अथवा आना-जाना नहीं है। परन्तु वस्तु नित्य परिणमती रहती है अर्थात् अनुस्युति से रचित पर्यायों का समूह, वही वस्तु और उसमें समय अपेक्षा से उत्पादव्यय कहा जाता है अर्थात् उसी वस्तु को वर्तमान से देखने पर उसे उस द्रव्य की वर्तमान अवस्था अर्थात् पर्याय कहा जाता है। वस्तु में उत्पाद-व्यय-ध्रुव ऐसे वास्तविक भेद न होने पर भी, मात्र 'व्यवहार' से ही, भेद नय की अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है। उसका फल मात्र वस्तु का स्वरूप समझाने तक ही है, न कि भेद में ही अटक जाने के लिये। भेद में ही अटकने से वस्तु का अभेद स्वरूप जो स्वात्मानुभूति के लिये कार्यकारी है पकड़ में नहीं आता। अब हम आगे, भेदाभेद स्वरूप किस अपेक्षा से प्राप्त होता है, उसकी यथार्थ विधि समझाने का प्रयास करते हैं।