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________________ 210 सम्यग्दर्शन की विधि यदि कोई निमित्त को एकान्त से अकर्ता माने और ऐसा ही प्ररूपण करे तो वह जिनमत बाह्य ही है अर्थात् वह अपने और अन्य अनेकों के पतन का कारण है, यही बात इस श्लोक में भी बतलायी है कि शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से, रागादि रूप अपने आप कभी नहीं परिणमता, परन्तु उस में निमित्त पर संग ही है - ऐसा वस्तु स्वभाव प्रकाशमान है अर्थात् सदा वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है, किसी ने किया नहीं है अर्थात् निमित्त स्वयं उपादान रूप से परिणमता न होने पर भी वह अमुक संयोगों में उपादान पर असर करता है और उसे ही वस्तु स्वभाव कहा है; इसीलिये जैन सिद्धान्त को विवेक से ग्रहण किया जाता है और अपेक्षा से समझा जाता है, न कि एकान्त से जो कि महा अनर्थ का कारण है। ८.मोक्ष अधिकार :- परम पारिणामिक भाव रूप अर्थात् सहज परिणमनयुक्त शुद्धात्मा में 'मैंपन' करते ही स्वात्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और फिर उसी में निरन्तर स्थिरता करने से आत्मा क्षपकश्रेणी से चढ़कर घाति कर्मों का नाश करके केवल ज्ञान-केवल दर्शन प्राप्त करती है और फिर आय क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त करती है; यही मोक्ष का मार्ग है और इसलिये सभी जीवों के लिये शुद्धात्मा ही सेवन करने योग्य है, यही मोक्ष अधिकार का सार है। ___ गाथा २९४ : गाथार्थ :- ‘जीव तथा बन्ध नियत स्व लक्षणों से (अपने-अपने निश्चित लक्षणों से) छेदे जाते हैं (यानि जीव का लक्षण ज्ञान है और बन्ध का लक्षण पुद्गल रूप कर्मनोकर्म और उनके निमित्त से होते जीव के भाव है); प्रज्ञा रूपी छैनी द्वारा (यानि तीक्ष्ण बुद्धि अथवा भगवती प्रज्ञा से उन दोनों के बीच भेद ज्ञान से) छेदने में आने पर (भेद ज्ञान करने पर) वे रूप भिन्न हो जाते हैं।' यानि द्रव्य दृष्टि में मात्र ‘शुद्धात्मा' रूप जीव ही ग्रहण होता है और उस में ही मैंपन' होने पर/करने पर स्वात्मानुभूति सहित सम्यग्दर्शन प्रगट होता है यानि दोनों भावों में प्रगट भेद ज्ञान हो जाता है। गाथा २९४ : टीका :- ....आत्मा का स्वलक्षण चैतन्य है, क्योंकि वह समस्त शेष द्रव्यों से असाधारण है (यानि अन्य द्रव्यों में वह नहीं है)। वह (चैतन्य) प्रवर्तता हआ (परिणमता हआ) जिस-जिस पर्याय को व्याप्त कर प्रवर्तता है (जिस-जिस पर्याय रूप परिणमता है) और निवर्तता हुआ (छोड़ता हुआ - निवृत्त होता हुआ) जिस-जिस पर्याय को ग्रहण करके निवर्तता है (जिस-जिस पर्याय को छोड़ता है), वे-वे समस्त सहवर्ती या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं ऐसा लक्षित करना.... (यहाँ समझना यह है कि आत्म द्रव्य अभेद ही है और वह अभेद रूप ही परिणमता
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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